Mayawati Vs Akhilesh: 3 साल पहले साथ मिलकर लड़ा था चुनाव, अब मायावती के निशाने पर क्यों आ गए हैं अखिलेश यादव? h3>
लखनऊः उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बात इन दिनों गौर करने लायक है। साल 2022 विधानसभा चुनाव के नतीजे जबसे आए हैं, बीएसपी चीफ मायावती समाजवादी पार्टी को लेकर कहीं ज्यादा आक्रामक हो गईं हैं। उनके निशाने पर अखिलेश यादव बने हुए हैं। पिछले दिनों मायावती ने यहां तक कहा कि उनके राष्ट्रपति बनाए जाने की जो ‘अफवाह’ उड़ाई जा रही है, उसके पीछे समाजवादी पार्टी ही है। उन्होंने यह भी दावा किया कि अखिलेश अब कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सकते।
यह वही मायावती और अखिलेश यादव हैं, जिन्होंने तीन साल पहले 2019 के लोकसभा चुनाव के मौके पर तमाम तल्खियों को दूर करते हुए चुनावी गठबंधन किया था। उस वक्त पर्दे के पीछे दोनों नेताओं के बीच मूक सहमति थी। वह यही थी कि अगर गठबंधन यूपी से 40-45 सीट भी जीत लेता है और केंद्र में गैर बीजेपी सरकार बनने की नौबत आती है तो अखिलेश यादव प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती का नाम चलाएंगे। उसके बदले मायावती यूपी में 2022 में अखिलेश को यूपी के सीएम के लिए प्रोजेक्ट करेंगी, लेकिन इन सबकी नौबत ही नहीं आई।
हमलावर होने की क्या है वजह?
1- यूपी में ऐंटी बीजेपी वोटबैंक के बहुत बड़े हिस्से पर अखिलेश का कब्जा हो गया है। मायावती फिर से अपना स्पेस तैयार करने की कोशिश में हैं। ऐसे में उनके लिए बीजेपी का वोटबैंक हिलाना मुश्किल लग रहा है लेकिन अखिलेश पर हमलावर होकर ऐंटी बीजेपी वोटबैंक से अपने शेयर निकालना उन्हें आसान लगता है।
2- विधानसभा चुनाव के वक्त देखा गया था कि बीएसपी के जितने भी बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ी थी, उसमें से ज्यादातर ने एसपी ही जॉइन की थी। भविष्य में भी अगर ऐसी नौबत आई तो बीएसपी नेताओं की प्राथमिकता एसपी ही होगी, क्योंकि धारणा स्थापित हो गई है कि यूपी में बीजेपी के बाद एसपी ही है।
3- साल 2022 के चुनाव में बीएसपी जैसे ही एक सीट पर पहुंची, कहा गया कि अनुसूचित जाति वर्ग के वोटबैंक में बिखराव हुआ है। अखिलेश यादव को लगता है कि अगर यह स्थापित हो जाए कि बीएसपी की सत्ता में वापसी नहीं हो सकती तो उसके वोटबैंक का कुछ हिस्सा उनके साथ शिफ्ट हो सकता है।
4- मायावती के लिए सबसे ज्यादा परेशानी का सबब बना हुआ है मुस्लिम वोट। 2022 के चुनाव में बीएसपी को मुस्लिम वोट इसीलिए नहीं गया कि उस समाज के बीच यह संदेश था कि अगर बीजेपी को कोई हरा सकता है तो वह अखिलेश ही हैं। मायावती अब यह स्थापित करना चाहती हैं कि अखिलेश सीएम नहीं बन सकते।
क्या मायावती राष्ट्रपति बन सकती हैं?
दरअसल यह मायावती की अपनी कल्पना है। राष्ट्रपति पद के चुनाव का सारा गणित बीजेपी के हाथ में है। बीजेपी जिसे चाहेगी, वही राष्ट्रपति होगा। अटल बिहारी वाजपेई के जमाने में कांशीराम को राष्ट्रपति पद का ऑफर बीजेपी ने तब दिया था जब वह यूपी में खुद बीएसपी की बैसाखी पर थी और राष्ट्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत नहीं हुई थी। आज की तारीख में यूपी में बीजेपी अकेले 250 से लेकर 300 सीट जीत रही है।
केंद्रीय राजनीति में उसका आंकड़ा 300+ का है, वह किसी दूसरे दल के नेता को राष्ट्रपति पद पर बिठा ही नहीं सकती और वह भी मायावती जैसी नेता को, जिनके राष्ट्रपति बनते ही बीजेपी के हाथ से बाजी निकल जाने का खतरा हो। अगर बीजेपी को 2024 के मद्देनजर अनुसूचित जाति वर्ग से ही किसी को राष्ट्रपति बनाना होगा तो उसने पार्टी के अंदर ही कई चेहरे तैयार कर लिए हैं। साल 2017 में पार्टी ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया था। वह यूपी से ही हैं और अनुसूचित जाति वर्ग से ही हैं। इस वजह से यह मुश्किल लगता है कि बीजेपी लगातार दूसरी बार यूपी से ही और वह भी अनुसूचित जाति वर्ग से किसी को राष्ट्रपति बनाए।
सीएम-पीएम बनने की इच्छा क्यों?
