भारत उन देशों में शामिल हैं जहां आज भी फांसी की सजा का प्रावधान है.आज तक ऐसी कई खबरें सुनी होंगी जिसमें किसी जज द्वारा किसी अपराधी को फांसी की सजा सुनाई गई हो. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई आदेशों में साफ किया है कि फांसी की सजा तभी दी जाए जब अपराधी ने जो रेयरेस्ट ऑफ रेयर यानि जघन्य अपराध किया हो. लेकिन क्या आपने कभी ऐसा कोई वाक्य सुना है जब जज को ही फांसी की सजा सुनाई गई हो और सुप्रीम कोर्ट ने भी उस पर अपनी मुहर लगाई हो. शायद नहीं क्योंकि ऐसा कोई वाक्य सुनने को नहीं मिलता. लेकिन इतिहास में एक बार ऐसा हुआ है जब भारतीय न्यायपालिका ने अपने ही एक पूर्व सदस्य को फांसी की सजा सुनाई थी.
भारत के एकमात्र जज जिन्हें फांसी की सजा सुनाई गई उनका नाम उपेंद्र नाथ राजखोवा. उपेंद्र नाथ राजखोवा असम के ढुबरी जिले की अदालत में बतौर जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर थे. साल 1970 की बात है फरवरी महीने में जज साहब रिटायर हो गए थे. लेकिन अभी भी उन्होंने अपना सरकारी बंगला खाली नहीं किया था. कहा जाता है कि इसी दौरान जज साबह के परिवार वाले अचानक गायब हो गए. जज साहब से जब कोई उनके परिजनों के बारे में पुछता को वो कोई ना कोई बहाना बना देते थे.उपेंद्र नाथ राजखोवा के परिवार में उनके अलावा उनकी पत्नी और तीन बेटियां थी.
अप्रैल आते आते जज साहब ने अपना सरकारी बंगाल खाली कर दिया और कहीं चले गए किसी को नहीं पता था कि आखिर जज साहब कहां गए थे. कहा जाता है कि उपेंद्र नाथ राजखोवा की पत्नी के भाई पुलिस में थे. जज साहब के साले को पता चला की उनके जीजा राजखोवा सिलीगुड़ी के एक होटल में कई दिनों से ठहरे हुए हैं. इसके बाद वो कुछ पुलिसकर्मियों के साथ होटल में गए और राजखोवा से अपनी बहन और भांजियों के बारे में पुछताछ करने लगे. इस दौरान राजखोवा ने कई तरह के बहाने बनाए. कहा जाता है कि इस दौरान उन्होंने आत्महत्या करने का भी प्रयास किया. पुलिस ने जब उनसे पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी पत्नी और बेटियों की हत्या कर दी है.
इस मामले ने पूरे असम को हिलाकर रख दिया था. इस सनसनीखेज हत्या के मामले की सुनवाई के लिए विशेष न्यायाधीश को नियुक्त किया गया था, जिसने सुर्खियां बटोरीं. आखिरकार राजखोवा को इस अपराध के लिए दोषी ठहराया गया और उन्हें मई, 1973 में मौत की सजा सुनाई गई. गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक साल बाद उनकी मौत की सजा की पुष्टि की. भारत के राष्ट्रपति द्वारा उनकी दया याचिका को खारिज करने के बाद, उन्हें अंततः 14 फरवरी, 1976 को जोरहाट जेल में फांसी दे दी गई.
उपेंद्र नाथ राजखोवा को हत्या के लिए फांसी पर लटका दिया गया था, जिसमें उनकी पत्नी और बेटियों की हत्या कर दी गई थी. लेकिन हत्या के पीछे मकसद को पूरा करने में अभियोजन की विफलता ने कहानी को और पेचीदा बना दिया. आज तक किसी को नहीं पता चल पाया कि आखिर उपेंद्र नाथ राजखोवा ने अपनी पत्नी और बच्चों को क्यों मारा था.
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