आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के बड़े फैसले पर विश्लेषण

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आरक्षण, एक ऐसा मुद्दा जो काफी चर्चा का विषय रहा है. उस पर अभी सुप्रीम कोर्ट ने नैनीताल हाई कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए कहा कि पदोन्नति में आरक्षण संवैधानिक अधिकार नहीं है और यह सरकार के विवेक पर निर्भर करता है.
पदोन्नति में आरक्षण , इस मुद्दे को अच्छे से समझने के लिए कुछ समय पहले चलते हैं. बात करते हैं 1992 की. 16 नवंबर,1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य में अनुच्छेद 16 (4) के तहत निर्णय देते हुए कहा कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था केवल मूल पद पर नियुक्ति तक ही सीमित है। इसका मतलब ये है कि आरक्षण का दायरा सिर्फ नौकरी पाने तक सीमित है. और प्रमोशन में आरक्षण असंवैधानिक है। इसके साथ ही ये भी कहा कि SC/ST आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की जरुरत नहीं है.

चलो अब ये भी देख लेते हैं कि क्रीमी लेयर क्या है ? क्रीमी लेयर में सरकार तय करती है कि आपकी आय इतने से ज्यादा है तो आप क्रीमी लेयर में आते हैं. क्रीमी लेयर को आरक्षण का लाभ मिले या नहीं ये बहस का विषय रहा है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंदिरा साहनी केस में प्रमोशन में आरक्षण को असंवैधानिक बताने के बाद सरकार ने ये मानते हुए कि इससे SC / ST समुदाय पर प्रतिकूल प्रभाव होगा और अभी इस समुदाय के लोगों को बराबरी हासिल नहीं हुई है.सरकार ने संविधान में 77 वां संशोधन 1995 में किया . जिसमें अनुच्छेद 16 में (4A) नया क्लोज जोड़ा गया. जिसके अनुसार SC / ST समुदाय को पदोन्नति में आरक्षण मिलना शुरू हो गया.
इसके बाद 77 वें संविधान संशोधन की वैधानिकता पर सवाल उठाते हुए एक याचिका दायर की गई. यह केस M.Nagaraj और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य के नाम से जाना जाता है. 19 October, 2006 को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा 77 वें संशोधन 1995 में अनुच्छेद 16 में (4A) जो नया क्लोज जोड़ा गया था , उसको पूरी तरीके से संवैधानिक पाया गया. मगर यदि सरकार प्रमोशन में आरक्षण देती है तो इसके लिए 3 शर्त लगा दी.

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  1. आपको backword दिखाना पड़ेगा.(data ke sath)
  2. उच्च पदों में representation
  3. विभाग के काम की गुणवत्ता प्रभावित नहीं होनी चाहिए.
    इस फैसले के बाद सरकार के लिए बहुत कठिन काम था कि इन तीनों शर्तों को पूरा करनें में बहुत दिक्कत आ रही थी.

इसके बाद jarnail Singh v/s Lachhmi Narain Gupta केस में मांग की गई. सितंबर,2018 में M.Nagaraj केस की सुनवाई 5 जज की पीठ ने की थी. दोबारा इस केस की सुनवाई 7 जजों की पीठ द्वारा की जाए. कोर्ट ने इस केस की सुनवाई 7 जजों की पीठ से कराने से तो मना कर दिया. लेकिन 1992 के इंदिरा साहनी केस और 2006 के M.Nagaraj केस के अपने फैसले में कुछ बदलाव किए.

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1992 इंदिरा साहनी केस में पिछले फैसले में बदलाव करते हुए कहा कि क्रीमी लेयर को कोटा नहीं मिलना चाहिए.
2006 M.Nagaraj केस में पिछले फैसले में बदलाव करते हुए कहा कि backword दिखाने के लिए data की जरुरत और विभाग के काम की गुणवत्ता प्रभावित होने वाली दोनों शर्तों को हटा लिया. सिर्फ एक शर्त को बरकरार रखा गया कि उच्च पदों में प्रतिनिधित्व data की सहायता से साबित करना होगा. य़ह बहुत आसान था क्योंकि SC/ ST समुदाय का उच्च पदों पर ज्यादा प्रतिनिधित्व नहीं है.


अभी देखते हैं कि वर्तमान में क्या मुद्दा है ?
उत्तराखंड में काफी समय से पदोन्नति पर रोक लगी हुई है क्योंकि 2012 में उत्तराखंड में राज्य सरकार ने सिर्फ नियुकि्त तक ही आरक्षण को सीमीत करते हुए, पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को खत्म करने का निर्णय लिया. इसके बाद यह केस नैनीताल हाई कोर्ट में पहुंचा और 1 अप्रैल, 2019 को नैनीताल हाई कोर्ट ने सरकार के फैसले पर रोक लगा दी थी और सरकार को आदेश दिया कि रिक्त पदों पर आरक्षण के तहत पदोन्नति करें. मतलब कि पदोन्नति में भी आरक्षण दे.
सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला में नैनीताल हाई कोर्ट के फैसले को अवैध घोषित करते हुए कहा है कि पदोन्नति में आरक्षण संवैधानिक अधिकार नहीं है और यह राज्य सरकार के विवेक पर निर्भर करता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से SC/ST कर्मचारी संगठनों को बड़ा झटका लगा है जबकि सामान्य वर्ग के कर्मचारियों को राहत मिली है।

इसके बाद विपक्ष ने लोकसभा में हंगामा किया तो केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया कि इस केस में केंद्र सरकार पक्षकार नहीं है.काग्रेस लगातार सरकार पर हमला कर राजनीतिक रोटीयां सेक रही है.पहली बात ये फैसला सरकार का नहीं सुप्रीम कोर्ट का है. दूसरा ये पदोन्नति में आरक्षण ना देना की शुरूआत उत्तराखंड में राज्य सरकार ने की थी. उस समय उत्तराखंड में काग्रेस की ही सरकार थी.
हमें उम्मीद है कि आप इस मुद्दे को अच्छे से समझ पाए होंगे.आपको हमारा ये analais कैसा लगा कमेंट करके जरुर बताएं.