पृथ्वी थियेटर में सेंध लगाकर घुसे थे अनुराग कश्यप, झूठे बर्तन उठाकर और झाडू-पोछाकर बदली थी किस्मत h3>
‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी जबरदस्त फिल्में बना चुके अनुराग कश्यप से सभी वाकिफ हैं। वह न केवल एक बेहतरीन डायरेक्टर हैं। बल्कि प्रोड्यूसर, सक्रीनराइटर और एक्टर भी हैं। उन्होंने ढेर सारी फिल्मों के अलावा कई टीवी सीरियल भी लिखे हैं। नतीजन उनका नाम आज जानी-मानी हस्ती की लिस्ट में शुमार है। लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने ऐसी- ऐसी तिकड़म लगाई, इतना संघर्ष किया जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते हैं। आज इनका जन्मदिन है। इसी मौके पर आपको बताएंगे कि ये एक हॉस्लर से कैसे डायरेक्टर और स्क्रीनराइटर बने। चलिए शुरू करते हैं।
अनुराग कश्यप (Anurag Kashyap) का जन्म 10 सितंबर 1972 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। पापा प्रकाश सिंह एक रिटायर्ड चीफ इंजीनियर थे। डायरेक्टर ने अपनी स्कूलिंग देहरादून में की। इसके बाद इन्होंने दिल्ली हंसराज कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। यहां वह हॉस्टल में रहा करते थे। उन्होंने एक बार बताया था कि जब भी वह इस कॉलेज आते हैं। वह पहले हॉस्टल जाते हैं। उनके मुताबिक, हॉस्टल का खाना भी तब बहुत अच्छा होता था। इतना ही नहीं उनके कॉलेज के मेन फील्ड में शादिया होती थीं। उसमें वह खाने के लिए घुस जाया करते थे। अनुराग ने बताया था कि वह हॉस्टल में क्लासेस के बाद फुटबॉल के साथ रग्बी खेला करते थे।
समय से पहले ही ग्रेजुएट हुए अनुराग कश्यप
अनुराग कश्यर ने 18-19 साल की उम्र में ही ग्रेजुएशन कर लिया था। वह अपने सभी क्लासमेट्स से दो साल छोटे थे। लेकिन डीयू से निकलने के बाद मानो उनकी दुनिया ही बदल गई हो। उनका मानना है कि अगर वह हॉस्टलर न होते तो मुंबई में सर्वाइव न कर पाते। क्योंकि जो डे स्कॉलर होते हैं, उनको घर से दूर जाने में मम्मी-पापा और घर के खाने की याद सताती है। लेकिन जो हॉस्टलर होते हैं, वह तो सड़क पर भी सो सकते हैं। अगर वह हंसराज हॉस्टल में न रहते तो उनको नहीं लगता कि मुंबई में वह रह भी पाते।
अनुराग कश्यप को नहीं बनना था डायरेक्टर!
अनुराग कश्यप को शुरू में नहीं पता था कि उनको क्या चाहिए। उनको क्या करना है। उनको बस इतना पसा था कि सिनेमा में अपना योगदान देना है। उनके मुताबिक, उन्हें कभी नहीं पता था कि वह कभी डायरेक्टर बनेंगे। बस फिल्मों में कुछ कहना है ये मालूम था। ‘जब मैंने इंडस्ट्री में एंट्री की थी तब सभी परिवार फिल्म चलाते थे। कपूर खानदान था। खन्ना था। चोपड़ा थे। मेरे पिता परेशान रहते थे और कहते थे कि मैं वहां क्यों जाना चाहता हूं। क्योंकि मैं किसी को नहीं जानता था।’
अनुराग कश्यप ने लगाया दिमाग
अनुराग कश्यप शुरुआत में सबके साथ काम कर रहे थे। क्योंकि उन्होंने घर में बोल दिया था कि वह मुंबई जा रहे हैं। और ऐसे में लौट नहीं सकते थे। उनको पृथ्वी थिएटर में घुसना था। लोगों ने कहा कि वहां जिसका काम नहीं होता वो वहां बैठ भी नहीं सकता है। या तो कोई भी काम करो या कैंटीन में बैठकर खाओ। अनुराग कश्यप ने यहां घुसने के लिए तिकड़म भिड़ाई।
अनुराग कश्यप ने पृथ्वी थिएटर में लगाई सेंध
