बिहार जातीय जनगणना: नीतीश कुमार की बाजीगरी और लालू यादव से दांव पेच से कैसे पार पाएगी बीजेपी

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बिहार जातीय जनगणना: नीतीश कुमार की बाजीगरी और लालू यादव से दांव पेच से कैसे पार पाएगी बीजेपी

बिहार जातीय जनगणना: नीतीश कुमार की बाजीगरी और लालू यादव से दांव पेच से कैसे पार पाएगी बीजेपी

पटना: जातीय जनगणना को लेकर शब्दों की बाजीगरी में भले राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव भले एक नहीं दिख रहे हों, लेकिन इनका उद्देश्य क्लियर है। अब चूंकि राजद का आधार वोट मूल रूप से पिछड़ा अतिपिछड़ा के साथ मुस्लिम है तो उनकी धारणा जातीय जनगणना के प्रति स्पष्ट है। यह दीगर कि फिलहाल साथ-साथ राजनीतिक कदम बढ़ा रहे नीतीश कुमार की बेबसी है कि भाजपा के साथ रहते रहते अगड़ा और पिछड़ा को साथ लेकर राजनीति करने का तजुर्बा भी है। इसलिए न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, वाली स्थितियों के साथ खड़े हैं।

राजद सुप्रीमो की राजनीति का अंदाज पुराना

जाहिर है राज्यसभा सांसद मनोज झा, प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह और पूर्व मंत्री श्याम रजक बोल भले रहे हैं पर इनकी जुबान पर राजद सुप्रीमो लालू सवार हैं। और मंडल कमीशन के तार को सबसे ज्यादा झिझोड़ने वाली राजद अगर यह बात कहती है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट आई थी तो इसका आधार 1931 की जातिगत जनगणना को बनाया गया। अब जातीय स्थिति कुछ और है तो वह अपने उद्देश्य में सफल है।

इनका मानना है कि इसमें 27 फीसदी को आरक्षण दिया गया। क्योंकि, 50 प्रतिशत को क्रॉस नहीं करना था। जब EWS (आर्थिक आधार पर आरक्षण) पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आई तो यह लक्ष्मण रेखा काफूर हो गई। यानी, 50 प्रतिशत का बंधन खत्म हो चुका है। एक बहुत बड़ी आबादी को अब अपनी संख्या के अनुरूप फैसले चाहिए। आरक्षण की व्यवस्था चाहिए। इसके लिए एक वैज्ञानिक समकालीन आंकड़ा चाहिए। इसलिए, महागठबंधन की सरकार ने जातियों की आबादी जानने के लिए सर्वे कराया है। राजद नेतृत्व अगर प्रायोजित तरीके से जातीय जनगणना का उद्देश्य आरक्षण बता रही है तो यह जान लीजिए कि राजद ने आगामी चुनावों को लेकर अपनी मंशा जाहिर कर दी है।

पर नीतीश कुमार की राजनीति के अलग पैंतरें

राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीति पर एनडीए का प्रभाव है। जब भाजपा और जदयू साथ साथ आए तो समझ यही बनी थी कि अगड़ी जाति के साथ पिछड़ी जाति का एक धड़ा विशेष कर कुर्मी, कुशवाहा, धानुक, ढांढ जाति को लेकर राजनीत कर लालू प्रसाद के विकल्प बन सकते हैं। और नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजद का शासन डोला और बिहार में एनडीए की सरकार बनी। दूसरी तरफ नीतीश कुमार की राजनीतिक मजबूरी थी कि वह खुलकर जातीय जनगणना को आरक्षण से जोड़ कर अपनी नीति उजागर करें। इसके तात्कालिक दो खतरे थे।

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सबसे पहला कारण कि जातीय जनगणना को आरक्षण पर केंद्रित करते हैं तो अगड़ी जाति के वोटर्स नाराज होते। साथ ही न्यायालय में जातीय जनगणना को लेकर आरक्षण का पक्ष रखते तो शायद न्यायालय से जातीय जनगणना पर रोक लग जाती इसलिए राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे कार्य योजना से जोड़ कर आम आवाम की जरूरत पर फोकस किया। और सफलता भी मिली।

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क्या कहती हैं भाजपा?

भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता प्रेम रंजन पटेल कहते हैं कि दरअसल, लालू प्रसाद यादव अपने लुभावने बोल से पिछड़ी जाति का वोट बैंक पर अधिपत्य जमाते रहे हैं। पर कभी लाभ देने की कोशिश नहीं की। ऐसा कभी नहीं हुआ कि आर्थिक सामाजिक स्थितियों को वह मजबूत करने की कोशिश हुई हो। बतौर उदाहरण लालू प्रसाद यादव ने कभी भी पंचायत या नगर निकाय के चुनाव में आरक्षण दिया हो। यह श्रेय एनडीए की सरकार को जाता है कि 2005, 2006 में हुए पंचायत और नगर निकाय के चुनाव में आरक्षण देकर अतिपिछड़ी जाति को बढ़ावा देने का काम किया। लालू प्रसाद सिर्फ इसलिए अति पिछड़ा को आरक्षण देना नहीं चाहते थे कि अति पिछड़ा जाति से नेतृत्व न पैदा ले सके और वह तेजस्वी यादव को ही चुनौती दे डाले।
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रही नीतीश कुमार की बात तो इतना तो साफ है कि वो राजद के साथ राजनीति तो कर रहे हैं, पर इन पर एनडीए का प्रभाव कायम है। आज इन्हें सुशासन बाबू, विकास पुरुष कहा जाता है तो वह भी भाजपा के साथ काम करने के कारण हुआ। एक समय था जब अटल बिहारी बाजपेई ने नया बिहार, नीतीश कुमार का नारा देकर नीतीश कुमार की राजनीत में अपना दम खम भरा। फिर इसके बाद नीतीश कुमार विकास पुरुष सुशासन बाबू कहलाए। आज राजद में जाते राज्य में क्राइम बढ़ गया। विकास थम गया। नीतीश कुमार अविश्वसनीय होते जा रहे हैं।

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