महानिर्वाणी अखाड़े में आधी रात को गुप्त अनुष्ठान: रोज 200 लीटर दूध की रबड़ी बनाते हैं रबड़ीवाले बाबा, कार में चलाते हैं दरबार

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महानिर्वाणी अखाड़े में आधी रात को गुप्त अनुष्ठान:  रोज 200 लीटर दूध की रबड़ी बनाते हैं रबड़ीवाले बाबा, कार में चलाते हैं दरबार

महानिर्वाणी अखाड़े में आधी रात को गुप्त अनुष्ठान: रोज 200 लीटर दूध की रबड़ी बनाते हैं रबड़ीवाले बाबा, कार में चलाते हैं दरबार

कुंभ क्षेत्र का सेक्टर-20 अखाड़ों के लिए रिजर्व है। इसके पहले नंबर प्लॉट में पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े का कैंप है। शैव संप्रदाय का श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा अपनी शस्त्रधारी परंपरा के लिए जाना जाता है।

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यहां साधु-संत न केवल साधना करते हैं, बल्कि शस्त्र विद्या के भी जानकार हैं। महाकुंभ में पहला स्नान भी इसी अखाड़े के नागाओं ने किया। अखाड़ों में इसका स्थान सबसे ऊपर है।

दैनिक NEWS4SOCIALकी अखाड़ों की कहानी सीरीज की पांचवीं किस्त में पढ़िए श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े की पूरी कहानी…

रात लगभग डेढ़ बजे हैं। इस समय अखाड़े के अंदर कोई नहीं जा सकता, लेकिन अंदर से तेज-तेज आरती गाए जाने की आवाज आ रही है। अखाड़े के बाहर मौजूद लोगों से आधी रात के बाद आरती होने की वजह पूछी। उन्होंने बताया कि अखाड़े में कई गुप्त अनुष्ठान रात में ही होते हैं। इसलिए इस समय आरती हो रही है।

दूसरे दिन सुबह करीब 10 बजे फिर यहां पहुंच गई। अखाड़े के अंदर नागा न तो नशा कर रहे हैं और न ही चिलम पी रहे हैं। हर कोई अपने आप में व्यस्त है। कुछ नागाओं के नाम भी बड़े अजीब हैं। एक रबड़ी वाले बाबा तो, दो गाड़ी वाले बाबा, भस्मी वाले बाबा तो न जाने कितने हैं।

महानिर्वाणी अखाड़े के गेट पर बैठे गाड़ी वाले बाबा।

रबड़ी वाले बाबा दिन भर भट्टी के सामने बैठकर रबड़ी ही बनाते रहते हैं। गाड़ी वाले दोनों बाबा अपनी गाड़ी नहीं छोड़ते। दोनों नागा अपनी गाड़ी में ही अपना दरबार चलाते हैं।

13 साल के थे तभी दोनों ने संन्यास ले लिया, दोनों की उम्र करीब 50 साल है। पहले इनके पास कार थी। 27 साल उसी के साथ गुजारे। इससे दो बार पूरे देश का चक्कर लगा लिया।

एक-डेढ़ साल पहले अपनी कोई समस्या लेकर एक सेठ इनके पास आया। दोनों ने उसकी पीठ पर दो-तीन बार मोर पंखी चंवर यानी झाड़ा ठोंक आशीर्वाद दे दिया। कुछ दिन बाद उसका काम हो गया तो सेठ ने इन्हें नई बोलेरो गिफ्ट कर दी।

काले रंग की इनकी नई बोलेरो अखाड़े के गेट से लगकर पार्क रहती है। एक गाड़ी वाले बाबा अष्टधातु का शंख बजाते हैं और दिनभर मोरपंखी से लोगों को आशीर्वाद देते रहते हैं। वहीं दूसरे गाड़ी वाले बाबा को टाइमिंग बाबा भी कहते हैं। टाइमिंग बाबा दोनों हाथ और पैर में दर्जन भर घड़ी पहनते हैं।

गाड़ी वाले दूसरे बाबा को टाइमिंग बाबा भी कहते हैं। ये दोनों हाथ और पैर में घड़ी पहनते हैं।

रबड़ी वाले महंत गुजरात से आए हैं। सिद्धपुर पाटन महाकाली बीड़ शक्तिपीठ में उनका आश्रम है। उनके तंबू के बाहर सप्त ऋषियों की तस्वीरें लगी हुई हैं।

रबड़ी वाले बाबा ने एक बड़ा फ्लेक्स भी अपने टेंट के सामने लगा रखा है। जिस पर उनका बड़ा सा फोटो लगा है। पते के साथ ‘पूर्ण महाकुंभ रबड़ी ने मचा दी धूम’ लिखा है।

रबड़ी वाले बाबा कहते हैं कि 2019 हरिद्वार कुंभ से उन्होंने रबड़ी बनाना शुरू की थी। यहां हर दिन 200 लीटर दूध से रबड़ी बनाते हैं। अखाड़े के मंदिर में इसी रबड़ी का भोग लगाया जाता है।

