ऋषि-मुनि इन फायदों के लिए पहना करते थे खड़ाऊं

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आजकल के फैंसी जूतों और चप्पल के ज़माने में अगर किसी को खड़ाऊ पहनने को कहा जाए तो वह जरूर भड़क सकता है। कुछ लोगों को तो इसका मतलब भी नहीं पता होगा। लेकिन प्राचीन समय में साधु, महात्मा लकड़ी के बने इस चप्पल अर्थात खड़ाऊ को पहना करते थे। खड़ाऊ का चलन हमारे वैदिक काल से चला आ रहा है।

एक जमाना था जब लकड़ी या पेड़ों की छाल या घास से पैरों में पहनने के चप्पल बनाए जाते थे। किसी जमाने में हर भारतीय के पांव में दिखने वाली खड़ाऊ या पादुका को आज सिर्फ़ बाबा या साधु ही पहनते नजर आते हैं।

कई धार्मिक ग्रंथों और साहित्य में खड़ाऊ का जिक्र किया गया है। इसी के साथ खड़ाऊ पहनने के पीछे का चलन धार्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक भी है। यजुर्वेद में इसका जिक्र भी किया गया है कि खड़ाऊ पहनने से कई बीमारियों से हमारी रक्षा होती है। आज हम बताने जा रहे हैं कि ऋषि-मुनि खड़ाऊ क्यों पहना करते थे?

ऋषियों और मुनियों के खड़ाऊं पहनने की मुख्य वजह थी कि गुरुत्वाकर्षण के नियम के अनुसार पृथ्वी हर एक वस्तु को अपनी ओर खींचती है और ऐसे में हमारे शरीर से निकलने वाली विद्युत तरंगें जमीन में चली जाती हैं।

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वहीं इन तरंगों को बचाने के लिए खड़ाऊ पहनने की व्यवस्था चलन में आई। इसके अलावा और खड़ाऊ पहनने से पैर के तलवे की मांसपेशियां मजबूत बनती हैं। कहा जाता है खड़ाऊ पहनने से शारीरिक संतुलन सही भी रहता है और इससे रीढ़ की हड्डी पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

वहीं पैरों में लकड़ी की चप्पल यानि खड़ाऊं पहनने से शरीर में रक्त प्रवाह सही रहता है और शरीर में सकारात्मक ऊर्जा विकसित होती रहती है। इस कारण से आज के समय भी खड़ाऊ पहनने की सलाह सभी को दी जाती है लेकिन लोग फैशन से आगे किसी को नहीं रखते।

आज के ज़माने में खड़ाऊं पहनना मुश्किल भी लगता है। हालांकि शहरों में हर चीज़े सपाट रहती है फिर लोग इसे कम्फर्टेबल नहीं बना पाते हैं जबकि ऋषि-मुनि पुराने जमाने में जंगलों में खड़ाऊँ पहनकर घूमा करते थे।

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हालांकि ऑनलाइन साइटों पर खड़ाऊं बिकते हुए आजकल भी नज़र आ जाती है।