रुचिर शर्मा का कॉलम: हाई टैरिफ दुनिया में उभर रहे हैं नए विजेता और पराजित h3>
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- Ruchir Sharma’s Column: New Winners And Losers Are Emerging In The High Tariff World
4 घंटे पहले
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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व लेखक
ट्रेड-वॉर ने जो अफरातफरी मचाई है, उसकी धूल अभी जमी नहीं है, और ट्रम्प के रहते शायद कभी न जमे। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में अमेरिका के नेतृत्व वाली कम टैरिफ वाली दुनिया में अब वापसी मुमकिन नहीं। प्रभावी अमेरिकी टैरिफ दर 10 प्रतिशत से कहीं अधिक रहने की संभावना है, जो पिछले साल तक प्रचलित 2.5 प्रतिशत की दर से कहीं अधिक है। इसलिए समय आ गया है कि हाई टैरिफ वाली हमारी नई दुनिया की मैपिंग शुरू कर दी जाए।
अमेरिका की ट्रेड-आक्रामकता ने पहले ही घरेलू व्यवसायों और वैश्विक निवेशकों के बीच काफी संदेह पैदा कर दिया है। इससे लंबे समय से स्थापित आपूर्ति शृंखलाओं और पूंजीगत प्रवाह में बुनियादी बदलावों का दौर शुरू होगा। सबसे बड़ा नुकसान वैश्वीकरण की सबसे बड़ी लाभार्थियों यानी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होने की संभावना है। हाल के दशकों में जैसे-जैसे व्यापार और पूंजी की बाधाएं कम होती गई हैं, अमेरिकी कॉर्पोरेट्स ने अपने देश की तुलना में विदेशों में बहुत तेजी से मुनाफा बढ़ाया है।
1960 के दशक से ही एसएंडपी500 कंपनियों के लिए लाभ का मार्जिन स्थिर रहा था। फिर 2000 के बाद यह लगभग दोगुना होकर लगभग 13 प्रतिशत हो गया। चीन ने भी इसी दौर में डब्ल्यूटीओ में प्रवेश किया था। कई अमेरिकी दिग्गजों ने अमेरिकी ब्रांड्स की लोकप्रियता का लाभ उठाकर और सस्ती लागत वाले देशों को उत्पादन आउटसोर्स करके अपने विकसित प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में कहीं अधिक लाभ कमाया।
आज अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने राजस्व का 40% से अधिक विदेशों में कमा रही हैं। सबसे अधिक लाभ मैन्युफैक्चरर्स को हुआ, जो अपने कर्मचारियों को विदेशों में घरेलू कर्मचारियों की तुलना में औसतन 60% कम भुगतान करते हैं। अब अमेरिकी कारोबारी विदेश में नई फैक्टरियां स्थापित करने से पहले दो बार सोचेंगे और मुनाफे को अधिकतम करने के अपने दोटूक तर्क से प्रेरित नहीं होंगे। विशेष रूप से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने मुनाफे के मार्जिन पर लगातार दबाव का सामना करना पड़ेगा।
टैरिफ-नीति पर गुस्से के चलते ‘मेड इन अमेरिका’ अब ग्राहकों से ज्यादा विवादों को आकर्षित कर रहा है। दो तिहाई जर्मन आज कहते हैं कि वे अमेरिकी उत्पादों से परहेज कर रहे हैं। स्वीडन और फ्रांस में सोशल मीडिया पर अमेरिकी उत्पादों का बायकॉट किया जा रहा है। कनाडा की नाराजगी का तो कोई पारावार नहीं। वहां के उपभोक्ता अमेरिकी के बजाय जापानी व्हिस्की की ओर रुख कर रहे हैं, अमेरिकी स्ट्रीमिंग सेवाएं रद्द कर रहे हैं और वहां की यात्राएं रद्द कर रहे हैं।
ऐसे में ऐसी स्थिति की कल्पना करना मुश्किल है जिसमें अमेरिका इस टैरिफ-युद्ध के बाद विजेता के रूप में उभरे। यह जरूर हो सकता है कि अमेरिका अपने कुछ उद्देश्यों को प्राप्त कर ले, जैसे कि फैक्टरियों में अधिक नौकरियां पैदा करना और कथित रूप से अनुचित ट्रेड-भागीदारों को दंडित करना। लेकिन इसके बावजूद ऊंची कीमतों, कम दक्षता और नीति-निर्माण की विश्वसनीयता को पहुंची क्षति से अमेरिका को होने वाला नुकसान किसी भी लाभ से अधिक ही होगा।
