सुमित व्यास बोले, टीचर 10 मिनट तक खड़े रहे और पीपीटी उठा कर ले गए, बस यही S*X एजुकेशन की क्लास थी

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सुमित व्यास बोले, टीचर 10 मिनट तक खड़े रहे और पीपीटी उठा कर ले गए, बस यही S*X एजुकेशन की क्लास थी

सुमित व्यास बोले, टीचर 10 मिनट तक खड़े रहे और पीपीटी उठा कर ले गए, बस यही S*X एजुकेशन की क्लास थी

ओटीटी से अपने करियर की शुरुआत करने वाले ऐक्टर सुमित व्यास ने ‘टीवीएफ’, ‘परमानेंट रूममेट्स’, ‘आर या पार’ में नजर आ चुके हैं। वह बॉलिवुड फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘गुड्डू की गन’, ‘वीरे दी वेडिंग’ में भी अहम रोल अदा कर चुके हैं। अब वह वेब सीरीज ‘जांबाज हिन्दुस्तान के’ में एक आतंकवादी का किरदार निभा रहे हैं। इस इंटरव्यू में उन्होंने हमसे अपने किरदार, निजी जिंदगी और सेक्स एजुकेशन पर खुलकर बात की।

आपने कहा था कि आप अब तक बोल्ड किरदार अदा करते आए हैं। लेकिन अब आपका रोल को चुनने का तरीका बदला-बदला लग रहा है। आर या पार में भी आप एक पॉजिटिव रोल में थे, अपनी नई सीरीज में नेगेटिव किरदार में हैं, तो क्या ये समय की मांग है या आपके अपने करियर के गोल को लेकर कुछ अलग सोचा हुआ है?
एक ही तरह का काम करते-करते आप भी बोर हो जाते हैं। जैसा मेरा व्यक्तित्व है, उसी के आस-पास के रोल करना मेरे लिए भी थका देने वाला होता है। कुछ खास एक्सप्लोर करने को बचता नहीं है। इस लिहाज से भी ये निर्णय लिया है। हमने पिछले एक-दो साल में सोचा कि कोशिश करेंगे और ऐसे किरदार ढूंढेंगे, जो हमसे अलग हों, हमसे अलग सोचते हों। इसी वजह से ये वरायटी आपको दिख रही है।

दिल्ली में आना आपके लिए कितना खास मोमेंट होता है? दिल्ली में आपको क्या पसंद है?
हम कनॉट प्लेस में हैं तो हम आज ही इस बारे में बात कर रहे थे कि यहां तो बहुत सारी जगह हैं, जहां खाने-पीने जाया जा सकता है। दिल्ली सालों से आता रहा हूं। यहां बहुत हरा-भरा सब नजर आता है। (हंसते हुए) दिल्ली की सड़कें इतनी खुली-खुली हैं तो मैं तो इसी से बहुत जलता हूं। मुंबई में तो हमें ऐसी सड़कें नहीं मिलती हैं। खुली जगह देखकर ही मेरा दिल खुश हो जाता है, क्योंकि हमारे पास जगह कम है और उसी में हम सब लोग सब कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे यहां का मौसम भी बहुत अच्छा लग रहा है।

आप इस वेब सीरीज अब तक का सबसे अलग किरदार निभा रहे हैं, अपने रोल के बारे में बताएं, ये कितना चुनौती भरा रोल रहा?
मैं इस सीरीज में एक आतंकवादी का किरदार अदा कर रहा हूं। पहली बात मुझे लगता है कि आतंकवादी किसी और ग्रह से नहीं आए हैं, वह इसी धरती पर जन्म लेते हैं। वह आपके हमारे जैसे लोग ही हैं, उनका खाना-पीना, हवा पानी सब हमारे जैसा ही होता है। हमारी आपकी तरह की उनकी एक सामान्य परिवार में परवरिश होती है। लेकिन एक वक्त पर आकर वह एक खास विचारधारा पर विश्वास करने लगता है। उस विचारधारा में व्यक्ति का विश्वास इतना बढ़ जाता है कि उसे बाकी सब गलत लगने लगता है। वहां कुछ एक केमिकल लोचा हो जाता है। तो हमें वो चीज समझने की जरूरत है। अगर हम उसको समझ लेंगे तो जिंदगी और कहानियों में ब्लैक एंड वाइट नहीं करेंगे। मैं अपने किरदार को जज करूंगा तो उसको ईमानदारी से अदा नहीं कर पाऊंगा। ऐक्टर के लिए एक किरदार पहले एक इंसान है, उस इंसान को समझना होता है, उसके विचार को समझना होगा, वो विचार कैसे बने इस बारे में जानना होगा, तभी हम उस किरदार को अदा कर पाएंगे।

ये एक डार्क और नेगेटिव किरदार है, तो इसको निभाना मानसिक तौर पर आप पर क्या असर डालता है?

