प्रिय केजरीवाल जी, कश्मीर फाइल्स को झूठी फिल्म तो मत कहिए

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प्रिय केजरीवाल जी, कश्मीर फाइल्स को झूठी फिल्म तो मत कहिए

नीरज बधवार

जब से कश्मीर फाइल्स रिलीज़ हुई है इसकी कमाई को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं।एक वर्ग का कहना है कि विवेक अग्निहोत्री ने कश्मीरी पंडितों की त्रासदी पर फिल्म बनाकर कमाई की है इसलिए उन्हें इसकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा कश्मीरी पंडितों को देना चाहिए। दूसरा वर्ग इस बात पर नाराज़ है कि कुछ लोगों द्वारा मुफ्त फिल्म दिखाने पर विवेक अग्निहोत्री क्यों नाराज़ हैं? अगर उन्होंने सच में लोगों को जागरूक करने के लिए एक भली फिल्म बनाई है, तो वो मुफ्त में फिल्म दिखाने का विरोध क्यों कर रहे हैं? इससे तो विवेक अग्निहोत्री का लालच नज़र आता है। और तीसरे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जी। इनका कहना है कि विवेक अग्निहोत्री फिल्म को टैक्स फ्री करने की मांग क्यों कर रहे हैं। अगर वो सच में लोगों के पैसे बचाना चाहते हैं तो फिल्म को यूट्यूब पर डाल दें हर कोई उसे फ्री में देख लेगा।

शुरुआत केजरीवाल जी के बयान से ही कर लेते हैं। केजरीवाल जी को मैं बहुत सारे नेताओं से इस मामले में ज़्यादा परिपक्व मानता हूं कि वो किसी भी मामले पर जनता की नब्ज़ जाने बिना बयान नहीं देते। अक्सर वो पब्लिक मूड को भांपते लेते हैं और उसके खिलाफ नहीं बोलते। चाहे वो अयोध्या का मामला हो, दीपिका पादुकोण मामले में जेएनयू न जाने का फैसला हो या कन्हैया पर देशद्रोह के केस को हरी झंडी देने का मामला। राष्ट्रवाद से जुड़े हर मामले में वो बीजेपी जैसा ही स्टैंड लेते दिखना चाहते हैं। मगर यहां वो भी चूक कर गए।

kashmir files kejriwal -

क्या केजरीवाल जी नहीं जानते कि इस वक्त फिल्म को लेकर जनता का क्या Mood है। विवेक अग्निहोत्री की राजनीतिक आस्था सबको पता है लेकिन ये भी सच है कि कश्मीर फाइल्स बनाने की वजह से वो लोगों में काफी लोकप्रिय हैं। ऐसे में फिल्म के बहाने विवेक अग्निहोत्री का मज़ाक बनाने की नासमझी वो क्यों कर रहे हैं। हर वक्त खर्चों का हिसाब-किताब गिनाते समय वो ये बताना नहीं भूलते कि मैं बनिया हूं। तो क्या इस बनिए को इतनी समझ नहीं है कि बाकी धंधों की तरह फिल्म बनाना भी एक धंधा है? उसमें पैसा लगता है। उस पैसे की भरपाई फिल्म की थिएटर रिलीज़ से लेकर, Overseas Rights, Sea Rights, सैटेलाइट राइट्स, ओटीटी और बाकी राइट्स बेचकर की जाती है।

अब यूट्यूब में फिल्म फ्री में दिखाने की बात करने के पीछे तर्क ये है कि फिल्म एक नेक संदेश देती है इसलिए इसे फ्री में लोगों को दिखा देना चाहिए। इस लिहाज़ से तो हर दूसरी फिल्म में चाहे-अनचाहे कोई न कोई संदेश छिपा होता है। इस हिसाब से थ्री इडियट्स को यूट्यूब पर रिलीज कर देना चाहिए। गांधीगिरी का संदेश देने वाली लगे रहो मुन्नाभाई को थिएटर की बजाए सीधे टीवी पर चला देना चाहिए था। उरी को तो रामलीला मैदान में बड़ी स्क्रीन लगाकर दिखाना चाहिए था। बीआर चोपड़ा को दूरदर्शन पर महाभारत और रामायण दिखाने के पैसे नहीं लेने चाहिए थे। और इसी तर्क से खुद केजरीवाल और उनके सभी विधायकों को बिना तनख्वाह के काम करना चाहिए क्योंकि वो भी जनता की सेवा के नेक काम में लगे हैं। जबकि हकीकत ये है कि केजरीवाल ने मुख्यमंत्री बनते ही अपने विधायकों की सैलरी 400 फीसदी बढ़ा दी थी (जिसमें मैं कोई गलती नहीं देखता)।

