‘गुड़ खाएंगे पर गुलगुले से परहेज करेंगे?’ – शिवसेना

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“गुड़ खाएंगे पर गुलगुले से परहेज करेंगे।” मुहावरा शिवसेना पर बिल्कुल सटीक बैठती है। केन्द्र और महाराष्ट्र में बीजेपी से साथ सत्ता के गुड़ रूपी मिठास में डूबी शिवसेना बीजेपी और मोदी जैसे गुलगुले से परहेज करना चाह रही है। दोनों सत्ता में भागेदारी के बावजूद मौजूदा वक्त में शिवसेना नरेन्द्र मोदी के कट्टर विरोधियों में से एक है। लेकिन शिवसेना को मीरा भायांदर महानगरपालिका चुनाव में हार के बाद इस बात का अंदाजा होना चाहिए कि उसकी ये चालबाजी उसे महंगी पड़ रही है।

शिवसेना-बीजेपी तल्खी का कारण

2014 महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिंदुत्ववादी बीजेपी-शिवसेना के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर अलगाव हो गया। बीजेपी को 122 तो शिवसेना को 63 सीटें मिली और मजबूरन दोनों को साथ आना पड़ा, लेकिन इसके बाद शिवसेना ने मोदी और बीजेपी विरोध का जैसे बीड़ा ही उठा लिया है।

दरअसल शिवसेना ये पूरी तरह से समझ गई है कि मोदी और अमित शाह क्षेत्रिय दलों को खत्म करना चाहते हैं और ये बात कुछ दिन पहले अमित शाह ने खुलकर ये बात कही थी, जिसका सहयोगी दलों ने विरोध भी किया था। यही कारण है कि शिवसेना ने महाराष्ट्र में अपना रुतवा कायम रखना चाहती है, इसीलिए नुकसान के बावजूद वो भाजपा से समझौता करना नहीं चाहती क्योंकि उद्धव ठाकरे को पता है कि अगर समझौता किया तो जनता पूरी तरफ बीजेपी के तरफ झुक जाएगी। हालांकि 2017 के बीएमसी चुनाव में शिवसेना को कहीं लाभ हुआ तो कहीं हानि पर ताजा मीरा भायंदर महानगरपालिका चुनाव शिवसेना के लिए चेतावनी है कि ये सब नहीं चलने वाला कि आप उसे ही गलत बता रहे जिसके साथ सत्ता का मजा ले रहे हैं। इसका मतलब आप उनसे ज्यादा गलत हैं।

 

शिवसेना की मजबूरी

शिवसेना की मजबूरी उसकी पूरानी राजनीतिक शैली है, जो कि बीजेपी से भी ज्यादा हिंदुत्ववादी पार्टी की है। वहीं पूर्वांचल विरोधी पार्टी का भी धब्बा उनके ऊपर है जो कि मुंबई में बड़े वोट बैंक के रूप में मौजूद हैं। कांग्रेस पार्टी के साथ जाने पर उनके अपने वोटर बिगड़ सकते हैं क्योंकि उनकी विचारधारा आपस में मिलती नहीं है।

 

वैसे उद्धव के आने के बाद पार्टी ने अपनी शैली बदली है, उन्होंने बाहरियों को भगाओ और मराठियों को अपनाओ वाला झंडा थामना कम कर दिया है पहले के मुताबिक। यही नहीं कट्टरता के मामले में भी पार्टी आजकल सजग रहती है। जैनियों के पर्व के मामले में जब महाराष्ट्र सरकार ने मांस पर प्रतिबंध लगाया था तो शिवसेना ने उसकी काफी आलोचना की थी।

 

ताजा मंत्रिमंडल विस्तार के बाद तो शिवसेना और भी झल्ला गई है, शिवसेना सांसद संजय राउत ने लालू के ट्वीट को रिट्वीट करते हुए उनके ट्वीट की तारीफ की। इसी से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिवसेना किस तरह से बौखलाई हुई है। शिवसेना का जो मुखपत्र ‘सामना’ अक्सर पाकिस्तान हिंदुत्व और बाकी मुद्दों के लिए गरजा करती थी, आजकल वो बीजेपी और नरेन्द्र मोदी पर गुर्राया करता है।

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आगे क्या होगा?

शिवसेना को ये दाव महंगी पड़ सकती है कि सत्ता में रहो और साथियों की ही आलोचना करो। उसे या तो सत्ता से अलग होकर मुख्य विपक्ष की भूमिका अदा करना चाहिए और अलग होने के बाद अगर बीजेपी सरकार चलाने के लिए एनसीपी का साथ ले तो खुलकर उसका विरोध करना चाहिए और जनता के बीच जाकर बीजेपी के कथनी और करनी के मुद्दे और विकास के मुद्दे पर घेरना चाहिए। महाराष्ट्र में भाजपा आज की तारीख में हर तरह से शिवसेना से आगे और मजबूत है। इस स्थिति में उसे बराबरी का दर्जा मिलना मुश्किल है।

अगर ऐसा ही रहा तो आगे चलकर उसे राज्य में ज्यादा सीटें मिलने वाली है नहीं और अगर बीजेपी ये कहकर एनसीपी के साथ चली जाती है कि शिवसेना हमारे साथ रहते हुए भी हमारी आलोचना करती है तो उसे जनता की सहानुभूति भी मिल सकती है और शिवसेना को नुकसान भी हो सकता है।

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