क्या थी एलेक्जेंडर द ग्रेट और नागा साधु की कहानी?

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एलेक्जेंड को सिकंदर के तोर पर भी जाना जाता था। एलेक्जेंड एक ज्ञानी आदमी की खोज में दिन -रात घूम रहा था जिसे वो अपने साथ ले जाए। कुछ लोगों के बताने पर वह एक संत की खोज में अपनी फौज के साथ एक नगर में पहुंचा। वहां उसने देखा कि नागा बाबा बिना कपड़ों के पेड़ के नीचे ध्यान में लीन था। एलेक्जेंडर और उसकी फौज ने संत के ध्यान से बाहर आने तक इंतजार किया। जैसे ही संत का ध्यान टूटा, पूरी फौज एक स्वर में नारे लगाने लगी- ‘एलेक्जेंडर द ग्रेट! एलेक्जेंडर द ग्रेट!’ संत उन्हें देखकर मुस्कराया।

एलेक्जेंडर ने संत को बताया कि वह उन्हें अपने साथ अपने देश लेकर जाना चाहता है। संत ने बेहद धीमे स्वर में जवाब दिया, ‘तुम्हारे पास ऐसा कुछ नहीं है जो तुम मुझे दे सको। मैं जहां-जैसा हूं, खुश हूं। मुझे यहीं रहना है। मैं तुम्हारे साथ नहीं आ रहा।’ एलेक्जेंडर की फौज को इस बात से गुस्सा आ गया। उनके राजा की इच्छा को एक मामूली संत ने खारिज जो कर दिया था। एलेक्जेंडर ने अपनी फौज को शांत किया और संत से बोला ‘मुझे जवाब में ‘नहीं’ सुनने की आदत नहीं है। संत बिना किसी भय के बोले मेरा जीवन है मेरी मर्ज़ी की में कहा जाऊ और कहा नहीं।

यह सुनकर सिकंदर गुस्से से लाल हो गया, और उसने फौरन अपनी तलवार निकालकर बाबा के गले में सटा दी। बाबा अब भी शांत थे। उन्होंने कहा, मैं तो कहीं नहीं जा रहा। अगर तुम मुझे मारना चाहते हो, तो मार दो। मगर आज के बाद से कभी अपने नाम के साथ ‘महान’ शब्द का प्रयोग मत करना। तुम तो मेरे गुलाम के भी गुलाम हो!

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तुम्हारा क्या मतलब है, सिकंदर ने क्रोधित होते हुए पूछा, बाबा बोले, क्रोध मेरा गुलाम है। मैं जब तक नहीं चाहता, मुझे क्रोध नहीं आता। पर तुम क्रोध के गुलाम हो। तुमने कई योद्धाओं को पराजित किया होगा, पर क्रोध से नहीं जीत पाए। बाबा की बातें सुनकर सिकंदर दांग रह गया और साधु के सामने अपना सर झुकाया और अपनी फौज के साथ वापस लौट गया। इस तरह एक नागा साधु ने सिकंदर द ग्रेट को हरा दिया।