Sadanand Singh Died: बिहार की राजनीति के भीष्म और नीतीश के परम मित्र सदानंद, जब लालू तक को झुका दिया था अपनी जिद से
हाइलाइट्स
- बिहार की राजनीति के भीष्म और नीतीश के परम मित्र सदानंद सिंह
- जीवन के अंत तक कांग्रेस में ही बने रहे सदानंद सिंह
- जब महागठबंधन में रहकर लालू तक को झुका दिया था अपनी जिद से
- कहलगांव के वोटरों ने नौ बार लुटाया अपने नेता पर प्यार
पटना
महाग्रंथ महाभारत के मुताबिक मां गंगा के पुत्र भीष्म पितामह कौरव और पांडव दोनों खेमे को मिलाकर सबसे बुजुर्ग और अनुभवी योद्धा थे। लेकिन सत्ता, साम्राज्य और अधिकारों के लिए परिवार के लोग कौरव और पांडव के रूप में दो खेमों में बंट गए। परिवार में जब ये सब हो रहा था उस दौरान भी भीष्म पितामह का मन नहीं डोला, वह पांडवों को सही मानते थे लेकिन नैतिकता को बरकरार रखते हुए उन्होंने कौरवों की तरफ से युद्ध किया।
बिहार की राजनीति के भीष्म सदानंद
महाभारत की पूरी कहानी को देखें तो भीष्म पितामह का कैरेक्टर नैतिकता और किसी भी परिस्थिति में अपने कर्मों का पालन सही तरीके से करने वाले नजर आते हैं। इस दौर की राजनीति में सदानंद सिंह का कैरेक्टर भी कुछ हद तक इसी तरह का रहा।
जीवन के अंत तक कांग्रेस में ही बने रहे सदानंद सिंह
अपनी मृत्यु तक सदानंद सिंह बिहार के उन गिने-चुने नेताओं में से एक रहे जिनके राजनीतिक करियर की शुरुआत भी कांग्रेस के साथ हुई और अंत भी इसी पार्टी में हुआ। 1990 के दौर में बिहार में इस पार्टी का पतन शुरू हुआ तब खांटी माने जाते रहे कांग्रेसी भी पाला बदलकर आरजेडी, जेडीयू या बीजेपी में चले गए। लेकिन सदानंद सिंह पार्टी के प्रति अपनी नैतिकता को बनाए रखते हुए उसी में बने रहे। पार्टी ने भी उन्हें इसके इनाम स्वरूप लंबे समय तक राज्य में प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखा।
आरजेडी की हमेशा से मुखालफत करते रहे सदानंद सिंह
खास बात यह है कि सदानंद सिंह बिहार कांग्रेस के उन नेताओं में शामिल थे जो कभी भी आरजेडी को पसंद नहीं करते थे। कई बड़े मौके आए जब सदानंद सिंह आरजेडी के साथ गठबंधन का विरोध करते रहे। साल 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद आरजेडी को सरकार बनाने के लिए थोड़ी बहुत सीटों की दरकार थी, तब सदानंद सिंह, कृष्णा शाही सरीखे नेताओं ने राबड़ी देवी की सरकार बनाने में सहयोग देने से साफ मना कर दिया था, लेकिन केंद्र में मौजूदा कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने फैसले को पलट दिया। इस तरह राज्य में ना चाहते हुए भी आरजेडी और कांग्रेस की साझा सरकार बनी। हालांकि बाद में इसी सरकार के कार्यकाल में सदानंद सिंह विधानसभा अध्यक्ष बने।
बिहार में कांग्रेस के अकेले लड़ने की बात करते रहे सदानंद सिंह
2005 के विधानसभा चुनाव में राज्य में आरजेडी की सत्ता उखड़ने के बाद भी सदानंद सिंह हमेशा से कांग्रेस को अकेले राज्य के चुनाव में उतरने की सलाह देते रहे। 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व एक बार फिर से आरजेडी का साथ देना चाहती थी, लेकिन लालू प्रसाद यादव ने ही इस पार्टी को तवज्जो नहीं दिया। हालांकि उस दौरान सदानंद सिंह इस बात से खुश थे कि कांग्रेस राज्य में अकेले लड़ रही है।
जब सदानंद सिंह की जिद्द के आगे लालू भी झुक गए थे
