ईमानदारी एक ऐसा गहना है जिसका होना हमारे मनुष्य होने की परिभाषा तय करता है. नीला मधब पांडा के निर्देशन में बनी “आई एम कलाम” एक ऎसी ही फिल्म है जिसके ज़रिये हम अपने अन्दर टटोल कर देख सकते हैं और तय कर पाएंगे कि हमारे पास खुद को इंसान कहने का हक है भी या नही.
आई एम कलाम की कहानी छोटू (हर्ष मयार) की ज़िंदगी और उसकी जीतने की ललक को बयान करती है. छोटू अपने परिवार की मजबूरियों के कारण एक रिश्ते के मामा के ढाबे पर करने लगता है. मिज़ाज से हंसमुख और खुश रहने वाला ये लड़का इन परिस्थितियों में भी पढ़ाई से अपना मोह नही छोड़ पाता. छोटू की खूबी है कि वो कोई भी बात एक बार सुनने या करने पर सीख जाता है. राजस्थान के हाईवे पर बने इस ढाबे में आने-जाने वाले टूरिस्टों से वो कुछ ना कुछ नया सीखता रहता है और कुछ ही दिनों में सबका चहीता बन जाता है.
इसी बीच छोटू की दोस्ती पास ही की हवेली में रहने वाले राजकुमार कुंवर रणविजय (हसन साद) से हो जाती है. अपने रसूख के कारण कुंवर किसी से दोस्ती नही कर पाता और अपनी मजबूरियों के कारण छोटू स्कूल नहीं जा पाता. इस तरह ये दोंनो ही एक दूसरे की ज़रुरत पूरी करते हैं. कुंवर को एक दोस्त मिल जाता है और छोटू को पढ़ने का एक ज़रिया. वो कुंवर की किताबों से पढ़ाई करता है और कुंवर उसके साथ अपने खेलने के शौक़ को.
लेकिन एक दिन छोटू चोरी करने के इलज़ाम में पकड़ा जाता है. ये घटना उसके जीवन की दिशा बदल देती है. छोटू ने आखिर चोरी क्यूँ की? कैसे वो छोटू से कलाम बन गया? क्या चोरी की वजह से वो अपना एक लौता दोस्त भी खो बैठा? इन सारे सवालों के जवाब पाने क लिए आई एम कलाम ज़रूर देखिये.
फिल्म के दुसरे किरदारों की बात की जाए तो छोटू के मामा के रोल में गुलशन ग्रोवर खूब फब रहे हैं. फिल्म की कहानी बहुत ज़्यादा घुमावदार नहीं है मगर तब भी ये आपको क्लाइमेक्स तक बांधे रखने का माद्दा रखती है. संगीत के नाम पर इसमें सिर्फ बैकग्राउंड म्यूजिक है, जो फिल्म की गति को पूरा साथ देता है.
अगर एक लाइन में कहा जाए तो फिल्म आपको बताती है कि परिस्थितियों से लड़ना, परिस्थितियों पर रोंने से कहीं ज़्यादा बेहतर है. सच्चाई की राह मुश्किल होते हुए भी सबसे अच्छी है.