UP Politics: यूपी में 22% दलित वोट, इस बार 13 फीसदी मिला वोट, छिटकता कोर वोटर आगे के चुनाव में बसपा की बढ़ा सकता है मुसीबत h3>
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे सबसे ज्यादा बसपा के लिए चुनौती बढ़ाने वाले दिखाई दे रहे हैं। दलितों में खासतौर से जाटव उनके साथ पूरी मजबूती से खड़े रहते थे, लेकिन इस बार के चुनाव में वह छिटकते हुए दिखाई दिए हैं। अगर मायावती (Mayawati) ने अपने कोर वोट बैंक को दरकने से नहीं बचाया तो आगे आने वाले चुनावों में उनकी मुसीबत और बढ़ जाएगी।
इस बार यूपी चुनाव में मात्र बसपा को 13 फीसदी दलित वोट मिला
यूपी में लगभग 22 प्रतिशत दलित हैं। बसपा को इस बार तकरीबन कुल 13 प्रतिशत वोट मिले हैं। यह वोट प्रतिशत 1993 के बाद सबसे कम है। वहीं, एक सीट के साथ वह अब तक के अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गई है। इससे साफ है कि पार्टी का अपना बेस वोटर भी पार्टी से दूर हो गया है। आने वाले समय में बसपा का राजनीतिक रास्ता बहुत मुश्किल भरा है। उनके सामने राष्ट्रीय पार्टी के दर्जा के अलावा विधानमंडल से लेकर संसद तक में प्रतिनिधित्व का संकट खड़ा हो गया है।
दलित बहुल सीटों पर बसपा को ज्यादा नहीं मिला वोट
बसपा का अस्तित्व उसके बेस वोट बैंक दलितों से ही रहा है। मायावती 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मण और मुस्लिम को भी जोड़कर सरकार बनाने में कामयाब रहीं, लेकिन पार्टी में इनके बढ़ते दबदबे से दलितों और पिछड़ों का एक वर्ग बसपा से छिटक गया। यही कारण रहा कि 2014 आते-आते बसपा के 10 प्रतिशत से ज्यादा वोट खिसक गए। 80 लोकसभा सीटों पर पार्टी को कुछ-कुछ वोट मिला, लेकिन दलित बहुल सीटों पर भी इतना नहीं मिला कि एक भी सांसद जीतता। जैसे ही सवर्ण अलग हुए तो वह 2012 में सत्ता से बाहर हो गई। उसके बाद से लगातार बसपा का ग्राफ गिरता ही चला गया। धीरे-धीरे बड़े पिछड़े चेहरे बसपा से बाहर होते गए तो वह वोट बैंक चला गया। यह वोट प्रतिशत 2014 के लोकसभा चुनाव में 19.6 प्रतिशत रह गया और एक भी लोकसभा सीट हासिल नहीं कर पाई। उसके बाद 2019 में वोट प्रतिशत में तो इजाफा नहीं हुआ, लेकिन सपा के साथ गठबंधन का फायदा मिला और 10 सीटें पार्टी ने जीतीं।
अब तक सुरक्षित सीट पर बसपा का प्रदर्शन
2017 में बसपा 22.24 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई। इस बार वोट प्रतिशत 13 रह गया और एक सीट ही हासिल कर पाई। यहां तक की आरक्षित 86 सीटों पर भी बसपा का लगातार प्रदर्शन खराब हो रहा है। वर्ष 2007 में 62 सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाने वाली बसपा अबकी एक भी ऐसी सीट पर जीत दर्ज नहीं करा सकी। पिछले चुनाव में जहां दो सुरक्षित सीटें पार्टी को मिली थीं। वहीं, 2012 के चुनाव में 17, 2002 में 21, 1996 में 22, 1993 में 24 सीटों पर दलितों के दम पर ही बसपा का परचम लहराया था। अगर दलित बसपा के साथ अब भी रहते तो पार्टी दलितों के क्षेत्र आगरा में तीसरे पायदान पर न खिसक जाती। एक दशक में ही उसके सवा लाख वोट न घट जाते।
दलित बसपा से कहीं नहीं जाएंगे सोच पड़ी भारी
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि मायावती 2012 चुनाव हारने के बाद बड़ी उम्मीद थी कि 2017 में उनकी सरकार फिर आ जाएगी, क्योंकि यह यूपी का चुनावी इतिहास रहा है। इसके अलावा इनका परंपरागत दलित वोट उन्हें कहीं छोड़कर नहीं जाएंगे। यह दोनों बातें इनके खिलाफ चली गईं, क्योंकि दलितों को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा ने बहुत कोशिश की।
मायावती को दलितों को अपने पाले में लाना अब मुश्किल दिख रहा है
सपा की दलित विरोधी छवि बनी हुई है। 2007 की माया सरकार में वर्चस्व पिछड़े, मुस्लिम और ब्राह्मणों का था। उस समय उन्होंने कोई मजबूत दलित चेहरा नहीं बनाया, क्योंकि उन्हें लगता था कि वह राष्ट्रीय राजनीति पर जाएंगी। उधर, भाजपा ने दलित के लिए बहुत सारी योजनाएं चलाईं। इनका समर्थन 2014 में देखने को मिला। फिर 2017 में साथ दिया। इसके बाद 2019 में मायावती ने जब सपा के साथ गठबंधन किया तो दलित वोट उनसे छिटक गया। 2022 में दलित मायावती की बातों में नहीं आए, यह वोट बैंक उनसे छिटक गया। अब मायावती को इनको अपने पाले में ला पाना बहुत मुश्किल होगा। 2024 की तैयारी के लिए मायावती ने नॉन दलितों को पोस्टों से हटा दिया। इसके अलावा अपने परिवार के लोगों को जिम्मेदारी दी है। आने वाले समय में सतीश चन्द्र मिश्रा की जिम्मेदारी कम हो सकती है। जब तक भाजपा सरकार पर दलित विरोधी का ठप्पा नहीं लगेगा, तब तक इनके पाले में आना बहुत मुश्किल होगा।
