क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सच्चाई के रक्षक भी मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं?

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कल का दिन भारत देश के लिए एक ऐतिहासिक दिन था. भारतीय कानून के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब उच्च न्यायालय के जज ने सीधे तौर जनता को संबोधित किया हो. देश के तीसरे स्तंभ (न्यायपालिका) की पैरवी करने वालों 4 जजों जस्टिस चेलामेश्वर, जस्टिस रंजन गोगाई, जस्टिस मदन भीमराव और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने इस संबोधन के लिए देश के चौथे स्तंभ (मीडिया) का सहारा लिया.

इस प्रेस वार्ता में उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि हमने स्थिति से निपटने की और सिस्टम के प्रति हो रहे भ्रष्टाचार से आगाह करने की बहुत कोशिश की. मगर कुछ भी ठीक नही हो पा रहा था. इस मामले में हमने चीफ जस्टिस को चिट्ठी भी लिखी और उनसे मिलकर भी बात करने की कोशिश की. इन सब कवायदों के बावजूद हम अपने कर्त्तव्य को निभाने में असफल रहे. इसलिए अंततः हमे इस तरह अपना पहलू देश के सामने रखना पड़ा. ये इसलिए भी ज़रूरी था ताकि कल को हमारे जाने के बाद कोई ये ना कहर कि हमने अपनी आत्मा बेंच दी.

गौर करने वाली बात ये है कि इस पूरे घटनाक्रम में उन्होंने किसी भी राजनैतिक पार्टी का नाम नही लिया. उनकी हर बात देश की कानून व्यवस्था और चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया दीपक मिश्रा के काम करने के तरीके से जुड़ी थी.

लेकिन इस प्रेस वार्ता के बाद जो चर्चा हो रही है उसने इन न्यायाधीशों के डर को और पुख्ता कर दिया है कि “लोकतंत्र सचमुच खतरे में है.” कई लोगों की राय है कि जजों को ऐसा नही करना चाहिए था. उन्हें अन्दर की बात अन्दर ही सुलझा लेनी चाहिए थी. देश के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के इस कर्म की वजह से आम जनता का न्यायपालिका में विश्वास घटेगा. कुछ का ये भी कहना है कि इन लोगों ने अपना ज़मीर बेच दिया या किसी बड़े षड्यंत्र के तहत इस घटना को अंजाम दिया गया.

इस तरह की टिपण्णी करने वालों से मेरा सिर्फ एक ही सवाल है. क्या ये देश उन लोगों की सुरक्षा के लिए जवाबदेह नहीं जिन लोगों को इस देश की जनता के हितों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया है. क्या आपको सचमुच लगता है कि इस देश में सिस्टम से बात करना इतना आसान है? वो जज जो इतने ऊंचे ओहदे पर बैठे हैं, क्या उन्हें अपने औहदे का इल्म नही है? क्या वो 4 लोग इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि वो किस संस्थान का हिस्सा हैं और उनका काम क्या है. जवाब है कि उन्हें इल्म था, इसीलिए उन्होंने आजिज़ आकार ये क़दम उठाया.

जो लोग ये कह रहे हैं कि अन्दर की बात अन्दर ही सुलझा लेनी चाहिए थी. तो उन्हें भूलना नही चाहिए कि ये वही देश है जहां जस्टिस लोया जैसे जज की हत्या हो जाती है और 3 साल तक उनकी हत्या एक राज़ बनी रहती है. एक जज का परिवार इस क़दर खौफ में है कि वो आज भी इन्साफ मांगने के लिए सामने नही आ रहा. जज लोया की लाश को एक अनजान सिविलियन आदमी ऑटो रिक्शा में घर तक पहुंचा गया था. उनका अंतिम संस्कार भी घरवालों ने किया. उन्हें किसी प्रकार का सरकारी सम्मान नहीं दिया गया.

गौर करने वाली बात ये भी है कि वो सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस मिओं अमित शाह के केस की सुनवाई कर रहे थे. जज लोया के पिता ने खुद बताया कि ह्त्या से कुछ दिन पहले उन्हें रिश्वत की पेशकश भी ड़ोई गयी थी.

इससे पहले जस्टिस सी एस करणन ने भी अपने सहयोगियों पर बुरे बर्ताव का आरोप लगाया था. उनका कहना था कि उनके साथी उनपर जातिवादक टिप्पणी करते हैं. उन्होंने एक घटना का ज़िक्र भी किया था जिसमे जस्टिस करणन के सहयोगी ने उन्हें जूते से छुआ था.

क्या आपको नही लगता कि जब इन जजों के साथ इस हद तक बुरा हो सकता है तो प्रेस वार्ता करने वाले 4 जजों के साथ भी बुरे से बुरा व्यवहार हो सकता है. अगर आपको उनकी नियत में या तरीके में खोट लग रहा है तो ये सबूत है कि आप सोचने-समझने की शक्ति खो चुके हैं. आप देख नही पा रहे उन सबूतों को जो अपनी जान पर खेल कर गवाह बन चुके हैं कि सिस्टम खोखला होता जा रहा है. इसे बचाने की सख्त ज़रुरत है.

घर की बात घर में रखने के नाम पर व्यवस्था से जुड़े जाने कितने लोगो का शोषण हो रहा होगा. मुट्ठी भर लोगों के सामने आने से अगर ये हाल है तो सोचिये अगर सभी माननीय सचमुच सच बोलने की क़सम खा लें तो इस व्यवस्था की क्या हालत हो!