Sir Dorabji Tata: टाटा स्टील को डूबने से बचाने के लिए दोराबजी टाटा ने गिरवी रख दिया था बेशकीमती जुबली डायमंड, इस तरह बनवाया था कैंसर हाॅस्पिटल h3>
नई दिल्लीः जमशेदजी टाटा के बेटे दोराबजी टाटा (Dorabji Tata) समूह के चेयरमैन थे। एक समय था जब टाटा ग्रुप (Tata Group) ने बेहद मुश्किल हालात देखे थे। एक दौर ऐसा भी आया जब टाटा स्टील (Tata Steel) डूबने की कगार पर पहुंच गई थी। इस दौरान दोराबजी टाटा (Sir Dorabji Tata) और उनकी पत्नी मेहरबाई टाटा ने अपनी सारी संपत्ति और यहां तक की बेशकीमती जुबली डायमंड (Jubilee Diamond) गिरवी रखकर कंपनी को बचाया। दोनों ने न सिर्फ कंपनी को बचाया बल्कि कंपनी मुनाफे में भी आई। ये इतिहास में पहला ऐसा मौका रहा होगा जब कंपनी को बचाने के लिए हीरे को गिरवी रखा गया हो। इसके बाद उन्होंने लोगों की जिंदगी बचाने के लिए कैंसर हाॅस्पिटल भी बनवाया। आज यानी 27 अगस्त को सर दोराबजी जयंती है। इस मौके पर आपको बताते हैं उनसे जुड़ी खास बातें और किस तरह उन्होंने कम समय में टाटा ग्रुप को बुलंदियों पर पहुंचाया।
भारत में रखी थी औद्योगिक क्रांति की नींव
सर दाेराबजी टाटा को मैन आफ स्टील भी कहा जाता है। इन्होंने ही अपने पिता जमशेदजी टाटा के सपनों को पूरा करते हुए भारत में औद्योगिक क्रांति की नींव रखी थी। इसके बाद इन्होंने पहला स्टील संयंत्र स्थापित किया। इन्होंने न सिर्फ टिस्को कंपनी की स्थापना की बल्कि यहां काम करने वाले कर्मचारियों के हितों का भी ख्याल रखा। कर्मचारियों के लिए इन्होंने 8 घंटे की ड्यूटी, मुफ्त इलाज की सुविधा, सवैतनिक अवकाश, कर्मचारी भविष्य निधि और महिला कर्मचारियों के लिए मातृत्व अवकाश जैसे कल्याणकारी पहल शुरू की थी। इसे ही बाद में भारत सरकार ने कानून के रूप में पूरे देश में प्रभावी किया था।
जानिए क्या था टाटा स्टील का संकट
सर दोराबजी टाटाए 1904 में टाटा समूह के चेयरमैन बने। वह 1932 तक इस पद पर रहे। बात प्रथम विश्व युद्ध के बाद की है। शुरुआती दौर से गुजर रही जमशेदपुर में बेस्ड टाटा स्टील ने विस्तार की ओर कदम बढ़ाया ही था। लेकिन यह विस्तार फायदे से ज्यादा मुश्किलें लेकर आया। कंपनी को प्राइस इन्फ्लेशन से लेकर लेबर इश्यूज तक का सामना करना पड़ रहा था। वहीं जापान में भूकंप के बाद मांग गिर रही थी। 1923 आते-आते कैश और लिक्विडिटी की कमी का संकट खड़ा हो गया। साल 1924 में जमशेदपुर में एक टेलिग्राम पहुंचाए एक बुरी खबर लेकर। खबर थी कि टाटा स्टील के कर्मचारियों को वेतन का भुगतान करने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। इसके बाद सवाल उठने लगे कि क्या कंपनी चल पाएगी या फिर बंद हो जाएगी, क्या भारत के पहले इंटीग्रेटेड स्टील प्लांट को स्थापित करने की राह दिखाने वाले सपने और सोच टूटकर बिखर जाएंगे।
1930 से मुनाफे में आई कंपनी
1930 के दशक के आखिर में टाटा स्टील फिर से फलने फूलने लगी। दोराबजी और उनकी पत्नी मेहरबाई के अपनी संपत्ति को गिरवी रखकर किए गए त्याग की बदौलत, टाटा स्टील डूबने से बच गई। साल 1931 में मेहरबाई और साल 1932 में दोराबजी टाटा इस दुनिया को अलविदा कह गए। दोराबजी अपनी सारी संपत्ति श्सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम कर गए, जिसमें वह जुबली डायमंड भी शामिल रहा।
बेहद बेशकीमती और खास था गिरवी रखा गया हीरा