मायावती ने राष्ट्रपति बनने के बजाय मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जताई है। हालांकि यह सब उनके लिए बहुत आसान नहीं रहा। लेकिन उनके इस दावे के पीछे अपने वोटबैंक के बिखराव को रोकने की कोशिश जरूर है। दरअसल, 2022 के नतीजों के बाद ग्राउंड लेवल पर एक धारणा बनती दिख रही है कि ‘बीएसपी का खेल खत्म’। मायावती इस धारणा को किसी भी कीमत पर मजबूत होते नहीं देखना चाहेंगी। वह यह स्थापित करना चाहती हैं कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक की उनकी रेस खत्म नहीं हुई है।
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हमलावर होने की क्या है वजह?
1- यूपी में ऐंटी बीजेपी वोटबैंक के बहुत बड़े हिस्से पर अखिलेश का कब्जा हो गया है। मायावती फिर से अपना स्पेस तैयार करने की कोशिश में हैं। ऐसे में उनके लिए बीजेपी का वोटबैंक हिलाना मुश्किल लग रहा है लेकिन अखिलेश पर हमलावर होकर ऐंटी बीजेपी वोटबैंक से अपने शेयर निकालना उन्हें आसान लगता है।
2- विधानसभा चुनाव के वक्त देखा गया था कि बीएसपी के जितने भी बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ी थी, उसमें से ज्यादातर ने एसपी ही जॉइन की थी। भविष्य में भी अगर ऐसी नौबत आई तो बीएसपी नेताओं की प्राथमिकता एसपी ही होगी, क्योंकि धारणा स्थापित हो गई है कि यूपी में बीजेपी के बाद एसपी ही है।
3- साल 2022 के चुनाव में बीएसपी जैसे ही एक सीट पर पहुंची, कहा गया कि अनुसूचित जाति वर्ग के वोटबैंक में बिखराव हुआ है। अखिलेश यादव को लगता है कि अगर यह स्थापित हो जाए कि बीएसपी की सत्ता में वापसी नहीं हो सकती तो उसके वोटबैंक का कुछ हिस्सा उनके साथ शिफ्ट हो सकता है।
4- मायावती के लिए सबसे ज्यादा परेशानी का सबब बना हुआ है मुस्लिम वोट। 2022 के चुनाव में बीएसपी को मुस्लिम वोट इसीलिए नहीं गया कि उस समाज के बीच यह संदेश था कि अगर बीजेपी को कोई हरा सकता है तो वह अखिलेश ही हैं। मायावती अब यह स्थापित करना चाहती हैं कि अखिलेश सीएम नहीं बन सकते।
क्या मायावती राष्ट्रपति बन सकती हैं?
दरअसल यह मायावती की अपनी कल्पना है। राष्ट्रपति पद के चुनाव का सारा गणित बीजेपी के हाथ में है। बीजेपी जिसे चाहेगी, वही राष्ट्रपति होगा। अटल बिहारी वाजपेई के जमाने में कांशीराम को राष्ट्रपति पद का ऑफर बीजेपी ने तब दिया था जब वह यूपी में खुद बीएसपी की बैसाखी पर थी और राष्ट्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत नहीं हुई थी। आज की तारीख में यूपी में बीजेपी अकेले 250 से लेकर 300 सीट जीत रही है।
केंद्रीय राजनीति में उसका आंकड़ा 300+ का है, वह किसी दूसरे दल के नेता को राष्ट्रपति पद पर बिठा ही नहीं सकती और वह भी मायावती जैसी नेता को, जिनके राष्ट्रपति बनते ही बीजेपी के हाथ से बाजी निकल जाने का खतरा हो। अगर बीजेपी को 2024 के मद्देनजर अनुसूचित जाति वर्ग से ही किसी को राष्ट्रपति बनाना होगा तो उसने पार्टी के अंदर ही कई चेहरे तैयार कर लिए हैं। साल 2017 में पार्टी ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया था। वह यूपी से ही हैं और अनुसूचित जाति वर्ग से ही हैं। इस वजह से यह मुश्किल लगता है कि बीजेपी लगातार दूसरी बार यूपी से ही और वह भी अनुसूचित जाति वर्ग से किसी को राष्ट्रपति बनाए।
सीएम-पीएम बनने की इच्छा क्यों?
मायावती ने राष्ट्रपति बनने के बजाय मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जताई है। हालांकि यह सब उनके लिए बहुत आसान नहीं रहा। लेकिन उनके इस दावे के पीछे अपने वोटबैंक के बिखराव को रोकने की कोशिश जरूर है। दरअसल, 2022 के नतीजों के बाद ग्राउंड लेवल पर एक धारणा बनती दिख रही है कि ‘बीएसपी का खेल खत्म’। मायावती इस धारणा को किसी भी कीमत पर मजबूत होते नहीं देखना चाहेंगी। वह यह स्थापित करना चाहती हैं कि मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक की उनकी रेस खत्म नहीं हुई है।
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