कवेलूपोश मकान और नरेगा मजदूरी भी तीन साल से नहीं मिली | family of govind giru | Patrika News

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कवेलूपोश मकान और नरेगा मजदूरी भी तीन साल से नहीं मिली | family of govind giru | Patrika News

कवेलूपोश मकान और नरेगा मजदूरी भी तीन साल से नहीं मिली | family of govind giru | News 4 Social

जयपुरPublished: Apr 13, 2023 02:33:45 am

राजस्थान का जलियांवाला बाग कहे जाने वाले मानगढ के हीरो गोविंद गुरु के परिवार के हालात दयनीय

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जयपुर। आप यह जानकर हैरान होंगे कि सामाजिक क्रांति के जिस नायक का साथ देते हुए 110 साल पहले 1500 से अधिक आदिवासियों ने जान दे दी, उसके वंशज करणगिरी का परिवार आज मिट्टी के कवेलूपोश मकान में रहकर नरेगा मजदूरी से गुजारा करने को मजबूर हैं। नरेगा में कोरोनाकाल में की गई मजदूरी के 30 हजार रुपए भी इस परिवार को तीन साल से नहीं मिले हैं।
यह नायक कोई और नहीं, राजस्थान का जलियांवाला बाग कहे जाने वाले मानगढ़ धाम के नायक गोविंद गुरु हैं। जिनके नाम पर राजस्थान सरकार एक विश्वविद्यालय चला रही है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उनके काम पर सम्मान जताने पिछले साल एक नवम्बर को मानगढ़ आए। यह मानगढ़ अब सामान्य स्थल रहा, बल्कि एक पावन धाम के रूप में पूजा जाता है। इसके विपरीत सरकार के आर्थिक संबल नहीं देने से यह परिवार खेती, मजदूरी से भरण-पोषण कर रहे हैं। परिवार डूंगरपुर के बांसिया स्थित इस महान नायक के जन्म स्थल पर संग्रहालय बनने का सपना देख रहा हैं। इसके लिए 12 करोड़ रुपए स्वीकृत भी हो चुके, लेकिन कार्य शुरू नहीं हुआ हे। गोविंद गुरु की पांचवीं पीढ़ी के सदस्य नरेन्द्र बंजारा ने बताया कि बांसिया में राज्य सरकार ने कोई सुविधा मुहैया नहीं कराई है। उनके पिता और गोविंद गुरु की चौथी पीढ़ी के सदस्य करणगिरी परिवार की आर्थिक स्थिति और जागरूकता के अभाव में पढ़ नहीं पाए, वे स्वयं भी 10 वीं तक ही पढ़े हैं।
कौन थे गोविंद गुरु
गोविंद गुरु आमजन को भक्ति से जोड़ने का कार्य करते हुए मानगढ़ धाम पहुंचे थे। उनके दो पुत्र हरिगर, अमरूगर थे। हरिगर के दो पुत्र मानसिंह व गणपत बांसिया गांव में रहे। मानसिंह के पुत्र करणगिरी बांसिया स्थित धाम को संभाल रहे हैं। वहीं दूसरे पुत्र अमरूगर के दो पुत्र थे और उनका परिवार बांसवाड़ा जिले में त्रिपुरा सुंदरी के पास कालीभीत गांव में बस गया।
यहां शहीदी धाम है
गुजरात-मध्यप्रदेश सीमा से सटा मानगढ़ आदिवासियों का शहीदी धाम है, जहां प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को बड़ी संख्या में भक्त आते हैं। ये भक्त धूणी, समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। यहां गोविंद गुरु पैनोरमा भी है।
जलाई थी क्रांति की लौ
डूंगरपुर जिले के बांसिया में बंजारा परिवार में जन्मे गाेविंद गुरु ने आदिवासियों से कुरीति मिटाने के लिए 1890 के दशक में भगत आंदोलन आरंभ किया। इससे पहले लोगों को धर्म से जोड़कर शिक्षा के प्रति प्रेरित किया। लोगों को शराब, मांस व व्यभिचार आदि से दूर रखने के लिए सम्प सभा की स्थापना की।
ऐसे हुआ नरसंहार
बढ़ते प्रभाव के कारण सामाजिक सुधारक गोविंद गुरु अंग्रेजों को खटकने लगे। 1903 से मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सम्प सभा का वार्षिक मेला भरने लगा। 17 नवम्बर, 1913 को भी वार्षिक मेला था। इसी दौरान गोविंद गुरु ने अकाल पीड़ित आदिवासियों का लगान कम करने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार से मुक्ति के लिए अंग्रेजी शासन को पत्र लिखा। इसके विपरीत ब्रिटिश अधिकारियों ने मानगढ़ को घेरकर उन्हें भक्तों सहित पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। इसी दौरान कर्नल शटन के नेतृत्व में पुलिस ने गोलीबारी आरंभ कर दी। इससे कुछ ही मिनट में पहाड़ी पर खून की नदी बहने लगी। इस घटना में1500 से अधिक आदिवासी शहीद हो गए और हजारों लोग घायल हुए, जो पंजाब के जलियांवाला बाग नरसंहार से भी बड़ी घटना थी।
गिरफ्तार हुए थे गोविंद गुरू
अंग्रेज पुलिस ने गोविन्द गुरु पर शिकंजा कसने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर अहमदाबाद जेल भेज दिया गया। उन्हें पहले फांसी की सजा सुनाई, लेकिन अच्छे आचरण के कारण उसे रोक दिया गया। करीब दस वर्ष का कारावास पूर्ण होने के बाद 1923 में वे जनसेवा से जुड़ गए। 30 अक्तूबर 1931 को गुजरात के कम्बोई गांव में उनका निधन हो गया।

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