भगवान की भक्ति से क्या फल मिलता है?

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भगवान की भक्ति से क्या फल मिलता है?

संसार में ऐसे व्यक्ति हैं, जो प्रतिदिन भगवान के दर्शन व पूजन करते हैं लेकिन उनके जीवन में कोई उपलब्धि नहीं होती है। कारण उनका मन उसमें नहीं लगता है। यह विचार गणाचार्य विराग सागर महाराज ने बुधवार को दानाओली स्थित जैन मंदिर में धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।

उन्होंने कहा कि व्यक्ति मंदिर तो जाता है लेकिन घर-गृहस्थी के संकल्प-विकल्प को लेकर जाता है। मंदिर में भी उसे घर की याद आती है कि मुझे बच्चों को स्कूल छोड़ना है, काम पर जाना है आदि। मंदिर में होने पर भी उसे घर नजर आता है। यही कारण है कि जीवन भर मंदिर जाने पर भी उन्हें कोई उपलब्धि नहीं होती है। जब तक हम भगवान की भक्ति में मन नहीं लगाएंगे, उपयोग को केंद्रित नहीं करेंगे, तब तक हमें धार्मिक क्रियाओं का कोई फल नहीं मिलेगा।

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अत: हम धार्मिक क्रियाएं करें तो उसमें मन और भाव भी लगाएं, क्योंकि भाव बिना की गई क्रिया फल नहीं देती। उन्होंने कहा कि जैन मंदिर में प्रवेश करते ही द्वार पर निस्सही निस्सही शब्दों का उच्चारण करना चाहिए। इसका आध्यात्मिक अर्थ यही है कि प्रवेश के पूर्व घर-गृहस्थी विषयक संसार के सभी संकल्प-विकल्प को बाहर ही छोड़ दो, जिसमें मंदिर में तुम्हें घर नहीं, भगवान दिख सकें।

ईश्वर को जब भी कोई पुकारता है, वह उसका उत्तर अवश्य देते हैं। वह भी पुकार की प्रतीक्षा करते रहते हैं। बस इस पुकार में शिद्दत होनी चाहिए, व्याकुलता होनी चाहिए। ईश्वर को पाने की प्यास जब जाग जाएगी, तो उन तक पहुंचना मुमकिन हो जाएगा। हृदय में यह व्याकुलता कैसे जागेगी? इसका एकमात्र उपाय है ईश्वर की निरंतर भक्ति, उनका निरंतर ध्यान।

कई बार लोग मुझसे यह प्रश्न पूछते हैं कि भगवान कहां मिलेगा? भगवान कैसे मिलेगा? इसके उत्तर में मैं कहना है कि आप *बिना तड़पे, बिना खोजे उसको पा लेना चाहते हो, पर वह तब तक नहीं मिलता, जब तक आप तड़पें नहीं। जितनी अधिक भूख लगी हो, उतना ही भोजन का रस भी अधिक मिलता है। पर अगर आपको भूख नहीं है तो फिर भले कोई कितना ही स्वादिष्ट भोजन आपके सामने रख दे, आप उस भोजन का आनन्द नहीं ले सकते हो।

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मानव शरीर पाने के बाद ही कर्म करके मनुष्य को भगवान से प्रेम करने का अवसर मिलता है। इसलिए भगवान की भक्ति करनी चाहिए। 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव जीवन पाने के बाद भी जो लोग स्वर्ग पाने की इच्छा रखते हैं, वे मूर्ख हैं।

कर्म इस संसार में आने वाला हर जीव करता है, मगर भगवत्‌ आराधना और भक्ति केवल मानव तन से ही संभव है। उसके बाद भी कुछ लोग अपने कर्म और भक्ति के बाद स्वर्ग पाने की इच्छा मन में पालते हैं। उन्हें पता नहीं होता है कि जिसे वे स्वर्ग पाने का रास्ता समझते हैं, उस मानव तन को पाने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं, क्योंकि मानव देह पाने के बाद ही भक्ति रस से मिलने वाले आनंद का अनुभव किया जा सकता है।

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