नंदितेश निलय का कॉलम: बेहतर हो हम रंगभेद और नस्लवाद पर ‘हैवी टैरिफ’ लगा दें

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नंदितेश निलय का कॉलम:  बेहतर हो हम रंगभेद और नस्लवाद पर ‘हैवी टैरिफ’ लगा दें

नंदितेश निलय का कॉलम: बेहतर हो हम रंगभेद और नस्लवाद पर ‘हैवी टैरिफ’ लगा दें

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42 मिनट पहले

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नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक

जाति, धर्म और लैंगिक विभाजनों के बीच अगर रंगभेद या काले-गोरे का विषय खबरों में आ जाए तो आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है। कुछ दिनों पूर्व केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन ने इस मुद्दे पर बहस छेड़ दी, जब उन्हें इस टिप्पणी का सामना करना पड़ा कि उनका कार्यकाल उतना ही काला था, जितने कि उनके पति गोरे हैं। उन्होंने माना कि बचपन से ही वो अपने सांवले रंग को लेकर लोगों के तंज को झेलती रही हैं।

इस टिप्पणी ने उन्हें बचपन की उन यादों के करीब ला दिया, जहां वे अपनी मां से आग्रह करते हुए कहती थीं, क्या मैं गोरी त्वचा के साथ दुबारा जन्म ले सकती हूं? इसी प्रसंग में मुझे याद आ रही हैं रोजा पार्क्स, जिनकी कहानी अभी भी एनसीईआरटी की किताबों में बच्चों को पढ़ाई जाती हैं। उनको नागरिक अधिकार आंदोलन की जननी भी कहा गया है। उन्होंने नस्लीय समानता के संघर्ष को उस समय हवा दी, जब उन्होंने अलबामा के मोंटगोमरी में एक श्वेत व्यक्ति को अपनी बस की सीट देने से इनकार कर दिया।

रोजा पार्क्स ने वह संघर्ष 1955 में छेड़ा था और आज हम 2025 में प्रवेश कर चुके हैं। हम ऐसे समय में रह रहे हैं, जब तकनीक रोज नए प्रतिमान भी गढ़ रही है और मंगल ग्रह पर भी मनुष्यों को बसाने की संभावना जताई जा रही है। लेकिन पृथ्वी पर हम अभी भी नस्लीय भेदभाव में अटके हुए हैं। रोबोट भले ही कोई भेद न करे, लेकिन इंसानों की कौम में एक प्रशासनिक अधिकारी को लेकर ऐसी टिप्पणी बहुत हतोत्साहित करती है।

और यह भी सवाल करना जरूरी है कि अगर इतनी पढ़ी-लिखी और सफल स्त्री को नस्लीय भेदभाव झेलना पड़ता है तो असंख्य गरीब लड़कियों को क्या-क्या झेलना पड़ता होगा? जब गोरापन और सुंदरता सामाजिक समझ और बोलचाल में पर्यायवाची और उपलब्धि-सदृश हो जाते हैं, तो फिर बचता क्या है? जिस समाज में स्त्रियां अभी भी अपने होने के संघर्ष से जूझ रही हैं, वहां काले रंग से मुकाबला कैसे किया जाए? और वह भी ऐसे समय जब सोशल मीडिया पर एक बड़ी जनसंख्या कुछ भी लिखना चाहती है और बेसिरपैर की प्रतिक्रिया से कोई गुरेज नहीं करती।

इस भेदभाव को बढ़ाने में बाजार ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। और तो और बाजार को इस भेद में भी लाभ की संभावना नजर आई और यह भी कि समाधान और सम्मान गोरा होने में ही है। एक मॉइश्चराइजर क्रीम और ब्रांड ने अफ्रीकी मूल की स्त्रियों को ध्यान में रखकर एक ऐसी क्रीम का प्रचार किया, जो त्वचा के रंग को गोरा बना सकती है। मुनरो बर्गडॉफ- जो कि एक प्रसिद्ध मॉडल और सामाजिक कार्यकर्ता हैं- ने भी नस्लवाद पर खुलकर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की और माना कि ऐसे विज्ञापन सौंदर्य उद्योग में व्याप्त नस्लवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देते हैं।

वे लिखती हैं, उन तमाम विज्ञापनदाताओं के पास इस कथानक को बदलने की शक्ति है, लेकिन अभियान दर अभियान हम देख रहे हैं कि इसका प्रयोग दुनिया भर में बखूबी किया जा रहा है। लोगों को खुद से नफरत करवाकर पैसा कमाना कभी भी स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। गोरा करने वाली क्रीम न केवल शारीरिक रूप से हानिकारक हैं, बल्कि नैतिक रूप से भी गलत हैं। 1893 में महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका में इसी नस्लवादी सोच की आड़ में जब ट्रेन से बाहर फेंका गया तो इस घटना ने संसार में एक बहुत बड़े संघर्ष की कहानी लिख दी।

और आगाह किया कि नस्लीय भेदभाव किसी भी समाज के लिए हर तरह से गलत है। अमेरिका और मध्यकालीन यूरोप में इस विषय पर पुरजोर चर्चा हुई, सालों-साल संघर्ष चला। लेकिन बाजार और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को यह नस्लीय भावना आज भी घेर लेती है और स्त्रियों को सबसे पहले उस हीनता से जकड़ती है। पुरुष भी तो सांवले और काले होते हैं। पर उनको स्वीकार करने के नियम बिल्कुल अलग हैं।

शारदा की पोस्ट को डिलीट किया जा सकता है, लेकिन ज्यादा जरूरी है कि नस्लीय भेदभाव को डिलीट किया जाए। रंगभेद को पूरी तरह से समाज की मानसिकता से हटाने की जरूरत है। और अगर पैसे के दवाब से ही दुनिया बदलना चाहती है तो संसार इस पर “हैवी टैरिफ’ लगा दे!

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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