गठबंधन की माला गूंथ रहीं मायवती, पर असली लड़ाई तो ताज की होगी

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अमित शाह और मोदी की आक्रामक राजनीति या यूं कहें कि बीजेपी की विपक्ष मुक्त शासन के प्रयासों को चुनौति देनें की कोशिश एक बार फिर तेज हो गई है। हालांकि ये पहली बार नहीं है, इससे पहले भी बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले इस तरह की कोशिश हुई थी और सफल भी रही थी। ये बात और है कि उस सफलता को विफलता में बदल दिया गया, और बीजेपी हार कर भी जीत गई। भाजपा की इसी रणनीति (कुछ भी हो जीतना है) के खिलाफ लगभग 2 साल से विपक्ष की एकता पर असफल काम हो रहा है, यही नहीं, हर बार एक नया अगुआ बनकर विपक्ष को एक करने की कोशिश करता है। इस कड़ी में अगला नाम बसपा सुप्रीमों मायावती का है-

मायावती कर रहीं है प्रयास

इस बार मायावती इस मामले में प्रयास कर रही हैं। दरअसल 27 अगस्त को लालू यादव बिहार में भाजपा भगाओ रैली करने वाले हैं। उससे पहले ही मायावती की पार्टी ने एक पोस्टर जारी किया है जिसमें मायावती के साथ अन्य नेताओं समेंत उनके सबसे बड़े राजनीतिक दुश्मन अखिलेश यादव भी नजर आ रहे हैं। ये पोस्टर 20 अगस्त, को बीएसपी के ट्विटर अकाउंट पर जारी किया गया था। हालांकि अब ये पोस्टर हटा लिया गया है। इससे ये कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा बनाम देश की तमाम विपक्षी पार्टियों के बीच होने वाली है।

 

इससे पहले भी हुए हैं असफल प्रयास

यहां बताना जरूरी है कि 9 अप्रैल, 2016 को एक बैठक में जनता परिवार के विलय की बात हुई थी, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, नीतीश कुमार, शरद यादव मुलायम सिंह यादव समेत कांग्रेस को छोड़कर लगभग सभी विपक्षी दलों का जुटान हुआ था, जहां नीतीश कुमार को जनता परिवार का अध्यक्ष बनाने का फैसला हुआ था। लेकिन इस दिशा में बात नहीं बढ़ पाई थी।

बात उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले की करें तो मुलायम के नेतृत्व में एक और बैठक हुई जिसमें एचडी देवगौड़ा और आरएलडी प्रमुख अजीत सिंह ने हिस्सा लिया और यूपी में चुनाव एक साथ लड़ने की बात हुई लेकिन यहां भी आखिरी पड़ाव असफलता पर ही खत्म हुई। यूपी में विपक्ष को एक करते-करते खुद मुलायम अकेले हो गए। आखिरकार यूपी चुनाव में क्या हुआ ये हम अच्छी तरह से जानते हैं।

मायावती ने क्यों उठाया ये कदम?

सबसे पहली बात ये कि इससे पहले विपक्षी एकता का जो भी डमावड़ा लगा उसमें मायावती कहीं भी नजर नहीं आईं क्योंकि उनके सबसे बड़े विरोधी और यूपी में सत्ताधारी सपा प्रमुख मुलायम की मजबूत मौजूदगी वहां होती थी। लेकिन अब लगभग सभी विपक्षी पार्टियां सत्ताहीन हो गई है और इस स्थिति में सबको एक दूसरे के साथ की जरूरत है। इस वक्त राजनीतिक अखाड़े में लगभग पस्त हो चुकी बसपा यानि मायावती को लग रहा है कि भले ही सपा के साथ मिलकर लेकिन यूपी में 2019 का चुनाव एक अच्छा मौका हो सकता है, वापस आने का। मायावती के पिछले कुछ चुनाव में जो हाल हुआ है उससे मायावती पर राजनीति रूप से खत्म होने का खतरा सबसे ज्यादा है। ऐसे में अखिलेश के साथ पोस्टर कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब फसती है जब किसी धुर-विरोधी को नेता चुनना हो।

कौन होगा विपक्ष का नेता?

बिहार विधानसभा चुनाव में सफल महागठबंधन के बाद बीजेपी ने जिस तरह से बाजी पलट दी है, उसने ना केवल विपक्षी एकता की कलई खोल दी है बल्कि ये भी साबित कर दिया है कि विपक्ष के पास सर्वमान्य नेता का अभाव है। अपने स्वार्थ को लेकर विपक्षी एकता का दंभ भरने वाले नेता क्या कभी स्वार्थ से ऊपर उठकर किसी एक को अपना नेता मानने को तैयार होंगे? अगर ऐसा हो भी गया तो क्या जनता उस नेता को स्वीकार करेगी? और फिर एक होकर चुनाव लड़ने का सबसे बड़ा खतरा ये है कि आपको प्रदेश में सीटों का बंटवारा करना होगा मतलब साफ है कि आप सभी सीटों से अपने उम्मीदवार खड़ा नहीं कर सकते हैं। और ऐसे में सबसे बड़ा खतरा है आपके स्थानीय नेता और कार्यकर्ता की नाराजगी और पार्टी विरोधी हो जाना जो आपको या आपके सहयोगी दल को हराने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। ऐसे में ना केवल पार्टी के टूटने का डर होता है बल्कि जमीनी स्तर पर पार्टी के कमजोर होने का भी डर होता है। कुल मिलाकर देखा जाए तो विपक्षी एकता के नाम पर पोस्टर लगाना तो आसान है लेकिन एक होकर चल पाना बहुत ही मुश्किल है।