रोज 200 लीटर दूध की रबड़ी बनाते हैं रबड़ी वाले बाबा।

अखाड़े के अंदर फूस की कुटिया महानिर्वाणी अखाड़े के अंदर बहुत सारी कतार में एक जैसी बनीं घास-फूस की कुटिया बनी हैं। इन कुटिया को मढ़ी कहते हैं। इन मढ़ियों में नागा रहते हैं। जैसे घरों के आगे नेमप्लेट लगी रहती है वैसे ही इन मढ़ियों के आगे तख्ती पर इनके नाम लिखे हैं। जैसे मढ़ी-चार, मढ़ी-मुल्तानी, मढ़ी-बैकुंठी, मढ़ी दस-चार, मढ़ी सहजावत पुष्कर, मढ़ी दस-छह मढ़ी।

यह सब थोड़ा हैरान करने वाला है। इन मढ़िओं के बारे में अखाड़े के सचिव महंत यमुनापुरी कहते हैं कि ये जो आप देख रही हैं न ये तो बस आज एक प्रतीक भर है।

अखाड़ों में इनकी संख्या 52 होती है। हर नागा की एक मढ़ी होती है, इनके सामने ही नागा धूनी रमाते हैं। जब अखाड़े युद्ध करते थे। तब एक मढ़ी पूरी की पूरी सेना की एक बटालियन की तरह होती थी।

महंत यमुनापुरी कहते हैं कि संन्यासी परम्परा में प्रवेश करने के लिए सबसे पहले मढ़ियों में दीक्षा लेनी होती है। यहीं से संन्यासी बनने की पहली प्रक्रिया शुरू होती है।

अखाड़े के अंदर बनी फूस की कुटिया, जिन्हें नागा की मढ़ी कहते हैं।

अखाड़ों की 52 मढ़ियां 52 शक्ति पीठों की प्रतीक हैं। ये मढ़ियां चार मठों से जुड़ी हुई हैं। चार आम्नाय यानी पवित्र प्रथा हैं। जो चारों वेदों से भी संबंधित हैं। ये सब एक सूत्र में बंधे हुए हैं। ये सब शक्ति की प्रतीक हैं। मढ़ियों की व्यवस्था आज भी कायम है। मढ़ी के संत ही सभी पदों के लिए पदाधिकारियों को चुनते हैं।

महानिर्वाणी अखाड़े में प्रवेश लेने के लिए अटल अखाड़े जाना पड़ता है महंत यमुनापुरी बताते हैं कि आवाहन और अटल अखाड़ा महानिर्वाणी अखाड़े के बनने से पहले अस्तित्व में आ चुके थे। अखाड़ों में संन्यासी बढ़ने लगे और इनकी अलग-अलग बटालियन बनने लगी थीं।

उस समय धर्म रक्षा के लिए जो युद्ध होते थे उनमें जहां जैसी जरूरत होती थी, संन्यासी योद्धाओं को भेजा जाता था। इस वजह से एक अखाड़े से दूसरा, तीसरा, फिर चौथा ऐसे एक के बाद एक अखाड़ा बनते चले गए।

महानिर्वाण अखाड़े की खासियत है कि यहां किसी को प्रवेश लेना होता है तो वो पहले अटल अखाड़ा जाता है। दिगंबर बनने के लिए विजय होम महानिर्वाणी में ही होते हैं। महापुरुष की दीक्षा अटल अखाड़े में लेकर वह महानिर्वाणी अखाड़े में शामिल हो सकता है।

महानिर्वाणी अखाड़े के नाम का भी एक खास अर्थ है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मा को संसार के बंधनों से मुक्त कर महानिर्वाण यानी मोक्ष की ओर ले जाना है।

कुंभ के दौरान अखाड़े के नागा साधु शस्त्र चलाने का प्रदर्शन खूब करते हैं। यह परंपरा इस बात का प्रतीक है कि साधु केवल ध्यान और तप के लिए नहीं हैं, बल्कि वे हथियार चलाने में भी माहिर हैं।

खेती, स्कूल-कॉलेज, चढ़ावा से चलता है महानिर्वाणी अखाड़े का खर्च महानिर्वाणी अखाड़े के पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। महंत यमुनापुरी कहते हैं कि पहले मुगलों से लड़ने के लिए नागा बाबा हिंदू राजाओं का साथ देते थे। युद्ध में जीतने पर हमें इनाम में 32 गांव, 25 गांव और जागीर मिलती थी। हाथी, घोड़े और ऊंट भी मिलते थे।

देश की आजादी के बाद जैसे राजे-रजवाड़ों की जमीनें चली गई वैसे ही धर्म से जुड़े लोगों की भी जमीनें चली गईं। हालांकि महानिर्वाणी अखाड़े के पास आज भी कई जगह बहुत खेती-बाड़ी है। इसके अलावा, स्कूल, कॉलेज, गौशालाएं और नेत्र चिकित्सालय भी है। हमारे मंदिर भी हैं। यहां जो चढ़ावा आता है उससे खर्च चलता है।

