नीरज कौशल का कॉलम: ट्रम्प का ट्रेड-वॉर दुनिया को बहुत महंगा पड़ने जा रहा है h3>
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5 घंटे पहले
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नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
क्या दुनिया के देश ट्रम्प के टैरिफ-युद्ध के विरुद्ध एकजुट होकर लड़ेंगे? विश्लेषकों की दलील तो यही है कि ट्रम्प की धौंस के आगे झुकने के बजाय दुनिया को उनसे लड़ने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाना चाहिए। उनका मत है कि ट्रम्प के दबाव में आना समस्या का समाधान नहीं है।
ट्रम्प को तो यह देखना अच्छा ही लगेगा कि दुनिया के नेता उन्हें खुश करने के लिए उनके घुटनों पर गिरें। तब वो धमकाने के दूसरे तरीके खोजने लगेंगे। उनके ‘मागा’ अभियान वाले इसे अमेरिका के फिर से ‘महान’ बनने का संकेत समझेंगे।
लेकिन यह देखना वाकई शानदार होगा कि दुनिया के बाकी देश मिलकर जवाबी कार्रवाई करें, अमेरिका के चारों ओर टैरिफ की दीवार बनाएं और दुनिया की इस महाशक्ति को वैश्विक रूप से बहिष्कृत कर दें। इससे अमेरिका के बाहर वैश्विक कारोबार बढ़ेगा।
साथ ही, यह उन तमाम राजनेताओं के लिए भी एक जरूरी सबक होगा, जो विश्व व्यापार व्यवस्था को कुचलने की आकांक्षा रखते हैं और जो अपने बेतुके सिद्धांतों को अमल में लाने के लिए दुनिया को मंदी में झोंकने से भी नहीं कतराएंगे।
यूं तो अमेरिका के बाहर की दुनिया बहुत बड़ी है, लेकिन क्या यूरोप ट्रम्प का मुकाबला करने के लिए एशियाई देशों के साथ हाथ मिला सकता है? या यूरोप ट्रम्प को सबक सिखाने के लिए अमेरिका के दो संकटग्रस्त पड़ोसियों मेक्सिको और कनाडा का साथ देगा? या फिर यूरोपीय संघ के 27 अमीर देश आखिरकार अपनी नींद से जागेंगे और अमेरिका के साथ ट्रेड-वॉर में शामिल होंगे? अफसोस कि ऐसा नहीं होने वाला। हाल-फिलहाल में तो नहीं।
पिछले हफ्ते ट्रम्प द्वारा अपने आयात पर 20% टैरिफ की घोषणा करने के बाद ईयू ने सबसे पहले अमेरिका के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करने के बजाय इस पर विचार किया कि चीन को यूरोप में अपना माल डम्प करने से कैसे रोकें।
नतीजतन, ब्रसेल्स ने चीनी ईवी पर 35% टैरिफ लगा दिया और वह दूसरे चीनी उत्पादों पर भी बहुत अधिक टैरिफ लगाने पर विचार कर रहा है। चीन पर ट्रम्प के टैरिफ की बौछार ने यूरोप को भी चीनी माल पर टैरिफ लगाने के लिए प्रेरित किया है। यानी ट्रम्प का सामना करने के बजाय यूरोप ने उलटे चीन के साथ ट्रेड-वॉर छेड़ दिया है।
जब बात अमेरिका की आती है, तो यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच जवाबी कार्रवाई के लिए आम सहमति नहीं बन पाती है। कुछ ईयू देश यूरोपीय संघ के ‘ट्रेड-बाज़ूका’ का उपयोग करना चाहते हैं। यह एंटी-कोर्शन इंस्ट्रूमेंट (एसीआई) यूरोपीय संघ को अमेरिकी तकनीकी, बैंकिंग और वित्तीय कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।
फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और बेल्जियम एसीआई का उपयोग करने के पक्ष में हैं, लेकिन अन्य देश- विशेष रूप से इटली, रोमानिया, ग्रीस और हंगरी इसके खिलाफ हैं। वे अमेरिका से बातचीत करना पसंद करते हैं। यूरोपीय संघ की नौकरशाही के भीतर नीति निर्माण की गति इतनी धीमी है कि अगर कोई आम सहमति बन जाती है, तो भी यूरोपीय संघ ट्रम्प के टैरिफ-युद्ध का मुकाबला नहीं कर पाएगा।
लेकिन कम से कम इस तरह की कार्रवाई ट्रम्प को अपने टैरिफों पर पुनर्विचार करने को जरूर मजबूर कर सकती है। 2023 में, यूरोपीय संघ और अमेरिका के बीच 818 अरब डॉलर का सर्विसेस ट्रेड था, जिसमें अमेरिका का ट्रेड सरप्लस 119 अरब डॉलर का था।
लेकिन एशियाई देशों के बारे में क्या? पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी के आधार पर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। उसने अमेरिकी माल पर 35% टैरिफ लगाकर जवाबी कार्रवाई की है। लेकिन क्या एशियाई देश ट्रेड-वॉर लड़ने के लिए चीन का साथ देंगे? जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया तो एशिया में चीन के प्रभाव को नियंत्रित रखने के मिशन में अमेरिका के साझेदार रहे हैं। वे ट्रम्प को विश्व व्यापार व्यवस्था को नष्ट करने से रोकने के लिए चीन का साथ कैसे दे सकेंगे?
