NEWS4SOCIALएक्सप्लेनर- ट्रम्प टैरिफ से बाजार में तबाही: शेयर मार्केट में आया भूचाल, ₹19 लाख करोड़ डूबे; क्या मंदी की दस्तक, भारत को कितना खतरा h3>
सोमवार, 7 अप्रैल को शेयर मार्केट में साल की दूसरी सबसे बड़ी गिरावट आई। इसके कारण निवेशकों के करीब 19 लाख करोड़ रुपए डूब गए। जापान, हॉन्गकॉन्ग समेत अन्य एशियाई बाजारों में भी बड़ी गिरावट देखी गई है। ऐसे में इस दिन को ‘ब्लैक मंडे’ कहा जा रहा है।
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एक्सपर्ट्स का मानना है कि इस गिरावट की सबसे बड़ी वजह ट्रम्प का रेसिप्रोकल टैरिफ है। अनुमान लगाया जा रहा है कि 2025 के आखिर तक अमेरिका में आर्थिक मंदी आ सकती है।
NEWS4SOCIALएक्सप्लेनर में जानेंगे कि ये आर्थिक मंदी क्या होती है, कब आती है, इसका आम लोगों पर क्या असर और इसके नाम से इतना डरती है क्यों है दुनिया…
सवाल-1: आर्थिक मंदी क्या होती है?
जवाबः मंदी यानी किसी भी चीज का लंबे समय के लिए मंद या सुस्त पड़ जाना। जब किसी देश की अर्थव्यवस्था बढ़ने की बजाय लगातार दो-तीन तिमाही में घटने लगे तो इसे आर्थिक मंदी कहा जाता है।
किसी एक साल में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं की कुल वैल्यू को GDP कहते हैं। GDP के आंकड़े घटने लगें तो देश में मंदी के बादल मंडराने लगते हैं।
मंदी की स्थिति में महंगाई और बेरोजगारी तेजी से बढ़ती है। लोगों की आमदनी कम होने लगती है। शेयर बाजार में लगातार गिरावट दर्ज की जाती है, क्योंकि निवेशक पैसे लगाने से डरते हैं।
अर्थव्यवस्था एक क्वार्टर में गिरे, दूसरे में बढ़ने लगे और तीसरे में फिर गिर जाए तो इसे मंदी नहीं कहेंगे।
सवाल-2: कब आती है मंदी? महंगाई का मंदी से क्या रिश्ता?
जवाबः मान लीजिए समोसे के दाम बढ़ गए। हो सकता है आप समोसे खरीदना बंद कर दें। इससे समोसे बेचने वाले की आमदनी पर फर्क पड़ेगा, वो कम समोसे बनाएगा। इससे आलू और तेल की सप्लाई करने वालों पर असर पड़ेगा। किसी अर्थव्यवस्था में ऐसी बहुत सी इंटरकनेक्टेड चेन होती हैं।
किसी देश में इन्हीं इंटरकनेक्टेड चेन के डोमिनो इफेक्ट से मंदी आती है। ये एक विशियस साइकल होता है यानी एक ऐसा चक्र, जिसमें चीजें एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं।
अर्थशास्त्री एवं जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार बताते हैं, अगर इन्वेस्टर को लगता है कि भविष्य में अर्थव्यवस्था गिर सकती है तो वो निवेश कम कर देता है या बंद कर देता है। जब निवेश कम होता है तो डिमांड कम होती है। डिमांड घटने से चीजों के दाम नहीं बढ़ते। इससे प्रोडक्शन घटाकर सप्लाई कम कर दी जाती है। ये विशियस साइकिल तब तक चलता है, जब तक देश की अर्थव्यवस्था सिकुड़ न जाए।
सवाल-3: आर्थिक मंदी से आम लोगों पर क्या असर होता है?
जवाबः किसी देश के मंदी की चपेट में आने के कई खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। निवेश का माहौल बिगड़ सकता है। उपभोग और खरीद-बिक्री में कमी से कई कंपनियां बंद हो सकती हैं। इससे नौकरियां कम हो जाएंगी। आम लोग और कारोबारी आमदनी घटने से कर्ज नहीं चुका पाएंगे और बहुत से लोग दिवालिया भी हो सकते हैं।
सवाल-4: अमेरिका में मंदी की आशंका क्यों जताई जा रही?