अनुराग कश्यप के पास उस समय उतने पैसे नहीं थे कि वह वहां चाय भी पी सकते। इसलिए वह नौकरी करने के बहाने से कैंटीन के मालिक के पास गए। वहां उन्होंने वेटर की नौकरी मांगी। इस पर वेटर ने कहा तुम तो पढ़े लिखे लग रहे हो। डायरेक्टर ने कहा- तो? पढ़े लिखे लोग वेटर नहीं होते? फिर उस मालिक ने जवाब दिया कि वह न तो उनको भुगतान कर सकते हैं और न ही उन्हें वेटर की जरूरत है। ऐसे में उनको यहां से जाना होगा। फिर डायरेक्टर बोले- मुझे पैसे मत दो। बस मुझे यहां रहने की वजह चाहिए। इसके बाद मालिक ने उनको काम करने की परमिशन दे दी।
अनुराग कश्यर का पहला प्ले रहा अधूरा
अनुराग वहां रहकर लंच ऑडर्स लिया करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने वहां के लोगों के साथ रिहर्सल भी करनी शुरू कर दी। इतना ही नहीं, वह थिएटर के लोगों से ये तक कहते थे कि अगर कुछ लिखना हो तो वह लिख देंगे। क्योंकि वह बहुत और तेज लिखते हैं। एक दिन में 100 पन्ने तक लिखकर दे सकते हैं। उस वक्त तो बात बनी नहीं। वह वहीं जमे रहे। अनुराग थिएटर में बने रहने के लिए स्टेज साफ करते थे। वहां के छोटे-मोटे काम करते थे। एक प्ले लिखा था लेकिन डायरेक्टर की मौत हो जाने की वजह से वह अधूरा रह गया था।
अनुराग कश्यप की लगी लॉटरी
हालांकि वहां से निकलकर उन्होंने शिवम नायर और श्रीराम राघवन जैसे डायरेक्टर के साथ काम किया। स्क्रिप्ट लिखी। लेकिन वह भी बंद डिब्बे में चली गई। इसके बाद उन्होंने 1997 में हंसल मेहता की ‘जयते’ का स्क्रीनप्ले भी लिखा। लेकिन वह भी सिनेमाघरों में रिलीज न हो सकी। फिर उनका नाम राम गोपाल वर्मा को मनोज बाजपेयी ने सुझाया फिल्म ‘सत्या’ के लिए। वर्मा को कश्यप की आटो नायरण पसंद आई और उन्होंने उनको उस मूवी की स्क्रिप्ट लिखने के लिए हायर कर लिया। सत्या हिट हो गई और यहीं से अनुराग कश्यप की लाइफ झिंगालाला हो गई।
अनुराग कश्यप (Anurag Kashyap) का जन्म 10 सितंबर 1972 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। पापा प्रकाश सिंह एक रिटायर्ड चीफ इंजीनियर थे। डायरेक्टर ने अपनी स्कूलिंग देहरादून में की। इसके बाद इन्होंने दिल्ली हंसराज कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। यहां वह हॉस्टल में रहा करते थे। उन्होंने एक बार बताया था कि जब भी वह इस कॉलेज आते हैं। वह पहले हॉस्टल जाते हैं। उनके मुताबिक, हॉस्टल का खाना भी तब बहुत अच्छा होता था। इतना ही नहीं उनके कॉलेज के मेन फील्ड में शादिया होती थीं। उसमें वह खाने के लिए घुस जाया करते थे। अनुराग ने बताया था कि वह हॉस्टल में क्लासेस के बाद फुटबॉल के साथ रग्बी खेला करते थे।
समय से पहले ही ग्रेजुएट हुए अनुराग कश्यप
अनुराग कश्यर ने 18-19 साल की उम्र में ही ग्रेजुएशन कर लिया था। वह अपने सभी क्लासमेट्स से दो साल छोटे थे। लेकिन डीयू से निकलने के बाद मानो उनकी दुनिया ही बदल गई हो। उनका मानना है कि अगर वह हॉस्टलर न होते तो मुंबई में सर्वाइव न कर पाते। क्योंकि जो डे स्कॉलर होते हैं, उनको घर से दूर जाने में मम्मी-पापा और घर के खाने की याद सताती है। लेकिन जो हॉस्टलर होते हैं, वह तो सड़क पर भी सो सकते हैं। अगर वह हंसराज हॉस्टल में न रहते तो उनको नहीं लगता कि मुंबई में वह रह भी पाते।
अनुराग कश्यप को नहीं बनना था डायरेक्टर!
