भगवान शिव दो तरीके से तांडव नृत्य करते है. शायद ही लोग जानते होगें कि शिव दो नृत्य कब और क्यों करते है. बता दें कि जब वह गुस्से में नृत्य करते हैं, तो तब बिना डमरू के तांडव करते है, लेकिन जब वह तांडव करते समय डमरू भी बजाते है, तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती थी, लेकिन जब वो शांत समाधि में होते हैं तो नाद करते हैं. नाद का अर्थ होता है अगर हम किसी भी आवाज को सुनते है. यह एक प्रकार का अवाज होती है.
अगर बात नाद की करें तो वह एक प्रकार का बिना गाने के नृत्य करना है. जो सिर्फ महसूस किया जाता है. इतना ही नहीं नाद दो प्रकार के होते है आहद और अनहद. भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र का पहला अध्याय लिखने से पहले अपने शिष्यों को तांडव का शिक्षा दी थी. उनके शिष्यों में गंधर्व और अप्सराएं थीं. नाट्यवेद के आधार पर प्रस्तुतियां भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत की जाती थीं.
भरत मुनि के दिए ज्ञान और प्रशिक्षण के कारण उनके नर्तक तांडव भेद अच्छी तरह जानते थे और उसी तरीके से अपनी नृत्य शैली परिवर्तित कर लेते थे. पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया था. जब से आज तक तांडव नृत्य पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे के जरिए जीवंत है. शिव का यह तांडव नटराज रूप का प्रतीक है.
नटराज, भगवान शिव का ही रूप है, जब शिव तांडव करते हैं तो उनका यह रूप नटराज कहलता है. नटराज शब्द दो शब्दों के मेल से बना है. ‘नट’ और ‘राज’, नट का अर्थ है ‘कला’ और राज का अर्थ है ‘राजा’. भगवान शंकर का नटराज रूप इस बात का सूचक है कि ‘अज्ञानता को सिर्फ ज्ञान, संगीत और नृत्य से ही दूर किया जा सकता है.
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वर्तमान में शास्त्रीय नृत्य से संबंधित जितनी भी विद्याएं प्रचलित हैं.वह तांडव नृत्य की ही देन हैं.तांडव नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है. लास्य शैली में वर्तमान में भरतनाट्यम, कुचिपुडी, ओडिसी और कत्थक नृत्य किए जाते हैं.