पहली संतान गंगा को भेंट करते थे लोग: दाढ़ी-बाल कटवाने पर टैक्स लेते थे अंग्रेज; चांदी के कलश में लंदन भेजा जाता था गंगाजल

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पहली संतान गंगा को भेंट करते थे लोग:  दाढ़ी-बाल कटवाने पर टैक्स लेते थे अंग्रेज; चांदी के कलश में लंदन भेजा जाता था गंगाजल

पहली संतान गंगा को भेंट करते थे लोग: दाढ़ी-बाल कटवाने पर टैक्स लेते थे अंग्रेज; चांदी के कलश में लंदन भेजा जाता था गंगाजल

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22 घंटे पहलेलेखक: इंद्रभूषण मिश्र

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1924 की बात है। प्रयाग में अर्धकुंभ लगा था। जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष थे। कुंभ को लेकर नेहरू अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानी’ में लिखते हैं- ‘मैंने खबरों में पढ़ा कि मदन मोहन मालवीय और ब्रिटिश सरकार के बीच ठन गई है। सरकार ने फिसलन के डर से संगम में स्नान पर रोक लगा दी थी, लेकिन मालवीय जी अड़ गए थे। उनका कहना था कि धार्मिक रूप से स्नान तो संगम पर ही होना चाहिए।

खबर पढ़ने के बाद मैं संगम के लिए निकल गया। मेरा स्नान का कोई इरादा नहीं था, क्योंकि ऐसे मौकों पर गंगा नहाकर पुण्य कमाने की चाह मुझे नहीं थी। मेला पहुंचने पर मैंने देखा कि मालवीय जी जिला मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ जल सत्याग्रह कर रहे हैं। 200 लोग उनके साथ थे। जोश में आकर मैं भी सत्याग्रह दल में शामिल हो गया।

मैदान के उस पार लकड़ियों का बड़ा सा घेरा बनाया गया था, ताकि लोग संगम नहीं पहुंच सकें। हम आगे बढ़े, तो पुलिस ने रोका, हमारे हाथ से सीढ़ी छीन ली। विरोध में हम रेत पर बैठकर धरना देने लगे। धूप बढ़ती जा रही थी। दोनों तरफ पैदल और घुड़सवार पुलिस खड़ी थी। मेरा धैर्य अब टूटने लगा था।

इसी बीच घुड़सवार पुलिस को कुछ ऑर्डर दिया गया। मुझे लगा कि ये लोग कहीं हमें कुचल न दें, पीटना न शुरू कर दें। मैंने सोचा क्यों न हम घेरे के ऊपर से ही फांद जाएं। मेरे साथ बीसों आदमी चढ़ गए। कुछ लोगों ने उसकी बल्लियां भी निकाल लीं। इससे रास्ता जैसा बन गया। मुझे बहुत गर्मी लग रही थी, सो मैंने गंगा में गोता लगा दिया।

स्नान करके निकला, तो यह देखकर मैं हैरान रह गया कि मालवीय जी अभी भी सत्याग्रह पर बैठे हुए हैं। मैं चुपचाप जाकर उनके पास बैठ गया। मालवीय जी बहुत भिन्नाये हुए थे और ऐसा लग रहा था कि वे खुद को रोकने की कोशिश कर रहे हैं।

अचानक बिना किसी से कुछ कहे मालवीय जी उठे और पुलिस के बीच से निकलकर गंगा में कूद पड़े। मालवीय जी जैसे दुर्बल और बूढ़े शरीर वाले व्यक्ति को इस तरह गोता लगाते देखकर मैं हैरान रह गया। इसके बाद तो पूरी भीड़ गंगा में डुबकी लगाने के लिए टूट पड़ी। हमें लग रहा था कि सरकार कुछ कार्रवाई करेगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ।’

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1924 कुंभ के दौरान नेहरू की कोई तस्वीर नहीं मिली। ये तस्वीर साल 1938 की है। संगम में स्नान करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू।