जुबली डायमंड दुनिया का छठां सबसे बड़ा हीरा है। ये साल 1895 में दक्षिण अफ्रीका की जैगर्सफ़ोन्टेन खान से निकला था। साल 1896 में इसे पॉलिशिंग के लिए एम्सटर्डम भेजा गया और 1897 में इसे क्वीन विक्टोरिया की डायमंड जुबली के नाम पर नाम मिला जुबली डायमंड। इस डायमंड का स्वामित्व रखने वाले लंदन के तीन मर्चेंट्स के कंसोर्शियम का सोचना था कि इस हीरे की बेस्ट जगह ब्रिटिश महारानी के शाही मुकुट में है। लेकिन इस हीरे को तो किसी और के गले की शोभा बनना था।
दोराबजी ने पत्नी को गिफ्ट में दिया था जुबली डायमंड
साल 1900 में जुबली डायमंड को पेरिस एक्सपोजीशन में डिस्प्ले किया गया। यह एक ग्लोबल फेयर थाए जिसका प्रमुख आकर्षण जुबली डायमंड था। उस वक्त जमशेदजी टाटा के बेटे दोराबजी टाटा ब्रिटेन में ही थे। दोराबजी और मेहरबाई की शादी 1898 के वैलेंटाइन्स डे पर हुई थी। दोराबजी अपनी पत्नी से बेहद प्यार करते थे तो उन्होंने जुबली डायमंड मेहरबाई को गिफ्ट करने का फैसला किया है। दोराबजी ने इसे लंदन के मर्चेंट्स से 1 लाख पाउंड में खरीद लिया।
जुबली डायमंड के सामने कोहिनूर हीरा भी लगता है छोटा
मेहरबाई टाटा ने इस हीरे को एक प्लेटिनम के छल्ले में डाला और अपने गले में पहनने लगीं। वह रॉयल कोर्ट्स में अपनी विजिट और सार्वजनिक फंक्शंस के दौरान यानी केवल खास मौकों पर ही इसे पहनती थीं। मेहरबाई टाटा के पास जो जुबली डायमंड था। वह 245,35 कैरेट का था। यह हीरा दुनिया के सबसे बड़े हीरों में गिना जाता है। इसका आकार कोहिनूर हीरे से दोगुना है।
अभी कहां है जुबली डायमंड
बता दें कि साल 1937 में उस जुबली डायमंड की बिक्री कार्टियर के जरिए हुई और बदले में हासिल हुआ पैसा सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट के पास चला गया। ट्रस्ट ने हासिल हुए फंड्स का इस्तेमाल टाटा मैमोरियल हॉस्पिटल समेत कई संस्थान स्थापित करने में किया। इन संस्थानों में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च भी शामिल हैं। जुबली डायमंड को एक फ्रांसीसी उद्योगपति एम पॉल. लुइस वीलर ने खरीदा था। इसके बाद इसे हाउस मौवाडी के रॉबर्ट बिर्केनस्टॉक ने खरीदा।
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भारत में रखी थी औद्योगिक क्रांति की नींव
सर दाेराबजी टाटा को मैन आफ स्टील भी कहा जाता है। इन्होंने ही अपने पिता जमशेदजी टाटा के सपनों को पूरा करते हुए भारत में औद्योगिक क्रांति की नींव रखी थी। इसके बाद इन्होंने पहला स्टील संयंत्र स्थापित किया। इन्होंने न सिर्फ टिस्को कंपनी की स्थापना की बल्कि यहां काम करने वाले कर्मचारियों के हितों का भी ख्याल रखा। कर्मचारियों के लिए इन्होंने 8 घंटे की ड्यूटी, मुफ्त इलाज की सुविधा, सवैतनिक अवकाश, कर्मचारी भविष्य निधि और महिला कर्मचारियों के लिए मातृत्व अवकाश जैसे कल्याणकारी पहल शुरू की थी। इसे ही बाद में भारत सरकार ने कानून के रूप में पूरे देश में प्रभावी किया था।
जानिए क्या था टाटा स्टील का संकट
