मायावती ने सीएम बनने का ऑफर क्यों ठुकराया? क्या राहुल गांधी ने जो कारण गिनाए वही सही हैं?

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मायावती ने सीएम बनने का ऑफर क्यों ठुकराया? क्या राहुल गांधी ने जो कारण गिनाए वही सही हैं?

नई दिल्ली : कांग्रेस नेता राहुल गांधी का मायावती के साथ गठबंधन करने और सीएम बनने का ऑफर देने को लेकर दिया बयान सियासी हलके में काफी चर्चा में है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि आखिर क्यों बसपा प्रमुख ने राहुल गांधी के इस ऑफर को ठुकरा दिया। राहुल ने शनिवार को कहा था कि उनकी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती को उत्तर प्रदेश में गठबंधन करने और मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने बात तक नहीं की। इतना ही नहीं राहुल गांधी ने दावा किया था कि सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और ‘पेगासस’ के जरिये बनाये जा रहे दबाव के चलते मायावती ने दलितों की आवाज के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। साथ ही उन्होंने भाजपा को खुला रास्ता दे दिया। राहुल के सीबीईआई, ईडी के डर आरोपों को लेकर मायावती ने सीधे-सीधे कुछ भी नहीं कहा लेकिन गठबंधन के ऑफर पर उन्होंने राहुल गांधी को अपना घर संभालने की नसीहत जरूर दे दी। मायावती ने कहा कि राहुल ने यह बयान उनकी पार्टी की छवि को खराब करने के लिए दिया है। इन सब के बावजूद यह सवाल उठता है कि क्या वास्तव में यूपी में मायावती अगर कांग्रेस से हाथ मिलाती तो उन्हें फायदा होता या नहीं।

कांग्रेस से हाथ मिलाने पर बसपा को फायदा होता?
यूपी में इस बार हुए विधानसभा चुनाव में बसपा को 12.88% वोट मिले। वहीं कांग्रेस को महज 2.33% वोट मिले। ऐसे में दोनों दलों के वोट शेयर को मिला भी दे तो यह सिर्फ 15% ही होता है। कांग्रेस को इस बार महज दो सीटों पर ही जीत हासिल हुई। पार्टी की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव में उसके 97 फीसदी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। ऐसे में बसपा को कांग्रेस से हाथ मिलाने का फायदा मिलना तो मुश्किल ही था। खास बात है कि कांग्रेस भले ही राष्ट्रीय पार्टी हो लेकिन यूपी में वोट प्रतिशत के मामले में उसकी हैसियत छोटे राष्ट्रीय लोक दल से भी छोटी है। रालोद को यूपी में इस बार 2.85% वोट मिले जो कांग्रेस से अधिक हैं। 1989 के विधानसभा चुनाव से कांग्रेस की स्थिति खराब होनी शुरू हुई थी। उसी समय से बसपा का यूपी की राजनीति में धीरे-धीरे प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ।

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गठबंधन से अपना कोर वोटर खिसकने का डर
यूपी में इस बार साफ था कि बीजेपी का सीधा मुकाबला समाजवादी पार्टी से है। इस बात से तो मायावती भी इनकार नहीं कर सकती थीं। मायावती ने इस बार कांग्रेस का ऑफर शायद इसलिए भी ठुकरा दिया होगा कि उन्हें कही न कहीं अपना कोर दलित वोटर खिसकने की आशंका हो। इतिहास पर नजर डालें तो कांग्रेस की राजनीति मुख्य रूप से दलित, मुस्लिम और ब्रह्मणों के इर्दगिर्द घूमती रही है। ये तीनों ही कांग्रेस का वोट बैंक रहे हैं। कांशी राम, रामविलास पासवान जैसे नेताओं और क्षेत्रीय दलों के उभरने के बाद से कांग्रेस का दलित वोट बैंक खिसकना शुरू हो गया। कांग्रेस के दलित वोट बैंक में सेंध लगा कर ही यूपी में बसपा और समाजवादी पार्टी कांग्रेस के लिए चुनौती बने। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि बीएसपी कांग्रेस से हाथ मिला भी लेती तो उसको कोई फायदा तो नहीं मिलता बल्कि उनका अपना वोट बैंक कांग्रेस के साथ जरूर शिफ्ट हो जाता है। वैसे भी कांशी राम से पहले बाबू जगजीवन राम जैसे राष्ट्रीय चेहरे के बूते कांग्रेस को दलितों का समर्थन मिलता था। ऐसे में मायावती को अपने कोर वोटर के खिसकने का भी अंदेशा जरूर रहा होगा।

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बबुआ को सत्ता नहीं तो बसपा को कैसे मिल जाती
मायावती के सामने उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में कांग्रेस के समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन का नतीजा भी सामने था। यूपी में कांग्रेस खुद मरी हुई हालत में है। 2017 में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था। गठबंधन से समाजवादी पार्टी को फायदा होने के बजाय नुकसान ही उठाना पड़ा। 2012 के 29.12 फीसदी के मुकाबले समाजवादी पार्टी के वोट शेयर में 2017 में घटकर 22.4 फीसदी ही रह गया। सीटों के रूप में पार्टी 224 से घटकर 47 पर आ गई थी। इसमें कांग्रेस का खुद का वोट शेयर 2012 के 11.6% से घटकर 2017 में 6.3% रह गया। कांग्रेस की सीटें 28 से घटकर 7 रह गईं। इसके अलावा बिहार के नतीजे भी मायावती के सामने थे। बिहार चुनाव में कांग्रेस की वजह से ही राष्ट्रीय जनता दल सत्ता के करीब आकर सरकार बनाने से चूक गया था। बिहार में राजद ने कांग्रेस को 70 सीटें दी थीं। कांग्रेस 70 में से महज 19 सीटें ही जीत सकी थी। राजद खुद इस बात को कह चुका है कि यदि कांग्रेस को 70 सीटें नहीं दी होती तो बिहार में शायद तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री होते।

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तब बसपा को मिला था कांग्रेस से गठबंधन का फायदा
ऐसा नहीं है कि मायावती ने पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं किया है। साल 1996 के चुनाव से पहले मायावती ने पहली बार कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया था। इस चुनाव में बीएसपी का वोट शेयर 1991 के 10.26% से बढ़कर 1996 में 27.73% पहुंच गया। बसपा की सीट 12 से बढ़कर 67 सीटों पर पहुंच गई थी। हालांकि, इस चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। इसके बाद यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था। बाद में बसपा ने कांग्रेस से गठबंधन तोड़ 1997 में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी।

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1977 के कांग्रेस वाली स्थिति में पहुंच गई बसपा?
इस बार बीएसपी को विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट मिली है। वहीं, साल 2017 के विधानसभा चुनाव में में बसपा ने 19 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस तरह से उसे इस बार सीधे-सीधे 18 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा है। हालत यह रही कि पार्टी के कई दिग्गज उम्मीदवार भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। बसपा को साल 2012 में 25.9 फीसदी वोट मिले थे। पार्टी उस समय 80 सीट जीतने में सफल रही थी। वहीं, 2017 में पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 22.4% ही रह गया। साथ ही पार्टी को 61 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा। पार्टी को मजह 19 सीट पर ही जीत मिली। विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद मायावती ने कहा था कि इस बार जो भी परिणाम आए हैं उसने बसपा को 1977 में कांग्रेस पार्टी की स्थिति की में लाकर खड़ा कर दिया है।



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