जवाबः जानकार अनुमान लगा रहे थे कि कोरोना महामारी के बाद 2022 में ही अमेरिका में मंदी आएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ढाई साल गुजर गए, लेकिन अब हालात बिगड़ने शुरू हो गए हैं। अमेरिका में मंदी की आशंका के पीछे 3 बड़े संकेत हैं…
- US पेरोल डेटा के मुताबिक, अमेरिका में बेरोजगारी दर फरवरी में 4.1%थी। वॉल स्ट्रीट जर्नल के मुताबिक, छंटनी और नौकरी में कटौती के चलते बेरोजगारी अपने रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गए हैं। अनुमान है कि साल के आखिर तक 5 लाख नौकरियां खत्म हो सकती हैं।
- मिशिगन यूनिवर्सिटी के कंज्यूमर सेंटिमेंट इंडेक्स नवंबर 2022 के बाद से सबसे निचले स्तर पर आ गया है। मार्च 2025 में ये आंकड़ा 57 रहा। इसके जरिए कस्टमर्स और इन्वेस्टर्स के खर्च और निवेश का अनुमान लगाया जाता है।
- फाइनेंशियल सर्विस कंपनी जेपी मॉर्गन के सीनियर इकोनॉमिस्ट्स ने अमेरिका में मंदी आने की संभावना को 40% कर दिया है। अनुमान लगाया है कि 2025 के आखिर तक अमेरिका में मंदी आ सकती है।
सवाल-5ः अमेरिका में मंदी से दुनिया पर क्या असर पड़ेगा?
जवाबः अमेरिका, दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी है। उसके तार पूरी दुनिया से जुड़े हुए हैं। अगर अमेरिका मंदी की चपेट में आएगा तो दुनिया के एक बड़े हिस्से का प्रभावित होना तय है। जैसे- मंदी की आशंका भर से भारत समेत एशियाई शेयर बाजार तेजी से गिरे हैं।
अर्थशास्त्री एवं जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार के मुताबिक, चीन के मुकाबले भारत का अमेरिका से इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट बहुत ज्यादा है। अमेरिका से हमारा इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट सरप्लस है। इसका मतलब है कि हम अमेरिका को एक्सपोर्ट ज्यादा करते हैं। उनसे इम्पोर्ट कम करते हैं यानी बेचते ज्यादा हैं खरीदते कम हैं।
यही कारण है कि अमेरिका में मंदी आई तो हमारा एक्सपोर्ट भी प्रभावित होगा। हमारी डिमांड कम हो जाएगी। भारत की अर्थव्यवस्था में भी कमजोरी आएगी। इसका असर हमारी बचत पर बढ़ेगा। भारत को उसका बचत क्षेत्र ही बचाए हुए। जब बचत क्षेत्र में कमी होगी तो भारत की अर्थव्यवस्था में ज्यादा गिरावट हाेगी।
सवाल-6: अमेरिका में पहले कब-कब आई आर्थिक मंदी?
जवाबः अमेरिका कई बार मंदी की चपेट में आ चुका है। कुछ हालिया इंसीडेंट्स…
1. डबल-डिप मंदी (1981-82)
- 1979 में हुई ईरानी क्रांति के कारण ऑयल प्रोडक्शन में कमी आई और दुनिया भर में ऑयल की कीमतों में तेजी देखी गई।
- इन्फ्लेशन को कंट्रोल करने के लिए यूएसए ने सख्त मॉनेटरी पॉलिसी अपनाई थी, जिसने अमेरिका ने मंदी को जन्म दिया। ये बदलाव 1973 की ऑयल क्राइसिस और 1979 की एनर्जी क्राइसिस के कारण अमेरिका में हो रहे इन्फ्लेशन के कारण किए गए थे।
- इस दौरान अमेरिका में बेरोजगारी रेट 10.8% पर पहुंच गई। साथ अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ रेट माइनस में पहुंचकर -2.7% हो गई।
2. गल्फ वॉर मंदी (1990-91)
- 1990 के दशक की शुरुआत में ही अमेरिका को मंदी का सामना करना पड़ा। इसकी सबसे बड़ी वजह ईरान-इराक का युद्ध बना। इसके नतीजतन ऑयल की कीमतों में तेजी आई।
- यूएस फेडरल रिजर्व बोर्ड ने इन्फ्लेशन को कंट्रोल करने के लिए फेडरल फंड रेट को बढ़ा दिया। इसके कारण अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ रेट -1.4% हो गई और बेरोजगारी रेट 7.8% दर्ज की गई।
