नेता प्रतिपक्ष के चुनाव में विधायकों ने पार्टी विद अ डिफरेंस की खोल दी थी पोल

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नेता प्रतिपक्ष के चुनाव में विधायकों ने पार्टी विद अ डिफरेंस की खोल दी थी पोल

नेता प्रतिपक्ष के चुनाव में विधायकों ने पार्टी विद अ डिफरेंस की खोल दी थी पोल

भोपालः साल 1998 का मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव। माहौल काफी हद तक ऐसा ही था जैसा अभी है। उस समय सत्तारूढ रही कांग्रेस पार्टी सत्ता में वापसी के दावे कर रही थी। दूसरी ओर, विपक्षी बीजेपी के नेता भी सत्ता मिलने को लेकर आश्वस्त थे। जब चुनाव के नतीजे आए तो दिग्विजय सिंह का इलेक्शन मैनेजमेंट बीजेपी के प्रचार अभियान पर भारी साबित हुआ। तमाम पूर्वानुमानों को गलत साबित करते हुए कांग्रेस ने न केवल सत्ता बरकरार रखी, बल्कि बीजेपी के अधिकांश बड़े नेता भी चुनाव हार गए थे। चुनाव के बाद जब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष चुनने की बारी आई तो पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करने वाली बीजेपी की असलियत सामने आ गई। गुटों में बंटे पार्टी नेताओं ने आलाकमान का फैसला तक मानने से इनकार कर दिया था। नरेंद्र मोदी के सियासी दांव-पेच के सहारे आलाकमान की पसंद ही अंततः नेता प्रतिपक्ष बना, लेकिन दिग्विजय सिंह ने ऐसी चाल चली कि तीन साल बाद उन्हें ये पद छोड़ना पड़ा।

दरअसल, 1998 के चुनाव में बीजेपी की हार के लिए पार्टी के अधिकांश नेता कुशाभाऊ ठाकरे और सुंदरलाल पटवा को दोषी मान रहे थे। पार्टी नेता मीडिया में खुलेआम एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर रहे थे। ऐसे में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का चुनाव बीजेपी नेतृत्व के लिए बड़ी समस्या बन गई। गुटों में बंटे नेता किसी एक नाम पर सहमत होंगे, इसकी संभावना कम थी। इस पर विचार-विमर्श के लिए 16 दिसंबर को पार्टी की बैठक बुलाई गई।

पार्यी नेतृत्व किसी नए चेहरे को इस पद पर बिठाना चाहता था, लेकिन पुराने नेता अपनी दावेदारी छोड़ने को राजी नहीं थे। बुजुर्ग नेता कैलाश जोशी और विक्रम वर्मा चुनाव हार चुके थे। वर्मा चुनाव से पहले तक खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बता रहे थे, लेकिन हार के बाद रेस से बाहर हो गए थे। बैठक का ऐलान होते ही सबसे पहले सुंदरलाल पटवा ने नेता प्रतिपक्ष पद पर अपना दावा जताया। बाबूलाल गौर और हिम्मत कोठारी के साथ गौरीशंकर शेजवार भी इस दौड़ में शामिल हो गए। विवाद बढ़ता देख पार्टी नेतृत्व ने नरेंद्र मोदी को भोपाल भेजा। चुनाव के दौरान जब मोदी भोपाल आए थे, तो पार्टी के पुराने नेताओं ने उन्हें तवज्जो नहीं दी थी। वे इससे खार खाए हुए थे। उन्होंने तय कर लिया था कि स्थापित चेहरों की बजाय किसी नए नेता को ही इस पद पर बिठाया जाए।

बीजेपी नेतृत्व भी इस पद पर किसी नए चेहरे को देखना चाहता था। इसका एक बड़ा कारण यह था कि बीजेपी एमपी में नया नेतृत्व विकसित करना चाहती थी। विधायकों के बीच बढ़ते गतिरोध को देखते हुए पार्टी के संसदीय बोर्ड ने गौरीशंकर शेजवार के नाम पर मुहर लगाई। शेजवार नए तो नहीं थे, लेकिन पार्टी में बड़े पद पर कभी नहीं रहे थे। वे 1977 में पहली बार विधायक बने थे। उनके नाम पर मुहर लगने का एक बड़ा कारण यह भी था कि वे दलित समुदाय से थे। दिग्विजय सिंह के दलित एजेंडा से मुकाबला करने में शेजवार अहम भूमिका निभा सकते थे। संसदीय बोर्ड ने तो उनके नाम को मंजूरी दे दी, लेकिन असली खेल तो भोपाल में होना बाकी था।

संसदीय बोर्ड के फैसले की खबर भोपाल पहुंची तो स्थानीय नेताओं ने इसे मानने से इनकार कर दिया। पार्टी संविधान का हवाला देते हुए उन्होंने चुनाव कराने की मांग की। बीजेपी नेतृत्व को विधायकों के सामने झुकना पड़ा। नेता प्रतिपक्ष पद के लिए चुनाव हुआ। इसमें शेजवार को बाबूलाल गौर से ज्यादा वोट मिले। हुआ वही, जो आलाकमान चाहता था और इसमें सबसे बड़ी भूमिका नरेंद्र मोदी की रही।

शेजवार का चुनाव पार्टी में उनके विरोधियों के लिए तो बड़ा झटका था ही, मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के लिए भी मुश्किलों का सबब था। सुंदरलाल पटवा और बाबूलाल गौर से दिग्विजय के दोस्ताना रिश्ते थे। वे इसे छिपाते भी नहीं थे। दूसरी ओर, शेजवार हर विधानसभा सत्र में दिग्विजय सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल देते। 1999 से 2002 तक वे नेता प्रतिपक्ष रहे और दिग्विजय की नाक में दम किए रहे। राजनीति के चतुर खिलाड़ी दिग्विजय ने उनसे छुटकारा पाने के लिए अलग चाल चली। साल 2002 में भोपाल के शराब व्यवसायी जगदीश अरोरा की सोम डिस्टिलरी पर इनकम टैक्स विभाग ने छापा मारा। छापेमारी के दौरान एक डायरी मिली जिसमें नेताओं के साथ पैसों के लेन-देन का हिसाब था। इस कथित डायरी में दिग्विजय और शेजवार दोनों के नाम थे।

शेजवार के लिए यह डायरी मुसीबत बन गई क्योंकि सांची विधानसभा क्षेत्र से विधायक थे। सांची में ही सोम डिस्टिलरी की फैक्ट्री थी। इस मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि शेजवार को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। शेजवार के खिलाफ माहौल बनाने में दिग्विजय ने परदे के पीछे से अहम भूमिका निभाई। शेजवार के इस्तीफे से दिग्विजय को दोहरा फायदा हुआ। उन्हें विधानसभा में शेजवार के हमलों से निजात मिल गई। दूसरा, बीजेपी शेजवार को दिग्विजय के दलित एजेंडे की काट के रूप में पेश करती थी। इस्तीफे से यह पत्ता भी पार्टी के हाथ से निकल गया।

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