हिंदू राजा को मारकर खूबसूरत राजकुमारी से शादी की: कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक कौन था; घाटी में कैसे फैला इस्लाम h3>
दैनिक NEWS4SOCIALडिजिटल लाया है कश्मीर का इतिहास, युद्ध और राजनीति को समेटे 5 एपिसोड की स्पेशल सीरीज- मैं कश्मीर हूं। आज पहले एपिसोड में कश्मीर के बनने, शुरुआती हिंदू राजाओं और इस्लाम के फैलने के रोचक किस्से… **** आज से करीब 700 साल पहले। कश्मीर में सह
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एक दिन कश्मीर में तिब्बत का एक राजकुमार रिंचन पहुंचा। उसके साथ सैकड़ों हथियारबंद सैनिक थे। रिंचन ने रामचंद्र को बताया कि गृहयुद्ध में उसके पिता मारे जा चुके हैं। वो जोजिला दर्रे के रास्ते जान बचाकर यहां पहुंचा है। रामचंद्र ने रिंचन को पनाह दे दी।
मशहूर कश्मीरी इतिहासकार पृथ्वीनाथ कौल बामजई अपनी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ में लिखते हैं कि इसी दौरान 1320 ईस्वी में जुल्चू नाम के मंगोल सेनापति ने कश्मीर पर हमला कर दिया। राजा सहदेव बिना लड़े ही किश्तवाड़ भाग गया। जुल्चू ने 8 महीने तक कश्मीर में खूब उत्पात मचाया। लौटते वक्त दिवासर परगना की चोटी के पास बर्फीले तूफान में सेना समेत दफन हो गया।
अब कश्मीर पर सीधे सहदेव के प्रधानमंत्री रहे रामचंद्र का शासन हो गया। तिब्बती शरणार्थी राजकुमार रिंचन ने मौका पाकर विद्रोह कर दिया और रामचंद्र की हत्या करवा दी और कश्मीर की गद्दी पर बैठ गया। उसने रामचंद्र की बेटी कोटा से शादी का प्रस्ताव रखा, लेकिन वो पिता के हत्यारे से शादी को तैयार नहीं थी।
राजकुमारी कोटा को शादी के लिए मनाता रिंचन। (स्केचः संदीप पाल)
बहुत मनुहार के बाद आखिरकार कोटा, रिंचन की रानी बनने को राजी हो गई। रिंचन खुद को बौद्ध लामा मानता था, रानी कोटा चाहती थी कि वो हिंदू बन जाए। हालांकि, उसने इस्लाम धर्म अपनाया और इस तरह कश्मीर को पहला मुस्लिम शासक मिला। आखिर रिंचन ने इस्लाम ही क्यों अपनाया? कश्मीर की कहानी को 5 चैप्टर में जानते हैं…
कश्मीर के बसने से जुड़ी 3 मिथकीय कथाएं मिलती हैं…
पहला- कश्यप ऋषि का किस्साः हिंदू माइथोलॉजी के नीलमत पुराण के मुताबिक कश्मीर घाटी पहले सतीसर नाम की एक विशाल झील थी, जिसमें जलोद्भव नाम का राक्षस रहता था। ब्रह्मा के पोते कश्यप ऋषि ने वराह-मुला की पहाड़ी का एक हिस्सा काटकर कर झील सुखा दी और जलोद्भव मारा गया। कश्यप ने वहां के रहने वाले नागों को इंसानों को भी साथ में रहने देने का आदेश दिया। इन्हीं ऋषि कश्यप के नाम पर कश्यप-पुरा बसा, जिसे अब कश्मीर के नाम से जाना जाता है।
दूसरा- काशेफ जिन्न का किस्साः सूफी लेखक ख्वाजा आजम ने 1747 में ‘वाकयात-ए-कश्मीर’ में कश्यप ऋषि की जगह काशेफ जिन्न को रखकर इस कहानी का इस्लामी स्वरूप पेश किया। इन्हीं आजम के बेटे बदुद्दीन ने तो कश्मीर को सीधे आदम-हौव्वा की कहानी से जोड़ दिया। उनके मुताबिक कश्मीर में रहने वालों को खुद हजरत मूसा ने इबादत करना सिखाया। मूसा की मौत भी कश्मीर में हुई और उनका मकबरा भी वहीं है।