महानिर्वाणी अखाड़े के दो ध्वज महानिर्वाणी अखाड़ा एक मामले में दूसरे अखाड़ों से अलग है। बाकी सभी अखाड़ों की धर्म ध्वजा एक है लेकिन यहां दो ध्वजाएं हैं। एक नाम धर्म ध्वजा है तो दूसरी को पर्व ध्वजा। धर्म ध्वजा पेशवाई के बाद लगाई जाती है।

महंत रविंदर पुरी बताते हैं कि दो ध्वजा की वजह यह है कि कुंभ में ही अखाड़ों की धर्म ध्वजा फहराई जाती है। अकबर के बेटों ने कुंभ पर आक्रमण किया। महानिर्वाणी अखाड़े के नेतृत्व में उस वक्त संन्यासियों ने चार गुटों में बंटकर सबसे पहले किले पर आक्रमण किया। एक ग्रुप ने सबसे पहले किले पर पर्व ध्वजा स्थापित की। तभी से यह रवायत चलती आ रही है।

महानिर्वाणी अखाड़े की धर्म और पर्व ध्वजा।

महानिर्वाणी अखाड़े में पेशवाई के बाद सबसे पहले धर्म ध्वजा स्थापित की जाती है और उसके बाद पहले शाही स्नान से पहले रात के दो बजे पर्व ध्वजा स्थापित की जाती है। इसके बाद हम शाही स्नान करने के लिए जाते हैं।

महंत रविंदर पुरी बताते हैं कि इसके बाद हम राजा के किले में जाकर एलान करते हैं कि हमने पर्व ध्वजा स्थापित कर दी है। इसके यह मायने हैं कि हम आ रहे हैं रोक सको तो रोक लो। यह एक प्रकार की चुनौती होती है।

सबसे पहले हुआ महानिर्वाणी अखाड़े का रजिस्ट्रेशन रविंद्र पुरी यह भी कहते हैं कि महानिर्वाणी अखाड़े का टेंट सबसे पहले लगने की वजह और पहला स्नान होने की वजह यह है कि महानिर्वाणी अखाड़े का रजिस्ट्रेशन सबसे पहले हुआ है।

शाही स्नान में सबसे पहले दो भालों को भी स्नान करवाया जाता है। शक्ति स्वरूप इन भालों का नाम भैरव प्रकाश और सूर्य प्रकाश है। अखाड़े में इनको मंदिर के अंदर इष्ट देव के पास रखा जाता है। इष्ट देव के साथ ही शक्ति स्वरूप दोनों भालों की भी पूजा की जाती है। शाही स्नान की यात्रा में सबसे आगे अखाड़े के दो संत इन शक्ति स्वरूप भालों को लेकर चलते हैं।

यहां के एक नागा सुरेंद्र पुरी बहुत ही कम बोलते हैं। कई घंटों तक ध्यान करते हैं। मुश्किल से बात करने राजी हुए। उनसे अखाड़े से जुड़ने की वजह पूछी? उन्होंने कहा, महानिर्वाणी में आने से पहले वे सभी अखाड़ों में गए लेकिन कहीं मन नहीं लगा। इस अखाड़े के इष्टदेव कपिलमुनी महाराज हैं। उनके तप से मां गंगा धरती पर उतरीं। लगा कि ज्ञान के जिस मुनि ने सांख्य शास्त्र की रचना की उसका अखाड़ा ही सबसे सही है। इसलिए यहां आ गया।

महंत सुरेंद्र पुरी कहते हैं हमारी सभी व्यवस्थाएं अखाड़ा ही करता है। हम किसी से मांग नहीं सकते।

महंत सुरेंद्र पुरी के अनुसार महानिर्वाणी अखाड़े नागा, साधु और पदाधिकारी मर्यादा और अनुशासन में रहते हैं।अगर किसी ने जरा सी भी मर्यादा तोड़ी उसे अखाड़े से निकाल दिया जाता है।

चूल्हे में ही बनता है साधु संतों का भोजन श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े में आज भी भंडारे के अंदर खाना बनाने के लिए प्राकृतिक साधनों का इस्तेमाल किया जाता है। अखाड़े की गोशाला की गायों के गोबर से बने कंडे और लकड़ी के इस्तेमाल से चूल्हे में साधु-संतों के लिए भोजन बनाया जाता है।

अखाड़े में भंडारे के अंदर साधु-संतों की निगरानी में सात्विक और पौष्टिक भोजन तैयार किया जाता है। अखाड़े में औषधीय पौधों के साथ ही फल देने वाले पेड़ भी लगाए गए हैं। साधु-संत ही इन पेड़ पौधों की देखभाल करते हैं।