कुंभ में बाल-दाढ़ी बनवाने पर टैक्स, गाय-बछड़ा दान करने वालों से भी वसूली

1801 में इलाहाबाद पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। कुंभ और माघ मेले पर जुटने वाली लाखों की भीड़ देख अंग्रेजों को कमाई का आइडिया मिला। उस साल कुंभ में आने वाले हर तीर्थयात्री से एक रुपए टैक्स लिया गया। वसूली करने के लिए अफसर तैनात किए गए। इसके बाद हर कुंभ में ब्रिटिश सरकार कुंभ से कमाई करने लगी।

1906 की बात है। जिला मजिस्ट्रेट एचवी लॉवेट ने कुंभ मेले पर एक रिपोर्ट बनाई। इसके मुताबिक 1894 के कुंभ में मुंडन करने वाले नाइयों ने सरकार को 11 हजार 825 रुपए और 8 आने, दाढ़ी बनाने वालों ने 1332 रुपए और 8 आने बतौर टैक्स चुकाए। जबकि फूल बेचने वाले मालियों से 1600 रुपए का टैक्स वसूला गया।

कुंभ के दौरान दूध पर 1064 रुपए, गाय दान करने पर 176 रुपए और बछड़ों के दान पर 976 रुपए का टैक्स वसूला गया। जबकि नाववालों ने 3311 रुपए, फेरीवालों ने 1440 रुपए और गाड़ी चलाने वालों ने 1874 रुपए टैक्स चुकाए।

इसी तरह 1906 के कुंभ में बाल काटने पर 10 हजार 444 रुपए और 8 आने, दाढ़ी बनाने पर 1348 रुपए और 8 आने और मालियों से 1336 रुपए वसूले गए। इसी साल दूध पर 728 रुपए, गाय दान करने पर 152 रुपए और बछड़ा दान करने पर 1098 रुपए टैक्स लगा। जबकि नाव वालों ने 3435, फेरीवालों ने 1025 रुपए और गाड़ी चलाने वालों ने 1995 रुपए टैक्स चुकाए थे।

इतिहासकार डॉ हेरंब चतुर्वेदी अपनी किताब ‘कुंभ: ऐतिहासिक वांग्मय’ में लिखते हैं- ‘अंग्रेजों से पहले मुगल भी कुंभ से कमाई करते थे। अकबर ने दो अधिकारी कुंभ की व्यवस्था देखने के लिए तैनात किए थे। पहला मीर ए बहर, जो कि लैंड और वॉटर वेस्ट मैनेजमेंट का काम देखता था और दूसरा मुस्द्दी जिसके हवाले घाटों की जिम्मेदारी थी।’

हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं-

कुंभ मेले के टैक्स से अंग्रेज इतनी कमाई करते थे कि उससे इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी और हेल्थ डिस्पेंसरी का खर्च निकल जाता था।

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अंग्रेज कुंभ मेले से अच्छी-खासी कमाई करते थे। उन्होंने मुंडन और गाय दान करने पर भी टैक्स लगाया था।

पहली संतान गंगा को भेंट करते थे लोग, चांदी के कलश में लंदन भेजा जाता गंगाजल

1827 से 1833 के बीच एक अंग्रेज कस्टम अधिकारी की पत्नी फेनी पाकर्स इलाहाबाद आईं। उन्होंने अपनी किताब ‘वंडरिंग्स ऑफ ए पिलग्रिम इन सर्च ऑफ द पिक्चर्स’ में लिखा है- ‘जब मैं इलाहाबाद पहुंची, तो वहां मेला लगा हुआ था। नागा साधु और वैष्णव संतों का हुजूम स्नान के लिए जा रहा था। मैं कई विवाहित महिलाओं से मिली, जिनकी संतान नहीं थी। उन लोगों ने प्रतिज्ञा की थी कि पहली संतान होगी तो वे गंगा को भेंट कर देंगी।’

प्रयाग के क्षेत्रीय अभिलेखागार के दस्तावेजों के मुताबिक चांदी के कलश में गंगाजल लंदन भेजा जाता था। 1902 में महाराजा सवाई माधव सिंह द्वितीय अपने ओलंपिया जहाज से लंदन जा रहे थे। उन्होंने चांदी के कलशों में 8 हजार लीटर गंगाजल भरवाया। इसके बाद जहाज से वे गंगाजल लेकर लंदन पहुंचे।

