देश में कई महिनों से चल रहे किसान आंदोलन के भविष्य को लेकर संशय के बादल छाए हुए हैं. किसान सरकार द्वारा बनाए गए तीन कानूनों को रद्द करवाने की मांगो पर अड़े हुए हैं तथा सरकार तीनों कृषि कानूनों के फायदे बता रही है. सरकार की तरफ से बार बार दावा किया जा रहा है कि ये तीनों कानून किसानों की हालात को बदल देगें. किसानों की तरफ से आरोप लगाया जा रहा है कि सरकार ने बड़े ब़डे उद्धोगपतियों के फायदे के लिए ये कानून बनाए हैं.
सरकार और किसानों के बीच लंबे समय तक चले वार्ता के दौर का कोई परिणाम ना निकलने पर अब दोनों की तरफ से बातचीत का दौर बंद हो रहा है. सरकार और किसान नेता दोनो इस मुद्दे को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न मानने लगे हैं. जहाँ तक इस आंदोलन की बात है, सरकार जिस तरह से इस मुद्दे को संभाल रही है. वो भी सरकार की नीयत पर कई तरह के सवाल खड़े कर रहा है. सरकार के बड़े मंत्री जहाँ एक तरफ आंदोलनकारियों को खलिस्तानी , आतंकवादी तक कह देते हैं. वहीं दूसरी तरफ प्रधानमंत्री जी इस आंदोलन को कभी पवित्र आंदोलन बता रहे हैं. सरकार द्वारा कभी इसे सिर्फ कुछ राज्यों का आंदोलन बता दिया जाता है. अगर सरकार रणनीति बना रही है कि कुछ समय के बाद आंदोलन अपने आप खत्म हो जाएगा. तो लोकतंत्र में किसानों से वार्ता ना करना भी एक सही फैसला नही हैं.
जहाँ तक किसानों की बात है, तो किसानों की तरफ से भी तीन कानूनों को रद्द करने के अलावा कोई विकल्प सरकार को नहीं दिया जा रहा. तीन कानूनों को रद्द करने के अलावा किसान किसी भी बात को मानने के लिए राजी नहीं है. जिससे सरकार और किसानों के बीच विवाद के समाधान की कोई उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है.
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26 जनवरी को हुई हिंसा की घटना से पहले और बाद में किसान आंदोलन लगभग शांतिप्रिय ही रहा है. किसानो के पास और विकल्प भी नजर नहीं आ रहा. अगर सरकार इंतजार कर रही है कि किसानों का धैर्य जवाब दे तथा उसके बाद हिंसक आंदोलन बताकर आंदोलन को दबा दिया जाए यह भी लोकतंत्र के लिए सही नहीं है. अभी आंदोलन का भविष्य अंधकार में ही दिखाई दे रहा है. सरकार और किसानों को बीच का रास्ता निकालने पर विचार करना ही एक समाधान हो सकता है.