राजीव गांधी और माधवराव सिंधिया के ‘खेल’ में फंस गए वाजपेयी, फिर कभी ग्वालियर से नहीं लड़े चुनाव

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राजीव गांधी और माधवराव सिंधिया के ‘खेल’ में फंस गए वाजपेयी, फिर कभी ग्वालियर से नहीं लड़े चुनाव

भोपालः पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और ग्वालियर के पूर्व महाराज माधवराव सिंधिया की दोस्ती पुरानी थी। दोनों की गहरी दोस्ती ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को ऐसा फंसाया था कि वे फिर कभी अपने गृह जिला ग्वालियर से चुनाव नहीं लड़े। कांग्रेस नेतृत्व ने 1984 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के बड़े नेताओं के खिलाफ पार्टी के युवा और लोकप्रिय चेहरों को उतारने की रणनीति बनाई थी। इसमें राजीव गांधी और माधवराव सिंधिया की दोस्ती ने ऐसी बिसात बिछाई कि वाजपेयी उलझ कर रह गए और चुनाव हार गए।

माधवराव सिंधिया उस समय गुना से सांसद थे और 1984 में भी वहां से नामांकन भर चुके थे। सिंधिया बनाम वाजपेयी का आइडिया राजीव गांधी के सलाहकारों में शामिल रहे कांग्रेस नेता अरुण नेहरू ने दिया था। राजीव ने इसकी चर्चा सिंधिया से की तो वे तैयार हो गए। फिर दोनों ने मिलकर ऐसी प्लानिंग की कि वाजपेयी चाहकर भी कुछ नहीं कर सके और उन्हें ग्वालियर लोकसभा सीट पर करीब एक लाख 75 हजार वोटों से हार मिली।

राजीव-सिंधिया की दोस्ती में फंसे वाजपेयी
सिंधिया और राजीव ने इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। यह विचार सिंधिया ने ही दिया था कि ग्वालियर से उनके चुनाव लड़ने की बात पूरी तरह गोपनीय रखी जाए। सिंधिया ने राजीव को बताया कि वाजपेयी को भनक लग गई तो वे दूसरे क्षेत्र में चले जाएंगे। किसी को संदेह नहीं हो, इसलिए कांग्रेस ने ग्वालियर से एक डमी उम्मीदवार की घोषणा भी कर दी थी। नामांकन की अंतिम तारीख को जब केवल डेढ़ घंटे का समय बचा था, सिंधिया ग्वालियर के निर्वाचन कार्यालय पहुंचे और नामांकन भर दिया। वाजपेयी के पास इतना समय भी नहीं था कि वे किसी दूसरे क्षेत्र से नामांकन कर सकें। उन्हें मजबूरी में ग्वालियर से ही चुनाव लड़ना पड़ा।

सिंधिया से पूछकर किया नामांकन
वाजपेयी की इच्छा सिंधिया के खिलाफ लड़ने की नहीं थी। उन्होंने माधवराव से पहले पूछा भी था कि वे ग्वालियर से चुनाव तो नहीं लड़ रहे। सिंधिया के मना करने के बाद उन्होंने अपना नामांकन किया था। इधर, कांग्रेस पार्टी अपनी स्ट्रैट्जी पर काम कर रही थी। इसी के तहत इलाहाबाद से हेमवती नंदन बहुगुना के खिलाफ अमिताभ बच्चन और मुंबई में राम जेठमलानी के खिलाफ सुनील दत्त को उतारा गया था। वाजपेयी यह नहीं समझ पाए कि वे राजीव और सिंधिया के खेल में फंसने वाले हैं।

दोनों परिवारों के बीच घनिष्ठ संबंध
वाजपेयी के सिंधिया परिवार से पुराने संबंध थे। वाजपेयी अक्सर यह चर्चा करते थे कि उनकी पढ़ाई में सिंधिया घराने ने काफी मदद की थी। इसके लिए उनके दिल में कृतज्ञता का भाव था। वाजपेयी के पिता भी सिंधिया परिवार से जुड़े रहे थे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया से भी उनके घनिष्ठ संबंध थे।

माधवराव के खिलाफ राजमाता ने किया प्रचार
जब चुनावी मुकाबले का विकल्प नहीं रहा तो वाजपेयी ने राजमाता से मदद मांगी। राजमाता सिंधिया ने अपने बेटे माधवराव के खिलाफ वाजपेयी के पक्ष में प्रचार भी किया, लेकिन जिता नहीं सकीं। यह पहला मौका था जब सिंधिया परिवार की मां ने बेटे के खिलाफ प्रचार किया था।

मां-बेटे के बीच कटुता भी एक कारण
वाजपेयी बनाम माधवराव के मुकाबले में राजमाता की भूमिका केवल चुनाव प्रचार तक ही सीमित नहीं थी। वे शायद इसकी एक वजह भी थीं। दरअसल, उन दिनों राजमाता और माधवराव के संबंध बेहद खराब थे। सिंधिया परिवार का संपत्ति विवाद अदालत तक पहुंच चुका था। माधवराव अपनी मां को यह बताना चाहते थे कि क्षेत्र की जनता उनके साथ है। जीत हासिल कर उन्होंने अपनी लोकप्रियता साबित भी कर दी।

वाजपेयी फिर ग्वालियर से नहीं लड़े
वाजपेयी के लिए यह हार बेहद दुखदायी थी। इसके बाद वे कभी ग्वालियर से चुनाव नहीं लड़े। वे इसके बाद मध्य प्रदेश के विदिशा, गुजरात के गांधीनगर और उत्तर प्रदेश के लखनऊ से लोकसभा के लिए चुने गए, लेकिन ग्वालियर का रुख नहीं किया।



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