Maharashtra Political Crisis: 19 साल बाद महाराष्ट्र में UP जैसे हालात…BJP ने माया को झटका दे मुलायम को बनवा दिया था CM h3>
लखनऊ: महाराष्ट्र के राजनीतिक रण (Maharashtra Political Crisis) में घमासान चरम पर है। सियासत की डोर शिवसेना (Shivsena) प्रमुख और प्रदेश के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) के हाथ से छूटती दिख रही है। वहीं, शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) न केवल महाराष्ट्र की सियायत में बदलाव करने में सफल होते दिख रहे हैं, बल्कि वे पार्टी पर भी अपना अधिकार जमाते दिख रहे हैं। उद्धव सरकार को समर्थन देने वाले 46 विधायकों को अपने पाले में होने का दावा करने वाले एकनाथ शिंदे आज से ठीक 19 साल पहले के कल्याण सिंह (Kalyan Singh) की झलक दिखाते दिख रहे हैं। वर्ष 2003 में कल्याण की बगावत के कारण ही मायावती-भाजपा गठबंधन (Mayawati BJP Alliance) की सरकार गई थी। आप यकीन नहीं करेंगे, तब भाजपा के समर्थन के समर्थन से समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) मुख्यमंत्री बने थे। इस घटनाक्रम के बाद से आज तक बसपा और भाजपा एक पाले में नहीं आई। मुलायम के लिए भी यूपी की सियासत में यही बतौर मुख्यमंत्री आखिरी कार्यकाल रहा। महाराष्ट्र में ढाई साल से चल रही महा विकास अघाड़ी सरकार के लिए एकनाथ शिंदे यूपी वाले कल्याण सिंह बन गए हैं।
2003 के पहले क्या हुआ था?
यूपी विधानसभा चुनाव 2002 में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। उस चुनाव में तब की छह राष्ट्रीय पार्टियां भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी चुनाव में उतरे थे। वहीं, राज्यस्तरीय राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह के नेतृत्व में चुनावी मैदान में ताल ठोंक रही थी। इसके अलावा अन्य राज्यों की 9 राज्यस्तरीय पार्टियां चुनाव मैदान में थीं। साथ ही, चुनावी मैदान में 75 अपंजीकृत राजनीतिक दल भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे। इस चुनाव में प्रदेश की 425 सीटों के लिए वोटिंग हुई। चुनाव परिणाम आया तो समाजवादी पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरी। सपा को 142 सीटों पर जीत मिली। बहुजन समाज पार्टी 98 सीटों पर जीती। तीसरे नंबर पर रही भाजपा को 88 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने 25 और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल ने 14 सीटों पर जीत दर्ज की। त्रिशंकु विधान सभा ने सभी राजनीतिक दलों के लिए गठबंधन के दरवाजे खोल दिए।
Maharashtra Political Crisis: Uddhav Thackeray से ज़्यादा MLA Eknath Shinde के साथ, बनेगी BJP सरकार?
भाजपा के खराब रिजल्ट के पीछे सबसे बड़ी भूमिका बागी कल्याण सिंह की रही थी। वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा के खराब प्रदर्शन का ठीकरा उन पर फोड़ा गया। तब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हुए थे। पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने कल्याण सिंह को हटाकर पहले राम प्रकाश गुप्ता और फिर राजनाथ सिंह को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। कल्याण सिंह को यह नागवार गुजरा और उन्होंने वर्ष 1999 में राष्ट्रीय क्रांति दल नाम से पार्टी बना ली। यूपी चुनाव 2002 में कल्याण की पार्टी को भले 4 सीटें आईं, लेकिन उन्होंने भाजपा को खासा नुकसान पहुंचाया और 1991 के चुनाव में 221, 1993 के चुनाव में 177 और 1996 के यूपी चुनाव में 174 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली सपा महज 88 सीटों पर सिमट गई।
त्रिशंकु विधानसभा के कारण लगा राष्ट्रपति शासन
यूपी चुनाव 2002 के परिणाम के बाद किसी भी दल के पास सरकार बनाने का पर्याप्त बहुमत नहीं था। कोई सरकार बनाने का दावा भी पेश नहीं कर रहा था। ऐसे में प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। 56 दिनों तक राष्ट्रपति शासन रहने के बाद मायावती और भाजपा के बीच चल रही वार्ता एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तक पहुंची। भाजपा ने मायावती को समर्थन देकर सरकार तो बनवा दिया, लेकिन दोनों के बीच हितों का टकराव शुरू हो गया। तब माया सरकार में भाजपा के लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, कलराज मिश्र, हुकुम सिंह जैसे नेता कैबिनेट मंत्री बने थे। 29 अगस्त 2003 को भाजपा ने मायावती सरकार से समर्थन वापस लिया और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
