मूवी रिव्यु: इश्कबाज़ी और इज्ज़त कमाने के लिए बना “मुक्काबाज़”

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अगर मल्टीप्लेक्स के थिएटर में आपको सीटियाँ और हुड़दंग सुनने को मिल जाए तो समझ लिजीये की फिल्म पैसा वसूल है. अनुराग कश्यप और आनंद एल राय जैसे कलाकार साथ मिलकर मुक्काबाज़ जैसा कॉकटेल तैयार करते हैं. यूं तो मुक्काबाज़ का निर्देशन अनुराग कश्यप ने किया है, लेकिन फिल्म के कई सीन्स देखकर आप समझ जाएंगे कि इसमें फिल्म के सह निर्माता आनंद एल राय जैसे निर्देशक का हाथ है. दरअसल इन दोनों की अपनी अपनी-खासियत है. अनुराग हर चीज़ को एकदम खरे और सच्चे रूप में पेश करते हैं तो आनंद सच्चाई को बड़ी नफासत से दिखाते हैं. और यही इस फिल्म की जान है.

फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से ताल्लुक़ रखने वाले श्रवण कुमार सिंह (विनीत कुमार सिंह) और उनकी ‘प्रिये’ सुनैना (ज़ोया हुसैन) के इश्क़ और उसे बचाने की कहानी है. श्रवण को अपने कोच और बाहुबली नेता भगवान दास (जिमी शेरगिल) की भतीजी से प्यार हो जाता है. भगवान दास एकदम कैंट किस्म के आदमी हैं. जिसके पीछे पड़ जाए उसे कहीं का नही छोड़ते. लेकिन इस बार उनका पाला श्रवण कुमार से पड़ा. श्रवण में अपनी बॉक्सिंग को लेकर जूनून है और अपनी क़ाबिलियत पर यकीन है. यही वजह है कि वो भगवानदास के घर में चेला कम नौकर बनके रहने से मना कर देता है. उनकी यही अदा सुनैना को पसंद आ जाती है और दोनों की इश्कबाजी और भगवानदास से दुश्मनी एक साथ शुरू होती है.

ज़ाहिर है कि भगवान ताक़तवर हैं और तजुर्बेकार हैं तो श्रवण उनके सामने कमज़ोर दिखते हैं. लेकिन श्रवण बखूबी समझता है ‘ये प्यार नहीं खेल प्रिये, मुश्किल है अपना मेल प्रिये.’ अंततः सही और गलत के बीच की लड़ाई शुरू होती है जिसका अंजाम देखना काफी दिलचस्प है.

फिल्म के किरदारों की बात करें तो रवि किशन श्रवण के कोच के अपने सीमित रोल में भी छाप छोड़ गए हैं. वहीँ डेब्यूटेंट ज़ोया हुसैन ने काफी प्रभावित किया है. उन्हें देखकतर लग रहा है कि भविष्य में वो एक बड़ी अदाकारा बनकर उभर सकती हैं. वहीं जिमी शेरगिल अब ऐसे मुकाम पर पहुँच गए हैं कि उनकी अभिनय क्षमता की समीक्षा करना वाजिब नही है. जिस सीन में वो होते हैं, आप पलक भी नही झपका सकते. वो इस तरह के अभिनेता हैं जो नायक और खलनायक दोनों पर भारी पड़ जाते हैं.

MOvie review -

लेकिन इन सबके बीच सबसे ज़ोरदार काम रहा फिल्म के मुख्य अभिनेता विनीत कुमार सिंह का. विनीत ने अपने करियर की तीन फिल्में अनुराग के साथ की हैं. वो सबसे पहले 2012 में अनुराग की ही गैंग्स ऑफ़ वासेपुर से लाइम लाइट में आये थे. अगर आपने उनकी वो फिल्म देखी है तो मुक्केबाज़ देखकर आप बेशक ही खुश होंगे. उनका ट्रांसफॉरमेशन क़ाबिले तारीफ़ है. 6 पैक एब्स और बॉक्सर वाला तेज उसके साथ एक आम लड़के की छवी को बरक़रार रखना इतना आसान नही था. लेकिन अनुराग जैसे निर्देशक के साथ विनीत का ये रूप सामने आना लाज़मी था.

इन सब खूबियों के बावजूद फिल्म में कुछ कमियां भी हैं. कई सीन्स और खासकर के क्लाइमेक्स को बहुत खींचा गया है. वहीँ सुनैना के किरदार पर थोड़े और काम की जगह थी. लेकिन इन सब कमियों के साथ भी मुक्काबाज़ को देखना ज़रूरी है. इन अक्मियों को शरवन और उसके पिटा की जुगलबंदी वाले सीन्स पूरा कर देते हैं. अनुराग कश्यप के डायलॉग्स सीधा दिल पर लगते हैं. एक सीरियस फिल्म में कॉमेडी का मज़ेदार पंच है.

एक बात जिसके लिए अनुराग की तारीफ़ किया जाना ज़रूरी है वो ये कि उन्होंने फिल्म में ना सिर्फ बॉक्सिंग पर बात की, बल्की उन्होंने जाती और भीड़तंत्र के मुद्दों पर भी बात की. लेकिन किसी भी टॉपिक को मुक्केबक़ज़ी से ज़्यादा तवज्जोह नही दी.

फिल्म का संगीत मनमोहक है और “मुश्किल है अपना प्रेम प्रिये” गाना पहले ही हिट है. बाकी गानें भी आपको कुछ वक़्त तक याद रहेंगे. बतौर संगीत निर्देशक ये रचिता अरोड़ा की पहली फिल्म है और उनका काम सुकून देता है.

अंत में फिल्म समीक्षक से इतर एक बात जो मुझे बहुत भाई वो ये कि स्क्रीन पर आपको बरेली बखूबी देखने को मिलेगा. बरेली से होने की वजह से अपने शहर के गली-चौराहे अपना कॉलेज बड़े परदे पर देखकर एक अलग ही रोमांच महसूस हो रहा था.

कुल मिलाकर इसे 3.5 स्टार्स!