UP Exit Polls: भाजपा छोड़ सपा में गए नेताओं से नहीं पड़ा भाजपा पर असर, ‘केशव कार्ड’ ने ओबीसी वोटर्स को यूं संभाला!

233

UP Exit Polls: भाजपा छोड़ सपा में गए नेताओं से नहीं पड़ा भाजपा पर असर, ‘केशव कार्ड’ ने ओबीसी वोटर्स को यूं संभाला!

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी से पिछड़े वर्ग के कई बड़े नेताओं ने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया था। साल 2017 में 102 ओबीसी विधायकों के साथ सत्ता के सिंहासन तक पहुंची भाजपा के भविष्य को लेकर जहां सवाल खड़े हो रहे थे, वहीं पार्टी ने शानदार तरीके से घर में मची भगदड़ के बाद पिछड़े वोटर्स को मैनेज किया। यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा जानती थी कि बिना पिछड़ी जातियों के वोट को साधे वह सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती। इसी के चलते पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव के पोस्टर लीडर रहे केशव मौर्य को चुनावी मैदान में पूरी तरह से उतार दिया। केशव ने भी पिछड़ी जातियों के प्रभुत्व वाली सीटों पर जमकर मेहनत की और उसी का नतीजा एग्जिट पोल्स में दिख रहा है।

भाजपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि जब 2017 से पहले पार्टी में शामिल हुए नेताओं ने 2022 में सपा का दामन थाम लिया तो केन्द्रीय नेतृत्व ने प्रदेश नेतृत्व से बात की। नाम न छापने की शर्त पर एक सूत्र ने कहा, ‘केशव मौर्य को साफ निर्देश दिए गए कि जिन सीटों पर पार्टी छोड़कर गए नेताओं का प्रभाव हैं, उनपर फोकस किया जाए। स्टार प्रचारक के तौर पर केशव ने वैसे तो पूरे प्रदेश में प्रचार किया, लेकिन जिन क्षेत्रों में पिछड़े वोट निर्णायक क्षमता रखते थे, वहां केशव मौर्य के करीबियों ने डेरा डाला और उन्हें साधने की कोशिश की।’ 

भाजपा ने यूं खेला ट्रंप कार्ड

एक अन्य सूत्र ने कहा कि वर्तमान में प्रदेश के सभी बड़े राजनीतिक दलों के प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी समाज से आते हैं। बीजेपी से स्वतंत्र देव सिंह, सपा से नरेश उत्तम पटेल, कांग्रेस से अजय कुमार लल्लू और बीएसपी से भीम राजभर जातिगत वोटर्स को साधने की कोशिश में जुटे थे। ऐसे में भाजपा ने पूरी योजना के साथ विभिन्न चरणों के चुनाव प्रचार खत्म होने से ठीक पहले ओबीसी वोटर्स के प्रभुत्व वाले इलाकों में केशव की सभा लगाई, जिससे प्रचार बंद होने के ठीक पहले उन्हें मन से भाजपा की ओर मोड़ा जा सके।

1991 हो या 2017, ओबीसी नेता ही बने BJP के तारनहार

आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की पूरी यात्रा के केन्द्र में हमेशा से ओबीसी नेता ही रहे हैं। राम मंदिर आंदोलन के दौरान कल्याण सिंह जहां पार्टी का चेहरा बनकर 1991 में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान भी सूबे में चुनावी कमान केशव मौर्य के पास थी। यूपी की राजनीति को लंबे समय से कवर करने वाले पत्रकारों का मानना है कि कल्याण सिंह के बाद यूपी में भाजपा के पास कोई बड़ा ओबीसी चेहरा नहीं रहा और उसी वजह से पार्टी को सूबे में 14 साल तक वनवास भी झेलना पड़ा। 



Source link