राजा भैया पर पोटा लगने का बीजेपी ने किया था विरोध
मायावती सरकार भले भाजपा के समर्थन से बन गई थी, लेकिन वह मंत्रियों के बीच खींचतान का शिकार हो रही थी। भाजपा के मंत्री अपनी स्थिति खराब होने की बात कर रहे थे। ऐसे में वर्ष 2003 में उस समय हंगामा मचा, जब मायावती ने निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम (POTA) लगा दिया। राजा भैया 20 विधायकों को साथ लेकर राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिले थे और उन्होंने मायावती सरकार को बर्खास्त करने की मांग की थी। इस मामले में नवंबर 2002 में ही उन्हें जेल भेज दिया गया। भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार ने राजा भैया पर लगाए गए पोटा को हटाने की मांग की। सीएम मायावती ने उनकी यह मांग ठुकरा दी। माया ने साफ-साफ कहा था कि राजा भैया से पोटा नहीं हटेगा। यहीं से दोनों दलों के बीच खाई बननी शुरू हुई। ताज हैरिटेज कॉरिडोर का निर्माण ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ।
केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन ने प्रक्रियाओं को पूरा कराए बिना कॉरिडोर निर्माण के लिए यूपी सरकार को जिम्मेदार ठहराया और बात बिगड़ गई। 29 जुलाई 2003 को मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस कर जगमोहन को अटल सरकार से हटाने की मांग कर डाली। 28 दिन यानी 26 अगस्त 2003 को मायावती ने कैबिनेट की बैठक बुलाई। विधानसभा भंग करने की सिफारिश की और राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया। मायावती के इस कदम के बाद भाजपा नेताओं का प्रतिनिधिमंडल लालजी टंडन के नेतृत्व में राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिला और उन्हें माया सरकार से समर्थन वापसी वाली चिट्ठी सौंपी। राज्यपाल ने इस पत्र के सहारे मायावती कैबिनेट के विधानसभा भंग करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
भाजपा के साथ से बने मुलायम सीएम
26 अगस्त 2003 को ही मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री बनाने का दावा पेश कर दिया। उनके पास पर्याप्त विधायक नहीं थे। 27 अगस्त को बसपा के 13 विधायकों ने मुलायम को समर्थन देने की घोषणा की। बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य इसके खिलाफ विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी के समक्ष एक याचिका दी। लेकिन, इस पर सुनवाई नहीं हुई। बसपा के 13 विधायकों का समर्थन मिलते ही मुलायम ने 210 विधायकों के समर्थन का पत्र राज्यपाल को सौंप दिया। हालांकि, बहुमत 213 से यह आंकड़ा कम था। इसके बाद भी राज्यपाल ने मुलायम सिंह यादव को आनन-फानन में शपथ दिला दिया। 29 अगस्त 2003 को मुलायम सीएम बन गए। भाजपा ने तब इसका समर्थन किया। लालजी टंडन ने तब राज्यपाल के फैसले को सही ठहराते हुए इसे लोकतंत्र को मजबूत करार देने वाला करार दिया था।
सबसे मजेदार तो यह है कि जिस भाजपा ने 2002 में मुलायम को सीएम नहीं बनने दिया, उसी ने सरकार बनाने में मदद की। 1989 से मुलायम का विरोध कर रहे अजीत सिंह उनके साथ आए। मुलायम को रामसेवकों की हत्या करने वाला कहने वाले कल्याण सिंह ने उन्हें बहुमत का आंकड़ा पार कराने में मदद की। मुलायम ने जिस सोनिया गांधी को 1999 में पीएम नहीं बनने दिया, उन्होंने भी उन्हें समर्थन दिया। बाद में बसपा के 41 विधायक मुलायम के समर्थन में जाकर खड़े हो गए और उनकी सरकार ने कार्यकाल पूरा किया।
यूपी वाले मोड़ पर महाराष्ट्र की सियासत