कुंभ को लेकर किंवदंती है कि जिन महिलाओं को मन्नत के बाद संतान की प्राप्ति होती थी, वे पहली संतान गंगा को भेंट करती थीं।

मेला सजाने इंग्लैंड से अफसर बुलाए जाते, पुलिस को ड्यूटी के लिए परीक्षा देनी पड़ती

कुंभ को सफल बनाने के लिए इंग्लैंड से खास तौर पर अफसर बुलाए जाते थे। ये अफसर भारत के सचिव को हर दिन रिपोर्ट भेजते थे।

राजकीय अभिलेखागार के 1894 के एक दस्तावेज के मुताबिक कुंभ के लिए प्रशासनिक काम इलाहाबाद के कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट की देखरेख में किया गया, लेकिन मेला सुंदर बनाने और सजाने के लिए इंग्लैंड से तीन अफसर बुलाए गए थे।

1894 के दस्तावेज के मुताबिक कुंभ में अधिकारियों को ड्यूटी के लिए परीक्षा पास करनी पड़ती थी। इसके लिए आचार संहिता जारी की जाती थी।

पुलिस को लोगों की जानमाल की सुरक्षा के साथ ही साफ-सफाई और हेल्थ का भी ध्यान रखना होता था। इसकी निगरानी के लिए एक यूरोपियन कैंटोनमेंट इंस्पेक्टर और दो असिस्टेंट इंस्पेक्टर की ड्यूटी लगाई जाती थी। शौचालयों की साफ-सफाई के लिए हर वॉशरूम के पास 6 घड़ों में मरक्यूरिक परक्लोराइड भरकर रखा जाता था।

अंग्रेजों से छुपकर साधुओं ने रातों-रात शिविर में कुएं खोद डाले

1918 में कुंभ के दौरान अखाड़ों की मांग थी कि उनके शिविर के भीतर कुआं खोदने की अनुमति दी जाए। तब साधु-संतों को पीने के पानी के लिए दिक्कतों का सामना करना पड़ता था।

जब संतों को कुआं खोदने की अनुमति नहीं मिली, तो हिंदू महासभा, बड़ा पंचायती और निर्मल अखाड़े ने रातों-रात अपने शिविर में ही कुआं खोद दिया। अंग्रेज अफसरों को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने कुएं को बंद करा दिया।

तब कुंभ के लिए मेला क्षेत्र में 185 टोटियां और 27 पानी की टंकियों की व्यवस्था की गई थी, जो लाखों लोगों के लिए बेहद कम थी।

1918 के कुंभ में साधु-संतों को पीने के पानी की दिक्कत हुई, तो उन्होंने रातों-रात टेंट में ही कुएं खोद डाले।

ईसाई अधिकारी ने कहा- नागा साधु, कुंभ में अश्लीलता फैला रहे, इन पर रोक लगे

1 फरवरी 1888, ब्रितानी अखबार मख्ज़ान-ए-मसीही में एक खबर छपी। खबर में प्रयाग में चल रहे कुंभ को लेकर लिखा था- ‘संगम पर करीब 400 नागा साधुओं का जत्था स्नान करने पहुंचा। रास्ते में दोनों तरफ हजारों की संख्या में पुरुष-महिलाएं इनके दर्शन के लिए खड़े थे। कुछ लोग इनका पूजन कर रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी जुलूस के आगे-आगे चलकर इनका रूट क्लियर करवा रहा था।

यह दुखद और शर्मनाक दृश्य था। सरकार न्यूडिटी पर पनिशमेंट देती है, लेकिन यहां तो जॉइंट मजिस्ट्रेट पद के अफसर को भेजकर मैसेज दे रही है कि वह हिंदुओं के साथ है।’’

इसी खबर के हवाले से ‘क्रिश्चियन ब्रदरहुड’ के अध्यक्ष आर्थर फोए ने ब्रिटेन के एक सांसद को चिट्ठी लिखी।