तीसरा- मध्यांतिक नाम के बौद्ध का किस्साः प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के मुताबिक कश्मीर एक झील थी, जिसमें नाग रहते थे। एक बार बुद्ध ने कहा था कि मेरी मृत्यु के बाद एक मध्यांतिक नाम का बौद्ध यहां लोगों को बसाकर एक राज्य की स्थापना करेगा। बुद्ध की मृत्यु के 50 साल बाद मध्यांतिक नाम का शिष्य कश्मीर गया और उसने झील सुखा दी। मध्यांतिक ने यहां कई बौद्ध मठों की स्थापना की।
कश्मीर का पहला ऐतिहासिक साक्ष्य 1960 के दशक में बुर्जहोम की खुदाई में मिलता है। यह साइट श्रीनगर से करीब 8 किलोमीटर दूर है।
बुर्जहोम साइट का मौजूदा दृश्य। अवशेषों से पता चलता है कि यहां 3 से 5 हजार साल पहले आबादी रहती थी।
खुदाई करने वाली टीम के निदेशक टी.एन. खजांची कहते हैं कि उस वक्त किसी संगठित धर्म का कोई सबूत नहीं मिलता। इन वैज्ञानिक खोजों ने कश्मीर के जन्म की कश्यप, काशेफ और मध्यांतिक की कहानी पर सवाल खड़े कर दिए।
कश्मीर पर अलग-अलग वंश के बौद्ध और हिंदू राजाओं का शासन रहा। इनमें ललितादित्य का जिक्र बेहद जरूरी है। 724 से लेकर 761 ईस्वी तक उनके शासन को कश्मीर का स्वर्णयुग माना जाता है। ललितादित्य ने 14 वर्ष तक सैन्य अभियान चलाया और अफगानिस्तान, पंजाब, बिहार, बंगाल और ओडिशा तक जीत हासिल की।
अमेरिका की विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आंद्रे विंक अपनी किताब अल-हिंद में लिखते हैं कि ललितादित्य ने चीन के शिनजियांग प्रांत का भी बड़ा हिस्सा जीत लिया था।
राजतरंगिणी में कल्हण लिखते हैं कि ललितादित्य ने पुल, मठ, नहरें और पनचक्की बनवाईं। उस दौरान कई नए शहर भी बसाए गए। उन्होंने नरहरि की एक विशाल प्रतिमा बनवाई, जो चुम्बकों की मदद से हवा में रहती थी। एक 54 हाथ लंबा विष्णु स्तंभ बनवाया। इसके अलावा भव्य मार्तंड मंदिर का निर्माण भी ललितादित्य ने ही कराया था।
ये स्केच कश्मीर के भव्य मार्तंड मंदिर का है। यहां से पूरी कश्मीर घाटी और पीर पंजाल की चोटियों को देखा जा सकता था।
ललितादित्य के समय कश्मीर का पहला संपर्क अरब मुसलमानों से हुआ। हालांकि किसी के लिए भी कश्मीर में घुसपैठ आसान नहीं थी। यहां तक पहुंचने का रास्ता दुर्गम था। करीब 250 साल बाद महमूद गजनी (महमूद गजनवी) ने कश्मीर पर हमले की ठानी।
महमूद गजनी भारत पर हमला करने वाला पहला तुर्क था। उसने 1000 ईस्वी से 1027 ईस्वी के बीच भारत पर 17 बार हमला किया। उसका मकसद लूट करना था, जिसमें वो कामयाब भी हुआ। कश्मीर पर भी उसकी नजर पड़ी।
1015 ईस्वी में उसने पहली बार तोसा-मैदान दर्रे के रास्ते कश्मीर पर हमला किया। उस वक्त कश्मीर में संग्राम राजा का शासन था। गजनी की सेना दुर्गम रास्तों में भटक गई और बाढ़ में भी फंस गई। जबरदस्त प्रतिरोध भी हुआ और गजनी को खाली हाथ लौटना पड़ा। उसका काफी नुकसान हुआ।
गजनी का मुकाबला करते कश्मीर के शासक संग्रामराजा और उनकी सेना। (स्केचः संदीप पाल)