इसके अलावा उन्होंने फिल्म का प्रचार करने पर बीजेपी नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए वो ये बोल गए कि एक ‘झूठी फिल्म’ का प्रचार करना बंद करो। फिल्म के प्रचार के लिए बीजेपी नेताओं को आड़े हाथों लेना समझ आता है। अगर फिल्म का प्रचार कर बीजेपी नेता अपनी राजनीति साध रहे हैं तो आप भी इस प्रचार के लिए उनकी आलोचना कर अपनी राजनीति साधिए कोई हर्ज़ नहीं, लेकिन ये कहना कि ये एक ‘झूठी फिल्म’ है निहायत ही संवेदनहीन बयान है। फिल्म से जुड़े आध ऐतिहासिक तथ्य पर बहस हो सकती है लेकिन सिर्फ उस एक-दो तथ्यों की आड़ में पूरी फिल्म को झूठा कह देना बहुत बचकाना है। अगर केजरीवाल जी वाकई फिल्म के झूठे होने को लेकर इतने ही आश्वस्त हैं तो उन्हें आगे आकर ये बात कश्मीरी पंडितों के बीच जाकर कहनी चाहिए।

दूसरा जो लोग बार-बार ये बोल रहे है कि फिल्म के डायरेक्टर को फिल्म की कमाई कश्मीरी पंडितों को दान दे देनी चाहिए तो इसके भी क्या मायने हैं। अगर निर्माता-निर्देशक ने कश्मीरी पंडितों से उनका दर्द दिखाने के एवज में कश्मीरी पंडितों से ही पैसे इकट्ठे करके फिल्म बनाई होती, तब तो इस बात का कोई सेंस था। निर्माता ने अपने पैसों से फिल्म बनाई। फिल्म की वजह से ये मुद्दा इतने बड़े पैमाने पर लोगों को तक पहुंचा। अगर आपको मुद्दे से हमदर्दी है तो आप इसे उठाने के लिए डायरेक्टर का धन्यवाद दीजिए और आगे बढ़िए। इस बात के क्या मायने है कि तुमने इस कश्मीरी पंडितों पर फिल्म बनाई थी इसलिए इसकी कमाई में उनको भी हिस्सेदारी दो। पैसा देना या नहीं देना ये निर्माता निर्देशक का निजी फैसला है। लेकिन ये सवाल उठाकर डायरेक्टर से जबरन ‘हां’ करवाना और फिर उसके कुछ न कहने पर ये साबित करना कि देखो हमने तो इसको एक्सपोज़ कर दिया, ये कुछ और नहीं बल्कि फिल्म को बदनाम करने की तीन हज़ार चार सौ तिहतर कोशिशों में से ही एक है।

मुझे हैरानी है कि एक त्रासदी को स्वीकार करने, पीड़ितों के साथ हमदर्दी जताने, अपने गुनाहों का पश्चाताप करने के बजाए एक पूरा वर्ग त्रासदी को नकारने और फिल्म के साथ विवाद बुनने में क्यों लगा है। क्या इन्हे ये डर है कि अगर हमने इस सच को बदनाम करने में कोई कसर छोड़ दी तो फिर न जाने ऐसे कितने ही और सच आएंगे जो इन्हें नंगा करके रख देंगे इसलिए जितना ज़ोर लगाना है अभी लगा लो। इससे भी बड़ी हैरानी ये है कि जब ये लोग सिर्फ 32 साल पुराना इतिहास स्वीकार करने को तैयार नहीं तो इन लोगों ने जब पांच सौ साल पुरान इतिहास लिखा होगा, हज़ार साल पुराना इतिहास बताया होगा, तो कितना सच कहा होगा ये आसानी से समझा जा सकता है।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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