अकबर इलाहाबादी:’हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है’ लिखने वाले शायर | Akbar Allahabadi 176 birth anniversary akbar allahabadi famous shayari | Patrika News

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अकबर इलाहाबादी:’हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है’ लिखने वाले शायर | Akbar Allahabadi 176 birth anniversary akbar allahabadi famous shayari | Patrika News

अकबर इलाहाबादी:’हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है’ लिखने वाले शायर | Akbar Allahabadi 176 birth anniversary akbar allahabadi famous shayari | Patrika News

हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम

वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।

सैयद अकबर हुसैन जिनके नाम के साथ इलाहाबाद ऐसा जुड़ा कि उनको दुनिया अकबर इलाहाबादी के नाम से जानती है। इलाहाबाद के इस शायर की आज, 16 नवंबर को 176वीं जयंती है। 1884 में पैदा हुए अकबर इलाहाबादी उर्दू अदब के उन शुरुआती शायरों में शामिल हैं, जिन्होंने अपने तंजो मिजाह और आसान लब्जों से शायरी को आम लोगों तक पहुंचाया। एक नमूना देखिए-

इश्क के इजहार में हर-चंद ही रुसवाई है

पर क्या करूं तबीयत आप पर ही आई है।

उनका ये शेर भी देखिए-

दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं

बाज़ार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं।

अकबर यानी आम-ओ-खास सबके शायर

अकबर इलाहाबादी के शेरों की तारीफ ये है कि उनके शेर नुक्कड़ पर बैठे किसी आम इंसान को भी याद रहते हैं तो बुद्धिजीवियों के जलसों में भी पढ़े जाते हैं। उनके शेर जाम झलकाते हुए सुने जाते हैं तो इंकलाबी तकरीरों में भी कहे जाते हैं। अकबर इलाहाबादी के बारे में अगर इलाहाबाद की जुबान में कहा जाए तो वो बकैतों के भी हैं और अदीबों के भी। उनके ये दो शेर मेरी बात की ताकीद करेंगे-

हया से सिर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना

हसीनों को कितना सहल है बिजली गिरा देना

वहीं अकबर इलाहाबादी जब बदलते वक्त की बात करते हैं तो वो कहते हैं-

ना खीचों कमानों को ना तलवार निकालों

जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।

और जब बात जाम झलकाते हुए सुने जाने वाले किसी कलाम की हो तो अकबर इलाहाबादी की एक गजल उसमें सबसे ऊपर है- गजल का पहला शेर कुछ यूं है-

हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है

डाका तो नहीं मारा, चोरी तो नहीं की है।

उनका ये शेर भी पढ़िए-

जब गम हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी

मुल्ला की दौड़ मस्जिद, अकबर की दौड़ भट्टी

अदालत में रहकर वकीलों को लिखा शैतान की औलाद

अकबर इलाहाबादी 1867 में वकालत की पढ़ाई करने के बाद कोर्ट में वकील हो गए। कुछ साल वकालत की और फिर हाईकोर्ट में मुंसिफ का पद पा गए। अदालत में वकालत और नौकरी करते हुए वकीलों के लिए अकबर इलाहाबादी ने जो कहा, वो शायद वही लिख सकते थे। उन्होंने शेर लिखा-

पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा

लो हम भी आज साहिबे-औलाद हो गए

अंग्रेजों की नौकरी भी की, शायरी में तेवर भी दिखाते रहे

अकबर इलाहाबादी तरक्की करते हुए 1888 सबऑर्डिनेट जज बने और 1905 में सेशन जज के पद से रिटायर हुए। अंग्रेज सरकार ने उनके कामकाज के लिए उनको खान बहादुर का खिताब दिया था।

जज की नौकरी और सरकार से खिताब, ऐसा लगता है कि कोई एकदम सरकार के इशारे पर चलने वाला आदमी होगा। लेकिन अकबर इलाहाबादी के लिए ऐसा नहीं था। उनकी शायरी में उस वक्त की सरकार के लिए गुस्सा खूब दिखता है। वो लिखते हैं-

