‘अफगानिस्तान छोड़ेंगे पर काबुल एयरपोर्ट नहीं’, अमेरिका और NATO के इस ऐलान का मकसद क्या है?
अमेरिका और उसके नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो के लिए अफगानिस्तान अब भी सिरदर्द बना हुआ है। अमेरिका ने 11 सितंबर से पहले अपने सैनिको की अफगानिस्तान से पूर्ण वापसी का ऐलान किया हुआ है। इस इलाके के रणनीतिक महत्व को देखते हुए बाइडन प्रशासन बरसों की मेहनत से बने अपने साम्राज्य को एकाएक छोड़ने को तैयार नहीं है। एक दिन पहले ब्रसेल्स में नाटो की बैठक में भी अफगानिस्तान का मुद्दा जोरशोर से उठा। जिसके बाद नाटो ने ऐलान किया है कि वह काबुल हवाई अड्डे का संचालन अपने पास ही रखेगा।
अफगानिस्तान में उपस्थिति बनाए रखना चाहता है नाटो
इस हवाई अड्डे के जरिए नाटो अफगानिस्तान के हवाई क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत रखना चाहता है। इसके लिए नाटो सहयोगी तुर्की आगे भी आया है। कल हुई नाटो की बैठक में तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोगन ने कहा है कि वह नाटो सेना की अफगानिस्तान से वापसी के बाद पाकिस्तान के सहयोग से काबुल एयरपोर्ट का संचालन करने के लिए तैयार है। एर्दोगन ने इसके लिए अमेरिका से सैन्य, राजनयिक और आर्थिक सहयोग की मांग की है।
इस एयरपोर्ट पर कब्जा क्यों चाहते हैं अमेरिका और नाटो
काबुल एयरपोर्ट के जरिए मध्य एशिया के हवाई क्षेत्र पर नजर रखी जा सकती है। अमेरिका इस एयरपोर्ट के जरिए ईरान, रूस और चीन तक हवाई घुसपैठ कर सकता है। इसके लिए अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने पाकिस्तान से बलूचिस्तान क्षेत्र में एक एयरबेस की मांग की थी। बदले में अमेरिका पाकिस्तान को आर्थिक सहायता बहाल करने को तैयार था। लेकिन, इमरान खान ने अमेरिका के इस प्रस्ताव को नकार दिया। जिसके बाद अमेरिका अब काबुल एयरपोर्ट को किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहता है।
रूस-चीन की बढ़ती महत्वकांक्षा से भी अमेरिका परेशान
अमेरिका को लगता है कि उसके अफगानिस्तान से जाते ही इस देश पर रूस और चीन कब्जा कर लेंगे। इसे वैश्विक कूटनीति में अमेरिका की बड़ी हार मानी जाएगी। दरअसल, अफगानिस्तान में अपने इस नेटवर्क को खड़ा करने में अमेरिका को न केवल अपने तीन हजार से ज्याद सैनिकों को कुर्बान करना पड़ा है, बल्कि आर्थिक रूप से भी उसे काफी चपत लगी है। ऐसे में अगर कोई दूसरा देश यहां जम जाता है तो अमेरिका के मेहनत पर पानी फिर जाएगा।
तुर्की क्यों चाहता है इस एयरपोर्ट का संचालन करना?
काबुल एयरपोर्ट के संचालन करने के पीछे तुर्की की सोची समझी रणनीति है। रूस से एस-400 डिफेंस सिस्टम लेने के बाद से अमेरिका के साथ तुर्की का तनाव चरम पर है। अमेरिका ने तुर्की के रक्षा उद्योगों पर कई प्रतिबंध भी लगाए हुए हैं। रूस से नजदीकी के कारण नाटो में तुर्की की पूछ काफी कम हो गई है। इसलिए राष्ट्रपति एर्दोगन अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर इस एयरपोर्ट की जिम्मेदारी संभालने की बात कर रहे हैं।
पाकिस्तान को साथ लेना तुर्की की चाल तो नहीं?
काबुल एयरपोर्ट के संचालन में तुर्की पाकिस्तान और हंगरी की सहायता ले रहा है। हालांकि, सवाल यह उठ रहा है कि जब नाटो देशों को इस एयरपोर्ट को ऑपरेट किए जाने की बात की जा रही है तो तुर्की गैर नाटो पाकिस्तान को इसमें क्यों शामिल कर रहा है। इसके पीछे एर्दोगन का पाकिस्तान प्रेम साफ दिख रहा है। दरअसल वे पाकिस्तान के जरिए तालिबान को साधने की कोशिश में है। साथ में पाकिस्तान को काबुल में भारत के अभियानों पर नजर रखने की ताकत मिल जाएगी। वह मध्य एशिया में भारत के हवाई मिशनों पर भी नजर रख सकता है।
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