महाराष्ट्र की सियासत भी यूपी वाले मोड़ पर पहुंच गई है। यहां भी सत्ताधारी शिवसेना के विधायक टूट रहे हैं। उस समय पर्दे के पीछे भाजपा ने मुलायम की सरकार बनाने में बड़ा रोल निभाया था। चाहे वह विधानसभा अध्यक्ष का बसपा के टूटे विधायकों पर दल-बदल कानून न लागू करना हो या फिर राज्यपाल का आनन-फानन में शपथ दिलाना। मायावती कैबिनेट के विधानसभा भंग करने के प्रस्ताव को न मानना, कुछ इसी प्रकार की स्थिति बनती दिख रही है। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत विधानसभा भंग किए जाने की बात करते दिख रहे हैं। वे कह रहे हैं कि ऐसी सिफारिश की जा सकती है। यकीन मानिए, इस समय चुनाव कराने के मूड में कोई नहीं है। ऐसे में अगर एकनाथ शिंदे का समर्थक विधायकों के सरकार से समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल के पास पहुंच गया तो फिर राज्यपाल अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए विधानसभा भंग किए जाने की जगह दूसरे सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं। महाराष्ट्र का महा पॉलिटिकल ड्रामा अभी बाकी है।
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यूपी विधानसभा चुनाव 2002 में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। उस चुनाव में तब की छह राष्ट्रीय पार्टियां भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी चुनाव में उतरे थे। वहीं, राज्यस्तरीय राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह के नेतृत्व में चुनावी मैदान में ताल ठोंक रही थी। इसके अलावा अन्य राज्यों की 9 राज्यस्तरीय पार्टियां चुनाव मैदान में थीं। साथ ही, चुनावी मैदान में 75 अपंजीकृत राजनीतिक दल भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे। इस चुनाव में प्रदेश की 425 सीटों के लिए वोटिंग हुई। चुनाव परिणाम आया तो समाजवादी पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरी। सपा को 142 सीटों पर जीत मिली। बहुजन समाज पार्टी 98 सीटों पर जीती। तीसरे नंबर पर रही भाजपा को 88 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने 25 और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल ने 14 सीटों पर जीत दर्ज की। त्रिशंकु विधान सभा ने सभी राजनीतिक दलों के लिए गठबंधन के दरवाजे खोल दिए।
Maharashtra Political Crisis: Uddhav Thackeray से ज़्यादा MLA Eknath Shinde के साथ, बनेगी BJP सरकार?
भाजपा के खराब रिजल्ट के पीछे सबसे बड़ी भूमिका बागी कल्याण सिंह की रही थी। वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा के खराब प्रदर्शन का ठीकरा उन पर फोड़ा गया। तब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हुए थे। पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने कल्याण सिंह को हटाकर पहले राम प्रकाश गुप्ता और फिर राजनाथ सिंह को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। कल्याण सिंह को यह नागवार गुजरा और उन्होंने वर्ष 1999 में राष्ट्रीय क्रांति दल नाम से पार्टी बना ली। यूपी चुनाव 2002 में कल्याण की पार्टी को भले 4 सीटें आईं, लेकिन उन्होंने भाजपा को खासा नुकसान पहुंचाया और 1991 के चुनाव में 221, 1993 के चुनाव में 177 और 1996 के यूपी चुनाव में 174 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली सपा महज 88 सीटों पर सिमट गई।
त्रिशंकु विधानसभा के कारण लगा राष्ट्रपति शासन
यूपी चुनाव 2002 के परिणाम के बाद किसी भी दल के पास सरकार बनाने का पर्याप्त बहुमत नहीं था। कोई सरकार बनाने का दावा भी पेश नहीं कर रहा था। ऐसे में प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। 56 दिनों तक राष्ट्रपति शासन रहने के बाद मायावती और भाजपा के बीच चल रही वार्ता एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तक पहुंची। भाजपा ने मायावती को समर्थन देकर सरकार तो बनवा दिया, लेकिन दोनों के बीच हितों का टकराव शुरू हो गया। तब माया सरकार में भाजपा के लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, कलराज मिश्र, हुकुम सिंह जैसे नेता कैबिनेट मंत्री बने थे। 29 अगस्त 2003 को भाजपा ने मायावती सरकार से समर्थन वापस लिया और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
राजा भैया पर पोटा लगने का बीजेपी ने किया था विरोध