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ

रंज बहुत है लीडर को मगर आराम के साथ।

ये शेर देखिए-

क्या गनीमत नहीं ये आजादी

साँस लेते हैं, बात करते हैं।

किसी जज के बारे में सोचते हैं तो उसकी छवि एक धीर-गंभीर शख्स की भी बनती है। अकबर इलाहाबादी किस मिजाज के थे। ये जानने को जरा सबेरात पर एक दोस्त की ओर से तोहफे की मांग पर कहे गए उनके शेर को सुनिए-

सबेरात पर तोहफा तुम्हें क्या भेजूं

मेरी जां तुम तो खुद पटाखा हो।

एक और शेर में लिखते हैं-

मय भी होटल में पियो

चंदा भी दो मस्जिद में

शेख़ भी खुश रहे

शैतान भी बेज़ार ना हो

सुल्तान की फौज नहीं बीवी की नौज से हुए घायल

अकबर इलाहाबादी की पहली शादी 15-16 साल की उम्र में हो गई थी। अकबर को शादी के बाद एक तवायफ बूटा जान से इश्क हुआ और उन्होंने बूटा जान से शादी कर ली। अपनी बीवी के लिए उन्होंने लिखा-

अकबर दबे नहीं किसी सुल्तान की फौज से

लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से।

तन्जो मिजाह ने दी अलग ही पहचान

अकबर इलाहाबादी ने यूं तो बहुत लिखा है लेकिन उनको सबसे ज्यादा शोहरत तन्जो मिजाह यानी मजाकिया शायरी से मिली है। उनके इस अंदाज में लिखे शेर बेहद मशहूर हैं। वो लिखते हैं-

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए

बीए किया नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए।

बच्चे में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की

दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की।

जिधर साहब उधर दौलत जिधर दौलत उधर चन्दा

जिधर चन्दा उधर ऑनर जिधर ऑनर उधर बन्दा।

चार दिन की जिंदगी है, कोफ्त से क्या फायदा

खा डबलरोटी, क्लर्की कर, खुशी से फूल जा

उनकी इस रोमांटिक शैली को भी देखिए-

जो कहा मैंने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर

हंस के कहने लगा और आप को आता क्या है।

मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट

इल्मी मुबाहिसे हों ज़रा पास आ के लेट।

लिपट भी जा ना रुक अकबर गजब की ब्यूटी है

नहीं नहीं पे ना जा ये हया की ड्यूटी है।

मजहबी कट्टरता के थे खिलाफ

अंग्रेजों के शासन के वक्त हिन्दू मुस्लिम में बढ़ती खाई और मजहबी बहसों से अकबर इलाहाबादी खुश नहीं थे। वो इसके पीछे अंग्रेजों की कारस्तानी मानते थे। इस दुख से निकले उनकी ये रुबाई देखिए-

ये बात गलत कि दारुल-इस्लाम है हिन्द

ये झूठ कि मुल्क-ए-लछमन-ओ-राम है हिन्द।

हम सब मुती-ओ-खैर-ख्वाह-ए-इंग्लिश

यूरोप के लिए बस एक गोदाम है हिन्द।।

उनके ये 2 शेर भी पढ़िए-

आप क्या जानें क़द्र-ए-या-अल्लाह

जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं।

मजहबी बहस मैंने की ही नहीं

फालतू अक्ल मुझमें थी ही नहीं।।

ये शेर भी पढ़ा जाए-

शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें

मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें

पर्दाप्रथा पर लिखी थी इंकलाबी नज्म

पर्दा, घूघंट, औरतों की आजादी जैसे मुद्दों पर आज खूब बात होती है। अकबर इलाहाबादी ने करीब सवा सौ साल पहले पर्दा करने के रिवाज और औरतों को कामकाज के मौके ना मिलने को लेकर जो लिखा, वो पढ़ने लायक है। उनका नज्म है-

बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक

बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक

हरम-सरा की हिफ़ाजत को तेग़ ही न रही

तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक

मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फर्ज़ मगर

मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक

तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में

यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक

जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस

छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक

जनाबे हज़रते ‘अकबर’ हैं हामिए-पर्दा

मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक

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