ऐतिहासिक फैसला: उच्च न्यायालय ने शर्तों के साथ दी इच्छामृत्यु की इजाज़त

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आज शुक्रवार 9 मार्च को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु की इजाज़त दे दी है. सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान ये फैसला लिया साथ ही साथ ही इच्छामृत्यु के लिए कड़े दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं. लिविंग विल यानी इच्छा मृत्यु पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के संविधान पीठ का फैसला सुना दिया है. कोर्ट ने लिविंग विल में पैसिव यूथेनेशिया को इजाज़त दी है. संविधान पीठ ने इसके लिए सुरक्षा उपायों के लिए गाइडलाइन जारी की है. कोर्ट ने ऐसे मामलों में भी गाइडलाइन जारी की जिनमें एडवांस में ही लिविंग विल नहीं है. इसके तहत परिवार का सदस्य या दोस्त हाईकोर्ट जा सकता है और हाईकोर्ट मेडिकल बोर्ड बनाएगा जो तय करेगा कि पैसिव यूथेनेशिया की ज़रूरत है या नहीं. कोर्ट ने कहा कि ये गाइडलान तब तक जारी रहेंगी जब तक कानून नहीं आता.

सम्मान सबका अधिकार

न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा है कि इंसानों को भी पूरी गरिमा के साथ मौत को चुनने का अधिकार है. कोर्ट के इस फैसले से अब लाइलाज लोगों या लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर जी रहे लोगों को प्राण त्यागने की इजाज़त होगी. बता दें कि कोर्ट ने ऐसे लोगों को लिविंग विल (इच्छामृत्यु का वसीयत) ड्राफ्ट करने की भी अनुमति दे दी है जो मेडिकल कॉमा में रहने या लाइलाज बीमारी से ग्रसित होने की वजह से मौत को गले लगाना चाहते हैं. देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया है. संविधान पीठ में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस ए के सिकरी, जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण भी शामिल थे.

कोर्ट ने इन पहलुओं पर गौर किया

सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने सवाल उठाया था कि क्या सम्मान से जीने के अधिकार को माना जाता है तो क्यों न सम्मान के साथ मरने को भी माना जाए. सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने कहा था कि राइट टू लाइफ में गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार में शामिल है ये हम ये नहीं कहेंगे. हम ये कहेंगे कि गरिमापूर्ण मृत्यु पीड़ारहित होनी चाहिए. कुछ ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जिसमें गरिमपूर्ण तरीके से मृत्यु हो सके.

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था कि हम ये देखेंगे कि इच्छामृत्यु में यानी इच्छामृत्यु के लिए वसीहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज हो जिसमें दो स्वतंत्र गवाह भी हों. कोर्ट इस मामले में पर्याप्त सेफगार्ड देगा. इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए.

संवैधानिक पीठ ने ये भी सवाल उठाया था कि क्या किसी व्यक्ति को उसके मर्जी के खिलाफ कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम पर जीने को मजूबर कर सकते है. वहीं सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि आजकल मध्यम वर्ग में वृद्ध लोगों को बोझ समझा जाता है ऐसे में इच्छाममृत्यु में कई दिक्कते हैं.

केंद्र सरकार का रुख

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में इच्छामृत्यु यानी लिविंग विल का विरोध किया था. केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर कहा कि इच्छा मृत्यु पर अभी सरकार सारे पहलुओं पर गौर कर रही है और इस मामले में सुझाव भी मांगे गए हैं. लेकिन सरकार ने पैसिव यूथेनेशिया को मंज़ूर करते हुए कहा कि इसके लिए कुछ सुरक्षा मानकों के साथ ड्राफ्ट बिल तैयार है. केंद्र सरकार ने कहा अरूणा शॉनबाग के केस में सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के आधार पर पैसिव यूथेनेशिया को मंज़ूर करते हैं जो कि देश का कानून है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत जिला और राज्य स्तर पर मेडिकल बोर्ड ऐसे मामलों में पैसिव यूथेनेशिया पर फैसला लेंगे. लेकिन केंद्र ने कहा इच्छा मृत्यु जिसमें मरीज कहे कि वो अब मेडिकल स्पोर्ट नहीं चाहता, उसे मंज़ूर नहीं किया जा सकता.

याचिकाकर्ता की दलीलें

कॉमन कॉज नामक एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जैसे नागरिकों को जीने का अधिकार है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है. मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण की तरफ से कहा गया कि अगर ऐसी स्थिति आ गई कि व्यक्ति बिना सपोर्ट सिस्टम के नही रह सकता तो ऐसे में डॉक्टर की एक टीम का गठन किया जाना चाहिए जो ये तय करे कि क्या बिना कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम वो बच सकता है या नहीं. क्योंकि ये मेरा अधिकार है कि मैं कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम लेना चाहता हूँ या नहीं. प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पैसिव इथोनेशिया की इजाज़त तो दे सकते हैं लेकिन लिविंग विल की नहीं. आप किसी को उसकी इच्छा के बिना जीने के लिए मजबूर कर रहे है. वहीँ उन्होंने ये दलील भी दी कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ डॉक्टर की संख्या और हॉस्पिटल पहले ही कम है ऐसे में एक ऐसे व्यक्ति के लिए डॉक्टर लगाया जाना कहाँ तक उचित है जो व्यक्ति खुद जीना नहीं चाहता.

Supreme court -

जजों ने इस तरह लिया फैसला

बता दें कि इस मामले में जजों ने चार अलग-अलग राय रखी लेकिन सभी ने एकमत होकर लिविंग विल पर सहमति जताई और कहा कि विशेष परिस्थितियों के तहत इच्छामृत्यु की मांग करने वाले लोगों को लिखित रूप में लिविंग विल देना ही होगा. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उस याचिका पर आया है जिसमें लाइलाज बीमारी से जूझ रहे ऐसे शख्स जिसके स्वास्थ्य में सुधार होने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है, के लिए इच्छामृत्यु की इजाजत देने की मांग की गई थी. कोर्ट ने पिछले साल 11 अक्टूबर को इस मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया था.

इस तरह उठा ये मुद्दा

फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया यानी इच्छामृत्यु की एक याचिका को संविधान पीठ में भेज दिया था जिसमें ऐसे व्यक्ति की बात की गई थी जो बीमार है और मेडिकल ऑपनियन के मुताबिक उसके बचने की संभावना नहीं है. तत्कालीन चीफ जस्टिस पी सदाशिवम की अगवाई वाली बेंच ने ये फैसला NGO कॉमन कॉज की याचिका पर लिया था जिसमें कहा गया था कि एक व्यक्ति मरणांतक बीमारी से पीड़ित हो तो उसे दिए गए मेडिकल स्पोर्ट को हटाकर पीड़ा से मुक्ति दी जानी चाहिए जिसे पैसिव यूथेनेशिया कहा जाता है. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब में कहा था कि इच्छामृत्यु और खुदकुशी दोनों भारत में गैरकानूनी हैं और इसी के साथ दो जजों की बेंच के पी रतिनम बनाम केंद्र सरकार के फैसले को पलट दिया था.

कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है. लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अरूणा रामचंद्र शॉनबाग बनाम केंद्र सरकार मामले में कहा कि कोर्ट की कड़ी निगरानी में आसाधारण परिस्थितियों में पैसिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है.