राजनीति की और खबर देखने के लिए यहाँ क्लिक करे – राजनीति
News
यूपी में लगभग 22 प्रतिशत दलित हैं। बसपा को इस बार तकरीबन कुल 13 प्रतिशत वोट मिले हैं। यह वोट प्रतिशत 1993 के बाद सबसे कम है। वहीं, एक सीट के साथ वह अब तक के अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गई है। इससे साफ है कि पार्टी का अपना बेस वोटर भी पार्टी से दूर हो गया है। आने वाले समय में बसपा का राजनीतिक रास्ता बहुत मुश्किल भरा है। उनके सामने राष्ट्रीय पार्टी के दर्जा के अलावा विधानमंडल से लेकर संसद तक में प्रतिनिधित्व का संकट खड़ा हो गया है।
दलित बहुल सीटों पर बसपा को ज्यादा नहीं मिला वोट
बसपा का अस्तित्व उसके बेस वोट बैंक दलितों से ही रहा है। मायावती 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मण और मुस्लिम को भी जोड़कर सरकार बनाने में कामयाब रहीं, लेकिन पार्टी में इनके बढ़ते दबदबे से दलितों और पिछड़ों का एक वर्ग बसपा से छिटक गया। यही कारण रहा कि 2014 आते-आते बसपा के 10 प्रतिशत से ज्यादा वोट खिसक गए। 80 लोकसभा सीटों पर पार्टी को कुछ-कुछ वोट मिला, लेकिन दलित बहुल सीटों पर भी इतना नहीं मिला कि एक भी सांसद जीतता। जैसे ही सवर्ण अलग हुए तो वह 2012 में सत्ता से बाहर हो गई। उसके बाद से लगातार बसपा का ग्राफ गिरता ही चला गया। धीरे-धीरे बड़े पिछड़े चेहरे बसपा से बाहर होते गए तो वह वोट बैंक चला गया। यह वोट प्रतिशत 2014 के लोकसभा चुनाव में 19.6 प्रतिशत रह गया और एक भी लोकसभा सीट हासिल नहीं कर पाई। उसके बाद 2019 में वोट प्रतिशत में तो इजाफा नहीं हुआ, लेकिन सपा के साथ गठबंधन का फायदा मिला और 10 सीटें पार्टी ने जीतीं।
अब तक सुरक्षित सीट पर बसपा का प्रदर्शन
2017 में बसपा 22.24 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई। इस बार वोट प्रतिशत 13 रह गया और एक सीट ही हासिल कर पाई। यहां तक की आरक्षित 86 सीटों पर भी बसपा का लगातार प्रदर्शन खराब हो रहा है। वर्ष 2007 में 62 सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाने वाली बसपा अबकी एक भी ऐसी सीट पर जीत दर्ज नहीं करा सकी। पिछले चुनाव में जहां दो सुरक्षित सीटें पार्टी को मिली थीं। वहीं, 2012 के चुनाव में 17, 2002 में 21, 1996 में 22, 1993 में 24 सीटों पर दलितों के दम पर ही बसपा का परचम लहराया था। अगर दलित बसपा के साथ अब भी रहते तो पार्टी दलितों के क्षेत्र आगरा में तीसरे पायदान पर न खिसक जाती। एक दशक में ही उसके सवा लाख वोट न घट जाते।
दलित बसपा से कहीं नहीं जाएंगे सोच पड़ी भारी
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि मायावती 2012 चुनाव हारने के बाद बड़ी उम्मीद थी कि 2017 में उनकी सरकार फिर आ जाएगी, क्योंकि यह यूपी का चुनावी इतिहास रहा है। इसके अलावा इनका परंपरागत दलित वोट उन्हें कहीं छोड़कर नहीं जाएंगे। यह दोनों बातें इनके खिलाफ चली गईं, क्योंकि दलितों को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा ने बहुत कोशिश की।
मायावती को दलितों को अपने पाले में लाना अब मुश्किल दिख रहा है
सपा की दलित विरोधी छवि बनी हुई है। 2007 की माया सरकार में वर्चस्व पिछड़े, मुस्लिम और ब्राह्मणों का था। उस समय उन्होंने कोई मजबूत दलित चेहरा नहीं बनाया, क्योंकि उन्हें लगता था कि वह राष्ट्रीय राजनीति पर जाएंगी। उधर, भाजपा ने दलित के लिए बहुत सारी योजनाएं चलाईं। इनका समर्थन 2014 में देखने को मिला। फिर 2017 में साथ दिया। इसके बाद 2019 में मायावती ने जब सपा के साथ गठबंधन किया तो दलित वोट उनसे छिटक गया। 2022 में दलित मायावती की बातों में नहीं आए, यह वोट बैंक उनसे छिटक गया। अब मायावती को इनको अपने पाले में ला पाना बहुत मुश्किल होगा। 2024 की तैयारी के लिए मायावती ने नॉन दलितों को पोस्टों से हटा दिया। इसके अलावा अपने परिवार के लोगों को जिम्मेदारी दी है। आने वाले समय में सतीश चन्द्र मिश्रा की जिम्मेदारी कम हो सकती है। जब तक भाजपा सरकार पर दलित विरोधी का ठप्पा नहीं लगेगा, तब तक इनके पाले में आना बहुत मुश्किल होगा।
News