बसपा प्रमुख मायावती ने राजयसभा से जिस अंदाज में मायावती ने इस्तीफा दिया है, उसके स्वीकार होने की उम्मीद कम ही है। सियासी जानकारी की अनुसार इस्तीफे में किसी कारण का उल्लेख होना तकनीकी तौर पर उसके अस्वीकार्य का आधार है। इस्तीफा प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिए।
सियासी जानकार मानते है कि मायावती का इस्तीफा बसपा के खोये जनाधार को पाने की छटपटाहट का नतीजा है। लगातार मिल रही सियासु पराजय के बाद वह बसपा को उभारने की कोशिश कर रही है। इसके लिए उन्होंने सहारनपुर की घटना को ढाल बनाया है और इसे जोरशोर से उठती भी रही। यही नहीं वह सहारनपुर भी गई और जातीय हिंसा की राजनीति के जरिये संदेश भी देने की कोषसिंह की गई। बसपा जिस मौजूदा हालत से गुजर रही है, उसमे मायावती के इस्तीफे के जरिये बसपा में जान फूंकने की कोशिश करना उसकी मजबूरी बनती जा रही है।
सियासी जानकार यह भी मानते है कि इस्तीफे के जरिये अन्य दलों के सहारे दोबारा राजयसभा कि सदस्य्ता हासिल करने कि भावनात्मक कोशिशों को भी हवा दी जा सकती है। इसकी कितनी संभावना है यह वक्त बताएगा, लेकिन इस्तीफे के जरिये यह संदेसज देने की कोशिश है कि दलितों के मुद्दे या यूँ कहें उनके हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करने को वह किसी भी हद तक त्याग कर सकती है ।
पिछले रिकॉर्ड की बात करे तो ऐसे पहले भी इस्तीफे नामंजूर किये गए है जैसे रोडरेज की घटना में दोषी पाए जाने के बाद 2006 में तत्कालीन लोकसभा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने इस्तीफा दिया था जिसे तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने नामंजूर कर दिया था।
कांग्रेस सांसद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नवंबर 2016 में एसवाईएल नहर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष को इस्तीफा सौंपा था। इसमें उन्होंने कारण भी बताया था, जिसे उचित नहीं मानते हुए अस्वीकार्य कर दिया गया।