हां, स्ट्रेसफुल तो होता है। इसमें एक्शन से ज्यादा रिएक्शन स्ट्रेसफुल होता है। अगर मैं अपनी बात करूंगा तो मेरे लिए किसी को परेशानी देना तकलीफदेह है, दूसरी तरफ एक ऐसा किरदार, जिसके लिए सैकड़ों लोगों की जान लेना एक स्तर पर उसके लिए न्याय है, तो वो रिएक्शन बहुत मुश्किल होता है। आपको उसी रिएक्शन को किरदार के जरिए जस्टिफाई करना होता है। वो एक कठिन चीज है।

आपकी फिल्म ‘छतरीवाली’ हाल ही में रिलीज हुई है, जो सेक्स एजुकेशन की बात करती है। इस विषय पर जितनी भी फिल्में सिनेमा पर आई हैं, उनको ज्यादा दर्शक नहीं मिले हैं। ‘छतरीवाली’ ओटीटी पर रिलीज हुई, तो आपको नहीं लगा कि इस विषय पर फिल्म बनाना और उसे चलाना थोड़ा मुश्किल होता है? दूसरा, आपको अपनी निजी जिंदगी में कब लगा कि आपको सेक्स के बारे में जानकारी है और आप सब जानते हैं?
ये बहुत ही मुश्किल विषय है जिस पर ‘छतरीवाली’ कहानी है। इसमें एक बारीक लाइन है, अगर उस लाइन से कहानी थोड़ी भी इधर-उधर हो जाती है, तो लोगों के लिए वह देखने में असहज हो जाता है या फिर कहानी बोरिंग भी हो सकती है। ऐसे में उस लाइन को पकड़कर चलना काफी जरूरी होता है। मुझे सेक्स एजुकेशन लेने का मौका नहीं मिला क्योंकि मैं एक सामान्य स्कूल में पढ़ा था। वहां ये विषय नहीं होता था। हालांकि मुझे याद है कि जब मैं नौवीं कक्षा में आया तो सरकार की तरह से सेक्स एजुकेशन पर एक क्लास अनिवार्य कर दी गई थी। तो मैं जब क्लास में था, तो वहां फॉर्मेलिटी के लिए एक टीचर आया और उसने पीपीटी बोर्ड लगाया। ना बच्चों ने कुछ पूछा और ना ही टीचर ने कुछ कहा। टीचर 10 मिनट तक खड़े रहे और फिर वह पीपीटी को उठा कर ले गए, बस ये ही उनकी सेक्स एजुकेशन की क्लास थी। तो बातचीत करके ही बाद में इस बारे में चीजें समझ आने लगीं।

फिल्म में कॉन्डोम के यूज़ के बारे में भी बताया गया है, जिसके बारे में हमारे देश में खुलकर बात नहीं होती। इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
कॉन्डोम के बारे में जो फिल्म में बताया गया है, वो बात एक कन्टेक्स्ट में कही गई बात है कि एक खास तरह के लोग हैं, जो झिझकते हैं। ऐसा नहीं है कि हम फिल्म में सिर्फ ये बता रहे हैं कि कॉन्डोम कितनी बढ़िया चीज है। लोग इसे एक जजमेंट की तरह देखते हैं, जबकि वो ना सिर्फ सुरक्षा के लिए जरूरी है बल्कि औरतों की पूरी जिंदगी बदल जाती है। कई बार मैं खुद भी देखता हूं कि औरतों का भी एक जजमेंट होता है कि शादी की है तो बच्चा कर ही लो। जबकि ये जरूरी नहीं है। क्योंकि आपके कह देने से एक औरत की जिंदगी हमेशा के लिए बदल जाएगी, इससे आपका शरीर वापस नहीं हो पाएगा। बच्चा होने के बाद आपकी जिंदगी बदल जाती है, चाहे मर्द कितना भी हल्ला मचा लें कि हम इक्वल पैरंट्स हैं। पर 70-30 प्रतिशत का रेशो रहता है। 5 साल तक को बच्चे की परवरिश मां को ही करनी होती है। इसलिए बच्चा चाहिए या नहीं ये निर्णय महिला की ही होनी चाहिए।