फोए ने लिखा- ‘इस नग्न प्रदर्शन से तो शिक्षित हिन्दू समाज भी शर्म से गड़ जाता है। इस काम के लिए सरकार ने अंग्रेज अफसर को क्यों तैनात किया? उसने किसी भारतीय को क्यों नहीं इस काम के लिए लगाया। भारतीयों को लगता है कि उन लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत को झुका दिया और अपनी बात मनवा ली। ईसाई धर्म के लिए ये शर्म की बात है।

ईसाई अधिकारियों का कहना था कि नागा साधु कुंभ में नग्न प्रदर्शन कर रहे हैं। सरकार को इस पर रोक लगानी चाहिए।

16 अगस्त 1888 को सरकार ने आर्थर फोए की इस चिट्ठी का जवाब भेजा। चिट्ठी में लिखा- ‘कुंभ हर 12 साल और अर्धकुंभ हर 6 साल बाद होता है। इस मौके पर इलाहाबाद और बाकी जगहों पर नागा साधु परंपरागत रूप से शोभायात्रा निकालते हैं। नागा संन्यासी हिन्दू समाज में बहुत पवित्र माने जाते हैं और उनमें कोई बुराई नहीं है। कई बार नागा साधुओं के बीच खूनी संघर्ष भी हो जाता है। इसलिए हमें अंग्रेज अधिकारी तैनात करना पड़ता है। हम इनके धार्मिक मामले में दखल नहीं दे सकते।’

ये चिट्ठी राष्ट्रीय अभिलेखागार में ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ होम डिपार्टमेंट’ में मौजूद है।

अंग्रेजों ने इश्तेहार छपवाए- टेंट में कोई अजनबी नहीं आना चाहिए

अंग्रेजों के दौर में ज्यादातर लोग पैदल और बैलगाड़ी से संगम पहुंचते थे। तीर्थ यात्रियों के लिए लुटेरों से निपटना मुश्किल काम था। रात में तीर्थ यात्रियों के साथ लूट-पाट न हो इसलिए रास्ते में विशेष सराय बनाए जाते थे। इन सरायों में सुरक्षा की खास व्यवस्था की जाती थी। इनकी तैयारी एक साल पहले ही शुरू हो जाती थी।

इन खतरों का अंदाजा अंग्रेज अफसरों के फरमान से लगाया जा सकता है। 1870 में अंग्रेज अफसरों ने फरमान जारी किया था कि किसी भी अजनबी को अपने शिविर में रुकने न दें। कल्पवास करने वालों से हलफनामा लिया गया था। 94 प्रयागवाल यानी पंडों ने दस्तखत भी किए थे।

1880 में अंग्रेजों ने एक इश्तेहार जारी किया, जिसमें लिखा था- मुसाफिर तय पड़ाव पर ही रात गुजारें। वहां उनकी देखरेख के लिए चौकीदार तैनात किए गए हैं। अगर कोई बाहर ठहरता है और कोई अनहोनी होती है, तो उसके लिए वो खुद जिम्मेदार होगा।

सरकार का ऐसा करने के पीछे लूट-मार से लोगों की रक्षा करना और बीमारियों को फैलने से रोकना था। हालांकि इतिहासकारों का कहना है कि अंग्रेज, क्रांतिकारियों के डर से ऐसे फरमान जारी कर रहे थे। उन्हें आभास हो गया था कि कुंभ में क्रांतिकारी जुटान कर रहे हैं।

कुंभ के लिए अंग्रेजों ने 4 अस्पताल बनवाए, 207 लोग हैजा से मर गए

1906 में कुंभ के दौरान मेला क्षेत्र में हैजा फैल गया था। इससे निपटने के लिए सरकार ने हैजा हॉस्पिटल बनाया था। 281 कालरा पीड़ित मरीजों का इलाज किया गया, लेकिन इनमें से 207 लोग मर गए। 167 लोगों की मौत सांस लेने में दिक्कत और निमोनिया से हुई थी।

1918 के कुंभ में चार अस्पताल बनवाए गए थे। मुख्य अस्पताल में 100 बेड और बाकी तीन अस्पतालों में 25-25 बेड थे। मेला प्रबंधन के पास दवाइयों और मेडिकल इक्विपमेंट की व्यवस्था थी। महामारी प्रभावित क्षेत्रों में विशेष जांच की जा रही थी।

स्केच : संदीप पाल

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