3. डॉट-बम मंदी (2001)
- टेक-कंपनियों में भारी निवेश के बाद अमेरिका के इतिहास सबसे बड़ा इकोनॉमिक विस्तार देखने को मिला। इससे बने डॉट-कॉम बबल या इंटरनेट बबल एकाएक टूट गया। साथ ही बिजनेस एक्सपेंडिचर और इन्वेस्टमेंट भारी गिरावट दर्ज की गई। 9/11 के हमले ने भी अमेरिका की ग्रोथ पर थोड़ी रोक लगाई।
- इन घटनाओं के कारण देश में आर्थिक उथल-पुथल मची, नतीजतन देश को मंदी का सामना करना पड़ा। इस दौरान अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ रेट -0.3% रही और बेरोजगारी रेट 6.3% दर्ज की गई।
4. महामंदी (2007-09)
- अमेरिका में मकानों और घरों की कीमतों हुई गिरावट ने ग्लोबल फाइनेंशियल क्राइसिस को जन्म दिया। वहीं तेल और खाद्य की कीमतें आसमान छू रही थीं। इस संकट में बियर स्टर्न्स, फ्रेडी मैक, लेहमैन ब्रदर्स, एआईजी जैसे अमेरिका के कई बड़े फाइनेंशियल इंस्टीट्यूट ढह गए। ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में भी संकट आ गया।
- अमेरिका के बिगड़े आर्थिक हालातों के कारण देश को महामंदी का सामना करना पड़ा। इस दौरान अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ रेट -5.1% दर्ज की गई और बेरोजगारी रेट 10% पर जा पहुंची।
5. कोविड-19 मंदी (2020)
- मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी ने अमेरिका में पैर पसार लिए थे। इसके कारण ट्रैवल और कई कामों पर रोक लगने के कारण रोजगार में भारी गिरावट आई।
- इस दौरान अमेरिका में 2.4 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियां खो दी और बेरोजगारी दर 14.7% पहुंच गई। इस दौरान अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ रेट -19.2% रही। हालांकि ये मंदी रिकॉर्ड पर सबसे कम समय की थी।
सवाल-7: भारत की स्थिति क्या है- मंदी आ सकती है या नहीं?
जवाबः अगर अमेरिका मंदी की चपेट में आता है तो भारत पर भी असर हो सकता है। हालांकि अगर हमारी अर्थव्यवस्था अपनी डिमांड को मेनटेन रखें। खासतौर से गरीबों की डिमांड चलती रहे तो मंदी का असर कम होगा।
जैसा 2007 की मंदी में हुआ था। तब केंद्र की मनमोहन सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड बनाए रखने में सफल हुई थी। सरकार ने लोन माफ कर दिए थे। ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम शुरू कर दी थी। मिड डे मिल स्कीम शुरू कर दी थी। इससे चीजों के दाम बढ़े नहीं। तब सरकार ने लगभग दो लाख करोड़ रुपए रूरल इकोनॉमी में लगाए थे। सरकार ने गरीबों के हाथ में पैसा दिया था।
दूसरे देशों की GDP में गिरावट आई। हमारे देश में भी गिरावट आई, लेकिन वो माइनस में नहीं गई थी। अलबत्ता 4% के आसपास हमारी ग्रोथ रही थी, क्योंकि हमने ग्रामीण एरिया में अपनी डिमांड बनाए रखी थी।
सवाल-8: भारत में पहले कब-कब आई आर्थिक मंदी?
जवाबः RBI के GDP ग्रोथ के डेटा मुताबिक, भारत में आजादी के बाद से अब तक कुल चार बार मंदी आई है।
1. बैलेंस ऑफ पेमेंट क्राइसिस (1957-58)
- साल 1957-59 के बीच भारत की GDP ग्रोथ रेट माइनस में चली गई, जो -1.2% दर्ज की गई। इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था ने पहली मंदी का सामना किया।
- इसके पीछ की सबसे बड़ी वजह इंपोर्ट बिलों में भारी तेजी थी। 1955 और 1957 के बीच भारत का इंपोर्ट बिल 50% तक बढ़ गया था।
- कमजोर मानसून के कारण कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, जिससे कीमतों में तेजी हुई। सरकार ने 40 लाख टन खाद्यान्न का इम्पोर्ट किया, जो पिछले साल से दोगुना था।