मायावती सरकार भले भाजपा के समर्थन से बन गई थी, लेकिन वह मंत्रियों के बीच खींचतान का शिकार हो रही थी। भाजपा के मंत्री अपनी स्थिति खराब होने की बात कर रहे थे। ऐसे में वर्ष 2003 में उस समय हंगामा मचा, जब मायावती ने निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम (POTA) लगा दिया। राजा भैया 20 विधायकों को साथ लेकर राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिले थे और उन्होंने मायावती सरकार को बर्खास्त करने की मांग की थी। इस मामले में नवंबर 2002 में ही उन्हें जेल भेज दिया गया। भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार ने राजा भैया पर लगाए गए पोटा को हटाने की मांग की। सीएम मायावती ने उनकी यह मांग ठुकरा दी। माया ने साफ-साफ कहा था कि राजा भैया से पोटा नहीं हटेगा। यहीं से दोनों दलों के बीच खाई बननी शुरू हुई। ताज हैरिटेज कॉरिडोर का निर्माण ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ।
केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन ने प्रक्रियाओं को पूरा कराए बिना कॉरिडोर निर्माण के लिए यूपी सरकार को जिम्मेदार ठहराया और बात बिगड़ गई। 29 जुलाई 2003 को मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस कर जगमोहन को अटल सरकार से हटाने की मांग कर डाली। 28 दिन यानी 26 अगस्त 2003 को मायावती ने कैबिनेट की बैठक बुलाई। विधानसभा भंग करने की सिफारिश की और राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया। मायावती के इस कदम के बाद भाजपा नेताओं का प्रतिनिधिमंडल लालजी टंडन के नेतृत्व में राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिला और उन्हें माया सरकार से समर्थन वापसी वाली चिट्ठी सौंपी। राज्यपाल ने इस पत्र के सहारे मायावती कैबिनेट के विधानसभा भंग करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
भाजपा के साथ से बने मुलायम सीएम
26 अगस्त 2003 को ही मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री बनाने का दावा पेश कर दिया। उनके पास पर्याप्त विधायक नहीं थे। 27 अगस्त को बसपा के 13 विधायकों ने मुलायम को समर्थन देने की घोषणा की। बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य इसके खिलाफ विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी के समक्ष एक याचिका दी। लेकिन, इस पर सुनवाई नहीं हुई। बसपा के 13 विधायकों का समर्थन मिलते ही मुलायम ने 210 विधायकों के समर्थन का पत्र राज्यपाल को सौंप दिया। हालांकि, बहुमत 213 से यह आंकड़ा कम था। इसके बाद भी राज्यपाल ने मुलायम सिंह यादव को आनन-फानन में शपथ दिला दिया। 29 अगस्त 2003 को मुलायम सीएम बन गए। भाजपा ने तब इसका समर्थन किया। लालजी टंडन ने तब राज्यपाल के फैसले को सही ठहराते हुए इसे लोकतंत्र को मजबूत करार देने वाला करार दिया था।
सबसे मजेदार तो यह है कि जिस भाजपा ने 2002 में मुलायम को सीएम नहीं बनने दिया, उसी ने सरकार बनाने में मदद की। 1989 से मुलायम का विरोध कर रहे अजीत सिंह उनके साथ आए। मुलायम को रामसेवकों की हत्या करने वाला कहने वाले कल्याण सिंह ने उन्हें बहुमत का आंकड़ा पार कराने में मदद की। मुलायम ने जिस सोनिया गांधी को 1999 में पीएम नहीं बनने दिया, उन्होंने भी उन्हें समर्थन दिया। बाद में बसपा के 41 विधायक मुलायम के समर्थन में जाकर खड़े हो गए और उनकी सरकार ने कार्यकाल पूरा किया।
यूपी वाले मोड़ पर महाराष्ट्र की सियासत
महाराष्ट्र की सियासत भी यूपी वाले मोड़ पर पहुंच गई है। यहां भी सत्ताधारी शिवसेना के विधायक टूट रहे हैं। उस समय पर्दे के पीछे भाजपा ने मुलायम की सरकार बनाने में बड़ा रोल निभाया था। चाहे वह विधानसभा अध्यक्ष का बसपा के टूटे विधायकों पर दल-बदल कानून न लागू करना हो या फिर राज्यपाल का आनन-फानन में शपथ दिलाना। मायावती कैबिनेट के विधानसभा भंग करने के प्रस्ताव को न मानना, कुछ इसी प्रकार की स्थिति बनती दिख रही है। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत विधानसभा भंग किए जाने की बात करते दिख रहे हैं। वे कह रहे हैं कि ऐसी सिफारिश की जा सकती है। यकीन मानिए, इस समय चुनाव कराने के मूड में कोई नहीं है। ऐसे में अगर एकनाथ शिंदे का समर्थक विधायकों के सरकार से समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल के पास पहुंच गया तो फिर राज्यपाल अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए विधानसभा भंग किए जाने की जगह दूसरे सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं। महाराष्ट्र का महा पॉलिटिकल ड्रामा अभी बाकी है।
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