उसने 1021 ईस्वी में फिर कश्मीर पर हमला किया। 1 महीने तक लगातार कोशिश करने के बाद भी वो लौहकोट की किलाबंदी नहीं भेद सका। घाटी में बर्फबारी शुरू होने वाली थी। गजनी समझ गया कि कश्मीर को जीतना मुश्किल है। वो लौटा और फिर कभी कश्मीर की तरफ मुड़कर नहीं आया।
इसके बाद के कश्मीरी राजा कमजोर होते रहे। वो अपने भोग-विलास में इस कदर मसरूफ रहे कि उन्हें अपना राजदंड और मुकुट भी विदेशी व्यापारी के यहां गिरवी रखना पड़ा।
उत्पल वंश के राजा हर्षदेव ने 1089 से 1111 ईस्वी तक कश्मीर पर शासन किया। इस दौरान फिजूलखर्ची और अय्याशी से वो कंगाल हो गया। माना जाता है कि वो इस्लाम से इस कदर प्रभावित हुआ कि मूर्ति पूजा छोड़ दी। उसने कश्मीर में मौजूद मूर्तियों, हिंदू मंदिरों और बौद्ध मठों को भी ध्वस्त कराना शुरू कर दिया। इस काम के लिए ‘देवोत्पतन नायक’ नाम का विशेष पद बनाया।
हर्षदेव ने मंदिरों के खजानों को लूट लिया। भगवान और देवियों की सोने और चांदी की मूर्तियों को पिघलाना शुरू कर दिया। तुर्कों को सेनानायक तक बना दिया। हर्षदेव के समकालीन इतिहासकार कल्हण ने उन्हें ‘तुरुष्क’ यानी ‘तुर्क’ कहा।
वेनिस के व्यापारी मार्को पोलो के यात्रा-संस्मरणों से पता चलता है कि तेरहवीं सदी के अंत तक कश्मीर में मुसलमानों की बस्ती बन चुकी थी। ज्यादातर बाशिंदे कसाई का काम करते थे। हर्षदेव के बाद कश्मीर के लगभग सभी राजाओं के यहां तुर्क सैनिकों के प्रमाण मिलते हैं।
इस आर्टिकल की शुरुआत में आपने तिब्बत से भागकर कश्मीर आए राजकुमार रिंचन की कहानी पढ़ी। जिसने शासक रामचंद्र की हत्या करवाकर उनकी बेटी कोटा से शादी कर ली। अब रिंचन के सामने सवाल था कि वो कौन-सा धर्म अपनाए। एक बौद्ध राजा को कश्मीर की जनता की स्वीकार्यता मुश्किल थी।
लेखक अशोक कुमार पांडेय अपनी किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ में लिखते हैं, ‘रिंचन हिंदू धर्म अपनाना चाहता था, लेकिन उसके तिब्बती बौद्ध होने की वजह से ब्राह्मणों ने उसे दीक्षित करने से इनकार कर दिया।’
रिंचन को हिंदू धर्म में शामिल न करने की 3 वजहें गिनाई जाती हैं-
- वो तिब्बती बौद्ध था।
- उसने अपने ससुर हिंदू राजा रामचंद्र की हत्या की थी।
- उसे हिंदू धर्म में अपनाया जाता तो उच्च जाति में शामिल करना पड़ता।
ब्राह्मणों के इनकार के बाद रिंचन मन की शांति के लिए कश्मीर में रह रहे एक सूफी संत बुलबुल शाह से मिलने गया। उनके प्रभाव में आकर उसने इस्लाम अपना लिया और सुल्तान सदरुद्दीन के नाम से कश्मीर की गद्दी पर बैठा।
इस तरह रिंचन धर्म बदलकर कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक सदरुद्दीन बना। हालांकि कई इतिहासकारों का मानना है कि उसके इस फैसले के पीछे पश्चिम एशिया और कश्मीर के आसपास के इलाकों में इस्लाम का बढ़ता प्रभाव था। इस्लाम अपनाना राजनीतिक रूप से ज्यादा सुरक्षित था।
रिंचन के चचेरे ससुर रावणचंद्र को भी बुलबुल शाह ने इस्लाम कबूल करवाया। इसके अलावा रिंचन के साथ आए बौद्ध सैनिक, शासन-प्रशासन के कई बड़े अधिकारी भी बुलबुल शाह के प्रभाव में आकर मुस्लिम बने। श्रीनगर की पहली मस्जिद भी रिंचन उर्फ सुल्तान सदरुद्दीन ने बनवाई थी।
