Chandra Shekhar Azad Death Anniversary: 15 साल के लड़के को कैसे मिली आजाद की उपाधि

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Chandra Shekhar Azad Death Anniversary: 15 साल के लड़के को कैसे मिली आजाद की उपाधि

Chandra Shekhar Azad Death Anniversary: 15 साल के लड़के को कैसे मिली आजाद की उपाधि



देश की आजादी के लिए बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों का जब-जब नाम लिया जाता है, तब-तब चंद्रशेखर आजाद का नाम जरूर आता है। चंद्रशेखर आजाद जब महज 15 साल के थे तब गांधीजी देश में अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन कर रहे थे। इसी बीच आजाद गांधीजी से प्रभावित हो गए और आंदोलन में कूद पड़े।

1921 में असहयोग आन्दोलन के दौरान आजाद ने छात्रों के साथ संस्कृत विद्यालय के सामने धरना-प्रदर्शन किया। आजाद को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया।

चंद्रशेखर को मिली आजाद की उपाधि
मजिस्ट्रेट ने चंद्रशेखर से नाम पूछा तो उन्होंने कुछ ऐसा बताया कि वहां पर मौजूद लोग सब हैरान रह गए। उन्होंने बताया कि उनका नाम आजाद है, पिता का नाम स्वतंत्रता है और घर का पता जेल है। मजिस्ट्रेट इस तरह का जवाब सुनकर चंद्रशेखर पर चिढ़ गया। उसने चन्द्रशेखर को 15 कोड़े की सजा सुना दी। आजाद ने अदालत को सीधी चुनौती दी कि उनके जज्बे को उम्र से न नापा जाए। जेल से डर नहीं, माफी का सवाल नहीं। आजाद ने 15 कोड़े की सजा को मंजूर किया।

चंद्र शेखर आजाद हर कोड़े पर वंदे मातरम और महात्मा गांधी की जय, भारत माता की जय के नारे लगाते रहे। इस घटना के बाद से ही चंद्रशेखर के नाम के साथ ‘आजाद’ की उपाधि जुड़ गई।

बचपन से ही पक्के निशानेबाज थे आजाद
चंद्रशेखर तिवारी का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा गांव में हुआ था। चंद्रशेखर का बचपन आदिवासियों के बीच गुजरा और उन्हीं से आजाद ने धनुषबाण चलाना सीख लिया। आजाद निशानेबाजी में निपुण हो गए थे और बाद में इसी हुनर से क्रांतिकारियों के बीच प्रसिद्ध भी रहे।

12 फरवरी 1922 को महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। आंदोलन वापस लिए जाने के बाद आजाद निराश हो गए, तभी उनकी मुलाकात 1923 के मध्य में विद्यापीठ के छात्र प्रणवेश चटर्जी और मन्मथनाथ गुप्त से हुई। प्रणवेश ने उन्हें राम प्रसाद विस्मिल से मिलवाया।

हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन में शामिल हुए आजाद

बिस्मिल से मिलने के बाद आजाद उनकी हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन में शामिल हो गए। बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद एक साहसी, आक्रामक और चतुर क्रांतिकारी साबित हुए। वे ओरछा के पास जंगल में अपने साथियों को निशानीबाजी सिखाते थे।

आजाद पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी का नाम रखकर अपने कामों को अंजाम दिया करते थे। आजाद का काम क्रांतिकारी कार्यों के लिए धन जुटाना भी था और वह चंदा जमा करने के काम में काफी माहिर थे।

काकोरी कांड को दिया अंजाम
क्रांतिकारियों ने 9 अगस्त 1925 को काकोरी में चलती ट्रेन को रोककर ब्रिटिश खजाना लूटने की योजना बनाई। क्रांतिकारियों ने काकोरी स्टेशन पर खजाना को लूट लिया। इसके बाद ब्रिटिश हुकूमत हिल गई। अंग्रेजी सरकार आजाद और उनके साथियों के पीछे पड़ गई। कोकोरी कांड के सभी आरोपी एक-एक करके पकड़े जा रहे थे। आजाद तभी भी पुलिस को चकमा देने में सफल रहे।

भगत सिंह के साथ आए चंद्रशेखर आजाद
जब सांडर्स को मारने की प्लानिंग हुई थी, तब भी चंद्रशेखर आजाद ने भगत सिंह का साथ दिया था। चाहते तो वह सांडर्स को खुद मार सकते थे, लेकिन उन्हें अपने साथियों को कवर देना था। उन्होंने अपेन काम को बखूबी निभाई और वे अग्रेजों के हाथ नहीं लगे।

आजाद ने खुद को मार ली गोली
27 फरवरी 1931 में इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में आजाद की अंग्रेजों से मुठभेड़ हुई। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के दिल में खौफ पैदा कर दिया था। मुठभेड़ के दौरान जब आजाद के पास गोलियां खत्म हो गईं तो उन्होंने खुद को गोली मार ली। मरते दम तक आजाद अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।

आजाद के मरने के बाद अंग्रेजों ने चुपचाप उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया था। अंग्रेजों ने यहां तक उस पेड़ को भी कटवा दिया, जिस पेड़ की आड़ में आजाद अंग्रेजों की फायरिंग का जवाब दे रहे थे। इसके पीछे की वजह यह थी कि इस पेड़ पर लोगों ने कई जगह आजाद लिख दिया था। लोग यहां की मिट्टी भी उठा ले गए थे।

जब आजाद के अस्थि यात्रा में भारी संख्या में उनके चाहने वाले शामिल हुए, तब लोगों को पता चला कि उनके चाहने वाले बहुत थे। आजाद की मौत पर देश में शोक की लहर दौड़ गई थी।

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