विदेश में बसने की होड़
ऐसा नहीं है कि सामान्य वक्त में भारतीय विदेश में बसना नहीं चाहते। कोरोना महामारी के दस्तक देने से पहले भी कुछ हजार लोग हर साल देश छोड़कर जा रहे थे। उस वक्त वीजा और इमिग्रेशन सर्विस कंपनियों के पास 90 फीसदी ऐसे लोग आते थे, जो बिजनेस बढ़ाने, आसान टैक्स नीतियों और कारोबार में आसानी की वजह से दूसरे देशों में बसना चाहते थे। ये सब अमीर तबके के लोग होते थे। इस बार का मामला अलग है। अब मध्यवर्गीय लोग भी विदेश जाकर बसना चाहते हैं। उनकी प्रायॉरिटी तय है। वे ऐसे देशों में बसना चाहते हैं, जहां नागरिकों को बेहतर सुविधाएं मिलती हैं। खासतौर पर स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में।
देश में ऐसे माता-पिता की भी बड़ी संख्या है, जिनके बच्चे विदेश में नौकरी कर रहे हैं। महामारी की दूसरी लहर में इनमें से कइयों के पैरंट्स संक्रमित हुए। उनके इलाज में परेशानी हुई। इसलिए अब ये बच्चे अपने माता-पिता को अपने पास बुलाने को बेचैन हैं। पिछले साल सितंबर में आई एक रिपोर्ट में बताया गया था कि देश में जितने रईस हैं, उनमें से दो फीसदी यानी 7,000 लोग 2019 में विदेश जा बसे। इस साल के अंत तक यह संख्या और बढ़ेगी और इसमें मध्यवर्गीय लोगों का भी अच्छा-खासा हिस्सा होगा।
सरकार को इस मामले की गंभीरता को समझना होगा। उसे इस ‘ब्रेन ड्रेन’ को रोकना होगा। समझना होगा कि यह वर्ग न सिर्फ टैक्स के रूप में अच्छा-खासा योगदान देता है बल्कि देश की आर्थिक तरक्की में भी इन कुशल पेशेवरों की बड़ी भूमिका है। आज यह वर्ग देश में अपर्याप्त हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर से नाराज है। सरकार को इसमें निवेश बढ़ाना चाहिए, जिसकी सलाह यूं भी पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स लंबे समय से देते आए हैं। इससे न सिर्फ अगली मेडिकल इमरजेंसी से निपटने में मदद मिलेगी बल्कि देश से ब्रेन ड्रेन भी रुकेगा।अब मध्यवर्गीय लोग भी विदेश जाकर बसना चाहते हैं। उनकी प्रायॉरिटी तय है। वे ऐसे देशों में बसना चाहते हैं, जहां नागरिकों को बेहतर सुविधाएं मिलती हैं। खासतौर पर स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में।
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