2020 के विधानसभा चुनाव से पहले भी सदानंद सिंह आरजेडी से गठबंधन तोड़कर अकेले दमखम से मैदान में उतरने की बात करते रहे। जब पार्टी नेतृत्व इस बात से तैयार नहीं हुआ तो सदानंद सिंह ही वह नेता थे जो गठबंधन में लगातार 70 सीटों की डिमांड करते रहे। आखिरकार आरजेडी को झुकना पड़ा और कांग्रेस को इतनी ही सीटें मिलीं।
कहलगांव विधानसभा सीट के लोगों के नेता सदानंद सिंह
आरजेडी को लेकर सदानंद सिंह के अब तक के स्टैंड को देखें तो वह हमेशा से इस पार्टी की मुखालफत करते रहे। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने जब भी गठबंधन बरकरार रखने का फैसला लिया तो सदानंद सिंह ने पार्टी के प्रति नैतिकता निभाई। गौर करने वाली बात यह है कि सदानंद सिंह ने कभी भी अपना चुनाव क्षेत्र भी नहीं बदला।
1969 से 2015 तक लगातार 12 बार कहलगांव सीट से चुनाव लड़े और नौ बार जीते। विधानसभा अध्यक्ष के अलावा बिहार सरकार में कई विभागों के मंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। 1977 की जनता लहर में भी सिंह ने कहलगांव सीट से जीत दर्ज की थी। 1985 में कांग्रेस ने उनका टिकट काट दिया तो वह कहलगांव से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते।
सदानंद सिंह ने बेटे को दी राजनीतिक विरासत
सदानंद सिंह ने 2020 के चुनाव में अपनी सियासी पारी को विराम दे दिया था। कहलगांव सीट से कांग्रेस ने उनके पुत्र शुभानंद मुकेश को टिकट दिया। लेकिन वो चुनाव हार गए। नीतीश कुमार और सदानंद सिंह की दोस्ती के चर्चे भी हमेशा होते हैं। नीतीश जब-जब भागलपुर दौरे पर गए तो ये तय होता था कि वो सदानंद सिंह के यहां तो रुकेंगे ही रुकेंगे।
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हाइलाइट्स
- बिहार की राजनीति के भीष्म और नीतीश के परम मित्र सदानंद सिंह
- जीवन के अंत तक कांग्रेस में ही बने रहे सदानंद सिंह
- जब महागठबंधन में रहकर लालू तक को झुका दिया था अपनी जिद से
- कहलगांव के वोटरों ने नौ बार लुटाया अपने नेता पर प्यार
महाग्रंथ महाभारत के मुताबिक मां गंगा के पुत्र भीष्म पितामह कौरव और पांडव दोनों खेमे को मिलाकर सबसे बुजुर्ग और अनुभवी योद्धा थे। लेकिन सत्ता, साम्राज्य और अधिकारों के लिए परिवार के लोग कौरव और पांडव के रूप में दो खेमों में बंट गए। परिवार में जब ये सब हो रहा था उस दौरान भी भीष्म पितामह का मन नहीं डोला, वह पांडवों को सही मानते थे लेकिन नैतिकता को बरकरार रखते हुए उन्होंने कौरवों की तरफ से युद्ध किया।
बिहार की राजनीति के भीष्म सदानंद
महाभारत की पूरी कहानी को देखें तो भीष्म पितामह का कैरेक्टर नैतिकता और किसी भी परिस्थिति में अपने कर्मों का पालन सही तरीके से करने वाले नजर आते हैं। इस दौर की राजनीति में सदानंद सिंह का कैरेक्टर भी कुछ हद तक इसी तरह का रहा।
जीवन के अंत तक कांग्रेस में ही बने रहे सदानंद सिंह
अपनी मृत्यु तक सदानंद सिंह बिहार के उन गिने-चुने नेताओं में से एक रहे जिनके राजनीतिक करियर की शुरुआत भी कांग्रेस के साथ हुई और अंत भी इसी पार्टी में हुआ। 1990 के दौर में बिहार में इस पार्टी का पतन शुरू हुआ तब खांटी माने जाते रहे कांग्रेसी भी पाला बदलकर आरजेडी, जेडीयू या बीजेपी में चले गए। लेकिन सदानंद सिंह पार्टी के प्रति अपनी नैतिकता को बनाए रखते हुए उसी में बने रहे। पार्टी ने भी उन्हें इसके इनाम स्वरूप लंबे समय तक राज्य में प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखा।
आरजेडी की हमेशा से मुखालफत करते रहे सदानंद सिंह
खास बात यह है कि सदानंद सिंह बिहार कांग्रेस के उन नेताओं में शामिल थे जो कभी भी आरजेडी को पसंद नहीं करते थे। कई बड़े मौके आए जब सदानंद सिंह आरजेडी के साथ गठबंधन का विरोध करते रहे। साल 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद आरजेडी को सरकार बनाने के लिए थोड़ी बहुत सीटों की दरकार थी, तब सदानंद सिंह, कृष्णा शाही सरीखे नेताओं ने राबड़ी देवी की सरकार बनाने में सहयोग देने से साफ मना कर दिया था, लेकिन केंद्र में मौजूदा कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने फैसले को पलट दिया। इस तरह राज्य में ना चाहते हुए भी आरजेडी और कांग्रेस की साझा सरकार बनी। हालांकि बाद में इसी सरकार के कार्यकाल में सदानंद सिंह विधानसभा अध्यक्ष बने।
बिहार में कांग्रेस के अकेले लड़ने की बात करते रहे सदानंद सिंह
2005 के विधानसभा चुनाव में राज्य में आरजेडी की सत्ता उखड़ने के बाद भी सदानंद सिंह हमेशा से कांग्रेस को अकेले राज्य के चुनाव में उतरने की सलाह देते रहे। 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व एक बार फिर से आरजेडी का साथ देना चाहती थी, लेकिन लालू प्रसाद यादव ने ही इस पार्टी को तवज्जो नहीं दिया। हालांकि उस दौरान सदानंद सिंह इस बात से खुश थे कि कांग्रेस राज्य में अकेले लड़ रही है।
जब सदानंद सिंह की जिद्द के आगे लालू भी झुक गए थे
2020 के विधानसभा चुनाव से पहले भी सदानंद सिंह आरजेडी से गठबंधन तोड़कर अकेले दमखम से मैदान में उतरने की बात करते रहे। जब पार्टी नेतृत्व इस बात से तैयार नहीं हुआ तो सदानंद सिंह ही वह नेता थे जो गठबंधन में लगातार 70 सीटों की डिमांड करते रहे। आखिरकार आरजेडी को झुकना पड़ा और कांग्रेस को इतनी ही सीटें मिलीं।
कहलगांव विधानसभा सीट के लोगों के नेता सदानंद सिंह
आरजेडी को लेकर सदानंद सिंह के अब तक के स्टैंड को देखें तो वह हमेशा से इस पार्टी की मुखालफत करते रहे। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने जब भी गठबंधन बरकरार रखने का फैसला लिया तो सदानंद सिंह ने पार्टी के प्रति नैतिकता निभाई। गौर करने वाली बात यह है कि सदानंद सिंह ने कभी भी अपना चुनाव क्षेत्र भी नहीं बदला।
1969 से 2015 तक लगातार 12 बार कहलगांव सीट से चुनाव लड़े और नौ बार जीते। विधानसभा अध्यक्ष के अलावा बिहार सरकार में कई विभागों के मंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। 1977 की जनता लहर में भी सिंह ने कहलगांव सीट से जीत दर्ज की थी। 1985 में कांग्रेस ने उनका टिकट काट दिया तो वह कहलगांव से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते।
सदानंद सिंह ने बेटे को दी राजनीतिक विरासत
सदानंद सिंह ने 2020 के चुनाव में अपनी सियासी पारी को विराम दे दिया था। कहलगांव सीट से कांग्रेस ने उनके पुत्र शुभानंद मुकेश को टिकट दिया। लेकिन वो चुनाव हार गए। नीतीश कुमार और सदानंद सिंह की दोस्ती के चर्चे भी हमेशा होते हैं। नीतीश जब-जब भागलपुर दौरे पर गए तो ये तय होता था कि वो सदानंद सिंह के यहां तो रुकेंगे ही रुकेंगे।