2. सूखा और अकाल (1965-66)
- भारत की दूसरी मंदी की वजह सूखा बना। साल 1965-66 के दौरान भयंकर सूखे के कारण भारत की GDP ग्रोथ रेट माइनस में पहुंच गई, जो -3.66% दर्ज की गई। साथ ही खाद्यान्न उत्पादन में 20% तक गिरावट आई।
- इससे देश में खाने के कमी होने लगी। विदेश से भारत में आनाज और खाने की चीजें भेजी गई, जिससे भूख से मर रही आबादी की मदद की गई। वित्त वर्ष 1966 में भारत को 1 करोड़ टन की खाद्य सहायता मिली।
3. एनर्जी क्राइसिस (1972-73)
- साल 1973 के दौरान ग्लोबल लेवल पर ऑयल क्राइसिस नजर आई। इसका असर भारत पर भी पड़ा। पेट्रोलियम प्रोड्यूसर अरब देशों के संगठन OAPEC ने योम किप्पूर युद्ध में इजरायल को सपोर्ट करने वाले सभी देशों के ऑयल इम्पोर्ट पर रोक लगा दी।
- इसके चलते उस दौरान तेल की कीमतें 400% तक बढ़ गई थी। वहीं भारत की GDP ग्रोथ रेट माइनस पर पहुंचकर -0.32 हो गई थी।
4. ऑयल क्राइसिस से बैलेंस ऑफ पेमेंट पर असर (1979-80)
- 1979-80 के दौरान दुनिया ने दूसरी ऑयल क्राइसिस का सामना किया। इसकी सबसे बड़ी वजह रही- ईरानी क्रांति। ईरानी क्रांति के कारण ऑयल प्रोडक्शन में कमी आई और तेल के दामों में तेजी देखी गई। इसके बाद ईरान-इराक वॉर हुई, जिसने ऑयल प्रोडक्शन को और कम कर दिया और दामों को बढ़ा दिया।
- भारत का ऑयल इम्पोर्ट बिल भी लगभग दोगुना हो गया और भारत के इम्पोर्ट में 8% की गिरावट दर्ज की गई। इस दौरान भारत की GDP ग्रोथ रेट माइनस में पहुंच गई, जो -5.2% दर्ज की गई।
सवाल-9: कोई देश मंदी से कैसे बाहर निकल सकता है?
जवाबः मंदी से बाहर निकलने का एक ही तरीका है कि इन्वेस्टमेंट बढ़ाया जाए। जब प्राइवेट सेक्टर का इन्वेस्टमेंट कम हो जाए तो सरकारें अपना इन्वेस्टमेंट बढ़ाएं।
इसके लिए सरकार को फिस्कल डेप्थ रेट बढ़ाना पड़ता है। जैसे 2007 के रिसेशन के टाइम हुआ था। अमेरिका, भारत और चीन ने खूब फिसिकल डेप्थ रेट बढ़ा दिया था। इससे डिमांड बनी रहे। ऐसे में सरकारों को रोल महत्वपूर्ण होता है। उनके उठाए कदम ही किसी देश को मंदी से निकाल सकते हैं। फिस्कल डेप्थ रेट का मतलब वो होता है जब निवेशक पैसा लगाना बंद कर देता है, तो सरकार विभिन्न तरीकों से उस इन्वेस्टमेंट को बनाए रखती है।
सवाल-10: मंदी से मिलते-जुलते टर्म्स जैसे- इन्फ्लेशन, डिफ्लेशन और स्टैग्नेशन क्या होते हैं?
जवाबः मंदी जैसे टर्म्स का मतलब सिलसिलेवार जानिए…
इन्फ्लेशन: इसका मतलब दाम बढ़ रहे हैं। यदि आपने कल दस रुपए किलो चीनी खरीदी। आज उसे पंद्रह किलो में खरीदा मतलब पांच रुपए अतिरिक्त पब्लिक की जेब से गया। ये पांच रुपए आगे तक जाता।
महंगाई का एक मतलब ये भी है कि जब परेसिंग पावर कम होती है। इससे मार्केट में डिमांड कम होती है। महंगाई से बिजनेस वालों को फायदा होता है। वर्कर्स को नुकसान होता है। उनकी डिमांड कम हो जाती है।
डिफ्लेशन: मतलब दाम गिर रहे हैं। जब डिमांड कम हो जाती है तो डिफ्लेशन का चांस होता है। बिजनेस वाले सोचते हैं कि दाम और गिर जाएंगे तो वो इन्वेस्ट करना बंद कर देते हैं। दाम बढ़ेंगे तब इन्वेस्टमेंट बढ़ाएंगे। इससे अर्थव्यवस्था में गहरी मंदी आती है। जब ऐसी स्थिति आती है तो इससे उभरने में काफी समय लगता है।
स्टेग्नेशन: इसका मतलब है कि अर्थ व्यवस्था बढ़ नहीं रही है, लेकिन चीजों के दाम बढ़ रहे हैं। इससे निकला और ज्यादा कठिन होता है। ऐसा आमतौर पर 70 के दशकों में होता रहा है।
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