बड़ी अमेरिकी कंपनियों से मिलने वाले असाधारण मुनाफे और ग्रोथ से मंत्रमुग्ध हो चुके निवेशकों को जल्द ही एक देश में इतनी पूंजी केंद्रित करने की अपनी मूर्खता का एहसास होने लगा है। इस दशक में अब तक अमेरिका ने दुनिया भर के शेयर बाजारों में प्रवाहित होने वाले धन के 80 प्रतिशत को अपनी ओर आकर्षित किया है, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। दुनिया भर के संस्थागत निवेशक तेजी से अपने अमेरिकी जोखिम को कम कर रहे हैं।
इससे भारत या ब्राजील जैसी उभरती हुई इकोनॉमी को लाभ हो सकता है, जहां एक बड़ा घरेलू बाजार उनके जीडीपी का 70 प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा है और वह व्यापार युद्धों से सुरक्षा प्रदान करता है। निर्यात-आधारित विकास मॉडल का बचाव करने के लिए कई देश अब एक साथ आ रहे हैं। जापान ट्रम्प-टैरिफ के लिए संयुक्त प्रतिक्रिया के बारे में दक्षिण कोरिया और चीन से बात कर रहा है।
इस बीच, चीन और भारत ने अमेरिकी ट्रेड-वॉर के प्रभाव को कम करने को लेकर सहयोग करने के बारे में आवाज उठाई है। लैटिन अमेरिका में, ब्राजील अपने संरक्षणवादी आवेगों को त्याग रहा है और यूरोप के साथ एक नए सौदे पर तेजी से काम कर रहा है। वह चीन से भी व्यापार को बढ़ावा दे रहा है। अमेरिका से अपने आयात को कम करने के लिए चीन ने हाल ही में ब्राजील से भारी मात्रा में सोयाबीन खरीदा है।
- जैसे-जैसे अमेरिका-चीन में ट्रेड-वॉर गहराएगा, यूरोप का रणनीतिक महत्व बढ़ता जाएगा। यूरोप दोनों महाशक्तियों की लड़ाई में संतुलन बना सकता है। जब जंगल में दो हाथी लड़ते हैं, तो छोटे जीव कुचले जाते हैं। लेकिन हमेशा नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व लेखक
ट्रेड-वॉर ने जो अफरातफरी मचाई है, उसकी धूल अभी जमी नहीं है, और ट्रम्प के रहते शायद कभी न जमे। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में अमेरिका के नेतृत्व वाली कम टैरिफ वाली दुनिया में अब वापसी मुमकिन नहीं। प्रभावी अमेरिकी टैरिफ दर 10 प्रतिशत से कहीं अधिक रहने की संभावना है, जो पिछले साल तक प्रचलित 2.5 प्रतिशत की दर से कहीं अधिक है। इसलिए समय आ गया है कि हाई टैरिफ वाली हमारी नई दुनिया की मैपिंग शुरू कर दी जाए।
अमेरिका की ट्रेड-आक्रामकता ने पहले ही घरेलू व्यवसायों और वैश्विक निवेशकों के बीच काफी संदेह पैदा कर दिया है। इससे लंबे समय से स्थापित आपूर्ति शृंखलाओं और पूंजीगत प्रवाह में बुनियादी बदलावों का दौर शुरू होगा। सबसे बड़ा नुकसान वैश्वीकरण की सबसे बड़ी लाभार्थियों यानी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होने की संभावना है। हाल के दशकों में जैसे-जैसे व्यापार और पूंजी की बाधाएं कम होती गई हैं, अमेरिकी कॉर्पोरेट्स ने अपने देश की तुलना में विदेशों में बहुत तेजी से मुनाफा बढ़ाया है।
1960 के दशक से ही एसएंडपी500 कंपनियों के लिए लाभ का मार्जिन स्थिर रहा था। फिर 2000 के बाद यह लगभग दोगुना होकर लगभग 13 प्रतिशत हो गया। चीन ने भी इसी दौर में डब्ल्यूटीओ में प्रवेश किया था। कई अमेरिकी दिग्गजों ने अमेरिकी ब्रांड्स की लोकप्रियता का लाभ उठाकर और सस्ती लागत वाले देशों को उत्पादन आउटसोर्स करके अपने विकसित प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में कहीं अधिक लाभ कमाया।
