पिछले काफी लंबे समय से इस बात पर बहस चल रही है कि सरकार ने यदि कोई फैसला लिया उसका विरोध करना या सरकार की विचारधार से अलग विचार रखना देशद्रोह कहा जा सकता है. इस बहस का आधार यह है कि सरकार यदि कोई कानून बनाती है या कोई फैसला लेते हैं. उसका विरोध भी होने लगता है. इसके बाद सरकार पर आरोप लगाया जाता है कि सरकारें देशद्रोह की धारा के तहत कार्यवाही करके विरोधियों की आवाज दबा देती हैं.
भारत एक लोकतांत्रिक देश है. देश का संविधान सबको अपने विचार रखने की आजादी देता है. अलग-अलग लोगों की विचारधाराएं अलग-अलग हो सकते हैं. ऐसा संभव है कि किसी मुद्दे को कोई व्यक्ति किसी नजरिए से देखता है, दूसरा व्यक्ति अलग नजरिए से देख सकता है. अगर किसी मुद्दे किसी व्यक्ति की राय सरकार से अलग है, तो उसे देशद्रोह मानने का कोई भी औचित्य नहीं बनता है. इस बात को देश की सर्वोच्य न्यायपालिका भी मानती है.
सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के मामले में कहा कि सरकार की राय से अलग बोलना देशद्रोह नहीं होता है. ऐसा नहीं है कि कोर्ट की तरफ से इस तरह की यह पहली बात है. इससे पहले भी दिल्ली की एक कोर्ट ने कहा था कि असंतुष्टों को चुप कराने के लिए देशद्रोह की धाराएं नहीं लगाई जा सकती हैं. सरकार का विरोध करना तथा देशद्रोह दोनों अलग-अलग चीजें हैं.
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वर्तमान समय में जबकि राजनीति इतनी हावी हो चुकी है. विरोधियों की आवाजों को दबाने के लिए देशद्रोह के कानून का प्रयोग किया जा सकता है. इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है कि सरकार से सहमत ना होने को हम देशद्रोह नहीं मान सकते. भविष्य में इस टिप्पणी से देश के लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी.