UP Election Result 2022: कट गया बेस वोट बैंक, सबसे खराब दौर में पहुंची मायावती की बहुजन समाज पार्टी h3>
लखनऊ : यूपी विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election Result) का परिणाम बहुजन समाज पार्टी (BSP) के लिए चौंकाने वाला है। प्रदेश में 22 प्रतिशत दलित वोटर हैं। बसपा को इस बार कुल लगभग 13% वोट मिले और 1993 के बाद का सबसे कम आंकड़ा है। वहीं एक सीट के साथ बसपा अब तक के अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गई। इससे साफ है कि पार्टी का बेस वोटर उससे दूर हो गया है। ऐसे में बसपा की आगे की राह भी बहुत मुश्किल होगी। वह राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खो सकती है और विधान परिषद से लेकर संसद तक में पार्टी के प्रतिनिधित्व पर संकट खड़ा हो गया है।
बसपा का अस्तित्व उसके बेस वोटर दलितों से रहा है। कांशीराम ने दलितों के साथ अतिपिछड़ा वर्ग को जोड़ा तो उसके बाद बसपा सत्ता तक पहुंची। 2007 में ब्राह्मण और अन्य सवर्ण जुड़े तो बसपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई। सवर्ण अलग हुए तो पार्टी 2012 में सत्ता से बाहर हो गई और तब से उसका ग्राफ गिरता ही चला गया। धीरे-धीरे बड़े ओबीसी चेहरे बसपा से बाहर होते गए, तो वह वोट बैंक भी चला गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 19.60% वोट मिले और पार्टी एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई। 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के वोट प्रतिशत में तो इजाफा नहीं हुआ, लेकिन सपा के साथ गठबंधन का फायदा मिला। बसपा ने 10 सीटें जीतीं। 2017 के विस चुनाव में बसपा 22.24% वोटों के साथ सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई। इस बार एक सीट के साथ वोट प्रतिशत 13 ही रह गया।
इस हाल की कई वजहें
जाते रहे पुराने नेता: पार्टी ने समय के अनुसार अपने तौर-तरीकों में बदलाव नहीं किया। पुराने नेताओं में नाराजगी बढ़ती गई और वे पार्टी छोड़ते गए। ऐसे में पार्टी के पास बड़े चेहरे नहीं रहे।
प्रचार में पीछे : इस बार चुनाव प्रचार की कमान सिर्फ सतीश चंद्र मिश्र के हवाले रही। बसपा प्रमुख मायावती खुद अंतिम समय में सभाएं करने के लिए बाहर निकलीं। डिजिटल प्रचार में भी बसपा पीछे रही। वहीं, टिकट बेचने के आरोप लगते रहे। वहीं कई प्रत्याशी अंतिम समय में बदले और उनको प्रचार का मौका नहीं मिला।
गलत संदेश : अमित शाह और मायावती की ओर से एक-दूसरे की तारीफ के बयान आए। इससे वोटरों में यह संदेश चला गया कि भाजपा और बसपा आपस में मिलकर लड़ रही हैं। नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों को भारी संख्या में टिकट देने के बावजूद एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं जीत सका।
कटते गए बेस वोटर : दलित वोटरों में भाजपा ने 2014 से ही सेंध लगानी शुरू कर दी थी। खासकर गैर जाटव दलितों को अपने पाले में लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। रिजर्व सीटों के अलावा भी दलितों को टिकट दिए। भाजपा ने कई लाभार्थी योजनाएं भी शुरू कीं। इस चुनाव में भाजपा ने इन योजनाओं का और ज्यादा प्रचार किया।
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इस हाल की कई वजहें
जाते रहे पुराने नेता: पार्टी ने समय के अनुसार अपने तौर-तरीकों में बदलाव नहीं किया। पुराने नेताओं में नाराजगी बढ़ती गई और वे पार्टी छोड़ते गए। ऐसे में पार्टी के पास बड़े चेहरे नहीं रहे।
प्रचार में पीछे : इस बार चुनाव प्रचार की कमान सिर्फ सतीश चंद्र मिश्र के हवाले रही। बसपा प्रमुख मायावती खुद अंतिम समय में सभाएं करने के लिए बाहर निकलीं। डिजिटल प्रचार में भी बसपा पीछे रही। वहीं, टिकट बेचने के आरोप लगते रहे। वहीं कई प्रत्याशी अंतिम समय में बदले और उनको प्रचार का मौका नहीं मिला।
गलत संदेश : अमित शाह और मायावती की ओर से एक-दूसरे की तारीफ के बयान आए। इससे वोटरों में यह संदेश चला गया कि भाजपा और बसपा आपस में मिलकर लड़ रही हैं। नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों को भारी संख्या में टिकट देने के बावजूद एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं जीत सका।
कटते गए बेस वोटर : दलित वोटरों में भाजपा ने 2014 से ही सेंध लगानी शुरू कर दी थी। खासकर गैर जाटव दलितों को अपने पाले में लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। रिजर्व सीटों के अलावा भी दलितों को टिकट दिए। भाजपा ने कई लाभार्थी योजनाएं भी शुरू कीं। इस चुनाव में भाजपा ने इन योजनाओं का और ज्यादा प्रचार किया।
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