सर दोराबजी टाटाए 1904 में टाटा समूह के चेयरमैन बने। वह 1932 तक इस पद पर रहे। बात प्रथम विश्व युद्ध के बाद की है। शुरुआती दौर से गुजर रही जमशेदपुर में बेस्ड टाटा स्टील ने विस्तार की ओर कदम बढ़ाया ही था। लेकिन यह विस्तार फायदे से ज्यादा मुश्किलें लेकर आया। कंपनी को प्राइस इन्फ्लेशन से लेकर लेबर इश्यूज तक का सामना करना पड़ रहा था। वहीं जापान में भूकंप के बाद मांग गिर रही थी। 1923 आते-आते कैश और लिक्विडिटी की कमी का संकट खड़ा हो गया। साल 1924 में जमशेदपुर में एक टेलिग्राम पहुंचाए एक बुरी खबर लेकर। खबर थी कि टाटा स्टील के कर्मचारियों को वेतन का भुगतान करने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। इसके बाद सवाल उठने लगे कि क्या कंपनी चल पाएगी या फिर बंद हो जाएगी, क्या भारत के पहले इंटीग्रेटेड स्टील प्लांट को स्थापित करने की राह दिखाने वाले सपने और सोच टूटकर बिखर जाएंगे।
1930 से मुनाफे में आई कंपनी
1930 के दशक के आखिर में टाटा स्टील फिर से फलने फूलने लगी। दोराबजी और उनकी पत्नी मेहरबाई के अपनी संपत्ति को गिरवी रखकर किए गए त्याग की बदौलत, टाटा स्टील डूबने से बच गई। साल 1931 में मेहरबाई और साल 1932 में दोराबजी टाटा इस दुनिया को अलविदा कह गए। दोराबजी अपनी सारी संपत्ति श्सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम कर गए, जिसमें वह जुबली डायमंड भी शामिल रहा।
बेहद बेशकीमती और खास था गिरवी रखा गया हीरा
जुबली डायमंड दुनिया का छठां सबसे बड़ा हीरा है। ये साल 1895 में दक्षिण अफ्रीका की जैगर्सफ़ोन्टेन खान से निकला था। साल 1896 में इसे पॉलिशिंग के लिए एम्सटर्डम भेजा गया और 1897 में इसे क्वीन विक्टोरिया की डायमंड जुबली के नाम पर नाम मिला जुबली डायमंड। इस डायमंड का स्वामित्व रखने वाले लंदन के तीन मर्चेंट्स के कंसोर्शियम का सोचना था कि इस हीरे की बेस्ट जगह ब्रिटिश महारानी के शाही मुकुट में है। लेकिन इस हीरे को तो किसी और के गले की शोभा बनना था।
दोराबजी ने पत्नी को गिफ्ट में दिया था जुबली डायमंड
साल 1900 में जुबली डायमंड को पेरिस एक्सपोजीशन में डिस्प्ले किया गया। यह एक ग्लोबल फेयर थाए जिसका प्रमुख आकर्षण जुबली डायमंड था। उस वक्त जमशेदजी टाटा के बेटे दोराबजी टाटा ब्रिटेन में ही थे। दोराबजी और मेहरबाई की शादी 1898 के वैलेंटाइन्स डे पर हुई थी। दोराबजी अपनी पत्नी से बेहद प्यार करते थे तो उन्होंने जुबली डायमंड मेहरबाई को गिफ्ट करने का फैसला किया है। दोराबजी ने इसे लंदन के मर्चेंट्स से 1 लाख पाउंड में खरीद लिया।
जुबली डायमंड के सामने कोहिनूर हीरा भी लगता है छोटा
मेहरबाई टाटा ने इस हीरे को एक प्लेटिनम के छल्ले में डाला और अपने गले में पहनने लगीं। वह रॉयल कोर्ट्स में अपनी विजिट और सार्वजनिक फंक्शंस के दौरान यानी केवल खास मौकों पर ही इसे पहनती थीं। मेहरबाई टाटा के पास जो जुबली डायमंड था। वह 245,35 कैरेट का था। यह हीरा दुनिया के सबसे बड़े हीरों में गिना जाता है। इसका आकार कोहिनूर हीरे से दोगुना है।
अभी कहां है जुबली डायमंड
बता दें कि साल 1937 में उस जुबली डायमंड की बिक्री कार्टियर के जरिए हुई और बदले में हासिल हुआ पैसा सर दोराबजी टाटा चैरिटेबल ट्रस्ट के पास चला गया। ट्रस्ट ने हासिल हुए फंड्स का इस्तेमाल टाटा मैमोरियल हॉस्पिटल समेत कई संस्थान स्थापित करने में किया। इन संस्थानों में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च भी शामिल हैं। जुबली डायमंड को एक फ्रांसीसी उद्योगपति एम पॉल. लुइस वीलर ने खरीदा था। इसके बाद इसे हाउस मौवाडी के रॉबर्ट बिर्केनस्टॉक ने खरीदा।
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