अनुराग कश्यप को शुरू में नहीं पता था कि उनको क्या चाहिए। उनको क्या करना है। उनको बस इतना पसा था कि सिनेमा में अपना योगदान देना है। उनके मुताबिक, उन्हें कभी नहीं पता था कि वह कभी डायरेक्टर बनेंगे। बस फिल्मों में कुछ कहना है ये मालूम था। ‘जब मैंने इंडस्ट्री में एंट्री की थी तब सभी परिवार फिल्म चलाते थे। कपूर खानदान था। खन्ना था। चोपड़ा थे। मेरे पिता परेशान रहते थे और कहते थे कि मैं वहां क्यों जाना चाहता हूं। क्योंकि मैं किसी को नहीं जानता था।’
अनुराग कश्यप ने लगाया दिमाग
अनुराग कश्यप शुरुआत में सबके साथ काम कर रहे थे। क्योंकि उन्होंने घर में बोल दिया था कि वह मुंबई जा रहे हैं। और ऐसे में लौट नहीं सकते थे। उनको पृथ्वी थिएटर में घुसना था। लोगों ने कहा कि वहां जिसका काम नहीं होता वो वहां बैठ भी नहीं सकता है। या तो कोई भी काम करो या कैंटीन में बैठकर खाओ। अनुराग कश्यप ने यहां घुसने के लिए तिकड़म भिड़ाई।
अनुराग कश्यप ने पृथ्वी थिएटर में लगाई सेंध
अनुराग कश्यप के पास उस समय उतने पैसे नहीं थे कि वह वहां चाय भी पी सकते। इसलिए वह नौकरी करने के बहाने से कैंटीन के मालिक के पास गए। वहां उन्होंने वेटर की नौकरी मांगी। इस पर वेटर ने कहा तुम तो पढ़े लिखे लग रहे हो। डायरेक्टर ने कहा- तो? पढ़े लिखे लोग वेटर नहीं होते? फिर उस मालिक ने जवाब दिया कि वह न तो उनको भुगतान कर सकते हैं और न ही उन्हें वेटर की जरूरत है। ऐसे में उनको यहां से जाना होगा। फिर डायरेक्टर बोले- मुझे पैसे मत दो। बस मुझे यहां रहने की वजह चाहिए। इसके बाद मालिक ने उनको काम करने की परमिशन दे दी।
अनुराग कश्यर का पहला प्ले रहा अधूरा
अनुराग वहां रहकर लंच ऑडर्स लिया करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने वहां के लोगों के साथ रिहर्सल भी करनी शुरू कर दी। इतना ही नहीं, वह थिएटर के लोगों से ये तक कहते थे कि अगर कुछ लिखना हो तो वह लिख देंगे। क्योंकि वह बहुत और तेज लिखते हैं। एक दिन में 100 पन्ने तक लिखकर दे सकते हैं। उस वक्त तो बात बनी नहीं। वह वहीं जमे रहे। अनुराग थिएटर में बने रहने के लिए स्टेज साफ करते थे। वहां के छोटे-मोटे काम करते थे। एक प्ले लिखा था लेकिन डायरेक्टर की मौत हो जाने की वजह से वह अधूरा रह गया था।
अनुराग कश्यप की लगी लॉटरी
हालांकि वहां से निकलकर उन्होंने शिवम नायर और श्रीराम राघवन जैसे डायरेक्टर के साथ काम किया। स्क्रिप्ट लिखी। लेकिन वह भी बंद डिब्बे में चली गई। इसके बाद उन्होंने 1997 में हंसल मेहता की ‘जयते’ का स्क्रीनप्ले भी लिखा। लेकिन वह भी सिनेमाघरों में रिलीज न हो सकी। फिर उनका नाम राम गोपाल वर्मा को मनोज बाजपेयी ने सुझाया फिल्म ‘सत्या’ के लिए। वर्मा को कश्यप की आटो नायरण पसंद आई और उन्होंने उनको उस मूवी की स्क्रिप्ट लिखने के लिए हायर कर लिया। सत्या हिट हो गई और यहीं से अनुराग कश्यप की लाइफ झिंगालाला हो गई।