आज अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने राजस्व का 40% से अधिक विदेशों में कमा रही हैं। सबसे अधिक लाभ मैन्युफैक्चरर्स को हुआ, जो अपने कर्मचारियों को विदेशों में घरेलू कर्मचारियों की तुलना में औसतन 60% कम भुगतान करते हैं। अब अमेरिकी कारोबारी विदेश में नई फैक्टरियां स्थापित करने से पहले दो बार सोचेंगे और मुनाफे को अधिकतम करने के अपने दोटूक तर्क से प्रेरित नहीं होंगे। विशेष रूप से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने मुनाफे के मार्जिन पर लगातार दबाव का सामना करना पड़ेगा।
टैरिफ-नीति पर गुस्से के चलते ‘मेड इन अमेरिका’ अब ग्राहकों से ज्यादा विवादों को आकर्षित कर रहा है। दो तिहाई जर्मन आज कहते हैं कि वे अमेरिकी उत्पादों से परहेज कर रहे हैं। स्वीडन और फ्रांस में सोशल मीडिया पर अमेरिकी उत्पादों का बायकॉट किया जा रहा है। कनाडा की नाराजगी का तो कोई पारावार नहीं। वहां के उपभोक्ता अमेरिकी के बजाय जापानी व्हिस्की की ओर रुख कर रहे हैं, अमेरिकी स्ट्रीमिंग सेवाएं रद्द कर रहे हैं और वहां की यात्राएं रद्द कर रहे हैं।
ऐसे में ऐसी स्थिति की कल्पना करना मुश्किल है जिसमें अमेरिका इस टैरिफ-युद्ध के बाद विजेता के रूप में उभरे। यह जरूर हो सकता है कि अमेरिका अपने कुछ उद्देश्यों को प्राप्त कर ले, जैसे कि फैक्टरियों में अधिक नौकरियां पैदा करना और कथित रूप से अनुचित ट्रेड-भागीदारों को दंडित करना। लेकिन इसके बावजूद ऊंची कीमतों, कम दक्षता और नीति-निर्माण की विश्वसनीयता को पहुंची क्षति से अमेरिका को होने वाला नुकसान किसी भी लाभ से अधिक ही होगा।
बड़ी अमेरिकी कंपनियों से मिलने वाले असाधारण मुनाफे और ग्रोथ से मंत्रमुग्ध हो चुके निवेशकों को जल्द ही एक देश में इतनी पूंजी केंद्रित करने की अपनी मूर्खता का एहसास होने लगा है। इस दशक में अब तक अमेरिका ने दुनिया भर के शेयर बाजारों में प्रवाहित होने वाले धन के 80 प्रतिशत को अपनी ओर आकर्षित किया है, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। दुनिया भर के संस्थागत निवेशक तेजी से अपने अमेरिकी जोखिम को कम कर रहे हैं।
इससे भारत या ब्राजील जैसी उभरती हुई इकोनॉमी को लाभ हो सकता है, जहां एक बड़ा घरेलू बाजार उनके जीडीपी का 70 प्रतिशत या उससे अधिक हिस्सा है और वह व्यापार युद्धों से सुरक्षा प्रदान करता है। निर्यात-आधारित विकास मॉडल का बचाव करने के लिए कई देश अब एक साथ आ रहे हैं। जापान ट्रम्प-टैरिफ के लिए संयुक्त प्रतिक्रिया के बारे में दक्षिण कोरिया और चीन से बात कर रहा है।
इस बीच, चीन और भारत ने अमेरिकी ट्रेड-वॉर के प्रभाव को कम करने को लेकर सहयोग करने के बारे में आवाज उठाई है। लैटिन अमेरिका में, ब्राजील अपने संरक्षणवादी आवेगों को त्याग रहा है और यूरोप के साथ एक नए सौदे पर तेजी से काम कर रहा है। वह चीन से भी व्यापार को बढ़ावा दे रहा है। अमेरिका से अपने आयात को कम करने के लिए चीन ने हाल ही में ब्राजील से भारी मात्रा में सोयाबीन खरीदा है।
- जैसे-जैसे अमेरिका-चीन में ट्रेड-वॉर गहराएगा, यूरोप का रणनीतिक महत्व बढ़ता जाएगा। यूरोप दोनों महाशक्तियों की लड़ाई में संतुलन बना सकता है। जब जंगल में दो हाथी लड़ते हैं, तो छोटे जीव कुचले जाते हैं। लेकिन हमेशा नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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