कश्मीर की पहली मस्जिद आज भी मौजूद है। 1327 में बुलबुल शाह की मृत्यु के बाद उन्हें इसी मस्जिद के पास दफनाया गया।
हालांकि, रिंचन सुकून से शासन नहीं कर सका। 1323 ईस्वी में उसकी मौत हो गई। कश्मीर की गद्दी पर कश्मीर छोड़कर भागे राजा सहदेव का भाई उदयनदेव बैठा और रिंचन की पत्नी कोटा रानी को शादी करने पर मजबूर किया। 1338 ईस्वी में उदयनदेव की मृत्यु हुई तो रिंचन के मंत्री रहे शाहमीर ने सत्ता पर कब्जा किया। इस तरह कश्मीर में पहले मुस्लिम वंश (शाहमीर वंश) की स्थापना हुई। इस वंश ने 220 साल तक शासन किया।
शाहमीर वंश का सबसे विवादित शासक सुल्तान सिकंदर था। वो 1389 में गद्दी पर बैठा। कश्मीरी विद्वान प्रेमनाथ बजाज उसके शासन को कश्मीर के इतिहास का काला धब्बा मानते हैं। सिकंदर के शासन में प्रमुख ईरानी सूफी संत सैय्यद अली हमदानी के बेटे सैय्यद मुहम्मद हमदानी कश्मीर आए। सुल्तान ने उनके लिए खानकाह का निर्माण कराया।
इतिहासकार जोनराज लिखते हैं कि सुल्तान सिकंदर धर्म के नशे में चूर था। उसने सुहाभट्ट नाम के ब्राह्मण को अपना मुख्य सलाहकार बनाया। सूफी संत सैय्यद हमदानी ने सुहाभट्ट को मुस्लिम बनाकर मलिक सैफुद्दीन नाम दिया और उसकी बेटी से निकाह कर लिया।
सुहाभट्ट उर्फ सैफुद्दीन के सुझाव पर सुल्तान ने कश्मीर के सभी ब्राह्मणों और विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश दिया। इस्लाम न अपनाने वालों से घाटी छोड़कर जाने को कहा गया। उसके शासन में मंदिर तोड़ने का अभियान चला। सोने-चांदी की मूर्तियां शाही टकसाल में गलाकर सिक्कों में बदल दी गईं।
1420 ईस्वी में सुल्तान सिकंदर का बेटा जैनुल आबदीन गद्दी पर बैठा। वो अपने पिता की धार्मिक कट्टरता से बिल्कुल उलट था। उसने मंदिरों को फिर से बनवाया। कश्मीर से निकाले गए ब्राह्मणों की वापसी की कोशिश की। जजिया कर हटा दिया। गोहत्या पर रोक लगा दी।
जैनुल आबदीन कश्मीरी, फारसी, संस्कृत और अरबी का विद्वान था। उसके आदेश पर महाभारत और कल्हण की राजतरंगिणी का फारसी में अनुवाद किया गया। शिव भट्ट उसके निजी चिकित्सक और सलाहकार थे। उसने कई हिंदुओं और बौद्धों को अपने दरबार में जगह दी।
‘मैं कश्मीर हूं’ सीरीज के दूसरे एपिसोड में कल यानी 29 अप्रैल को पढ़िए- कैसे राजा रणजीत सिंह ने अफगानों को खदेड़कर कश्मीर को सिख साम्राज्य में मिलाया। बाद में राजा गुलाब सिंह ने अंग्रेजों से 75 लाख रुपए में कैसे खरीदी जम्मू-कश्मीर रियासत…
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नोट- ये सीरीज पहली बार सितंबर 2024 में इसी प्लेटफॉर्म पर पब्लिश की गई थी। ***
References and further readings…
- Rajatarangini by Kalhana, translation by Shrutidev Shashtri
- A History of Kashmir by Prithvinath Kaul Bamzai
- Kashmir: Glimpses of History and the Story of Struggle by Saifuddin Soz
- कश्मीर नामा by अशोक कुमार पांडेय
- कश्मीर और कश्मीरी पंडित by अशोक कुमार पांडेय
- कश्मीरः इतिहास और परंपरा by कुमार निर्मलेंदु
- Kashmir: A Journey through history by Garry weare