और क्या भारत चीन से सुरक्षा-जोखिमों को नजरअंदाज करेगा और अमेरिका के बढ़ते संरक्षणवाद का मुकाबला करने के लिए चीन और अन्य एशियाई देशों के साथ गठबंधन बनाएगा? कई देशों ने चीन पर एंटी-डम्पिंग शुल्क लगाया है।
क्या वे इन मतभेदों को अलग रख पाएंगे और अमेरिका का सामना करने के लिए एक साथ आ पाएंगे? आशा ही की जा सकती है कि वो ऐसा करेंगे, क्योंकि ट्रम्प द्वारा शुरू किया गया ट्रेड-वॉर पूरी दुनिया को बहुत महंगा पड़ने जा रहा है।
क्या यूरोप-एशिया के देश अमेरिका से ट्रेड-वॉर लड़ने के लिए चीन का साथ देंगे? और क्या भारत चीन से सुरक्षा-जोखिमों को नजरअंदाज करके अमेरिका के संरक्षणवाद का मुकाबला करने के लिए चीन से गठबंधन बनाएगा? (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)
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नीरज कौशल, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
क्या दुनिया के देश ट्रम्प के टैरिफ-युद्ध के विरुद्ध एकजुट होकर लड़ेंगे? विश्लेषकों की दलील तो यही है कि ट्रम्प की धौंस के आगे झुकने के बजाय दुनिया को उनसे लड़ने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाना चाहिए। उनका मत है कि ट्रम्प के दबाव में आना समस्या का समाधान नहीं है।
ट्रम्प को तो यह देखना अच्छा ही लगेगा कि दुनिया के नेता उन्हें खुश करने के लिए उनके घुटनों पर गिरें। तब वो धमकाने के दूसरे तरीके खोजने लगेंगे। उनके ‘मागा’ अभियान वाले इसे अमेरिका के फिर से ‘महान’ बनने का संकेत समझेंगे।
लेकिन यह देखना वाकई शानदार होगा कि दुनिया के बाकी देश मिलकर जवाबी कार्रवाई करें, अमेरिका के चारों ओर टैरिफ की दीवार बनाएं और दुनिया की इस महाशक्ति को वैश्विक रूप से बहिष्कृत कर दें। इससे अमेरिका के बाहर वैश्विक कारोबार बढ़ेगा।
साथ ही, यह उन तमाम राजनेताओं के लिए भी एक जरूरी सबक होगा, जो विश्व व्यापार व्यवस्था को कुचलने की आकांक्षा रखते हैं और जो अपने बेतुके सिद्धांतों को अमल में लाने के लिए दुनिया को मंदी में झोंकने से भी नहीं कतराएंगे।
यूं तो अमेरिका के बाहर की दुनिया बहुत बड़ी है, लेकिन क्या यूरोप ट्रम्प का मुकाबला करने के लिए एशियाई देशों के साथ हाथ मिला सकता है? या यूरोप ट्रम्प को सबक सिखाने के लिए अमेरिका के दो संकटग्रस्त पड़ोसियों मेक्सिको और कनाडा का साथ देगा? या फिर यूरोपीय संघ के 27 अमीर देश आखिरकार अपनी नींद से जागेंगे और अमेरिका के साथ ट्रेड-वॉर में शामिल होंगे? अफसोस कि ऐसा नहीं होने वाला। हाल-फिलहाल में तो नहीं।
पिछले हफ्ते ट्रम्प द्वारा अपने आयात पर 20% टैरिफ की घोषणा करने के बाद ईयू ने सबसे पहले अमेरिका के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करने के बजाय इस पर विचार किया कि चीन को यूरोप में अपना माल डम्प करने से कैसे रोकें।
नतीजतन, ब्रसेल्स ने चीनी ईवी पर 35% टैरिफ लगा दिया और वह दूसरे चीनी उत्पादों पर भी बहुत अधिक टैरिफ लगाने पर विचार कर रहा है। चीन पर ट्रम्प के टैरिफ की बौछार ने यूरोप को भी चीनी माल पर टैरिफ लगाने के लिए प्रेरित किया है। यानी ट्रम्प का सामना करने के बजाय यूरोप ने उलटे चीन के साथ ट्रेड-वॉर छेड़ दिया है।
जब बात अमेरिका की आती है, तो यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच जवाबी कार्रवाई के लिए आम सहमति नहीं बन पाती है। कुछ ईयू देश यूरोपीय संघ के ‘ट्रेड-बाज़ूका’ का उपयोग करना चाहते हैं। यह एंटी-कोर्शन इंस्ट्रूमेंट (एसीआई) यूरोपीय संघ को अमेरिकी तकनीकी, बैंकिंग और वित्तीय कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।
फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और बेल्जियम एसीआई का उपयोग करने के पक्ष में हैं, लेकिन अन्य देश- विशेष रूप से इटली, रोमानिया, ग्रीस और हंगरी इसके खिलाफ हैं। वे अमेरिका से बातचीत करना पसंद करते हैं। यूरोपीय संघ की नौकरशाही के भीतर नीति निर्माण की गति इतनी धीमी है कि अगर कोई आम सहमति बन जाती है, तो भी यूरोपीय संघ ट्रम्प के टैरिफ-युद्ध का मुकाबला नहीं कर पाएगा।
लेकिन कम से कम इस तरह की कार्रवाई ट्रम्प को अपने टैरिफों पर पुनर्विचार करने को जरूर मजबूर कर सकती है। 2023 में, यूरोपीय संघ और अमेरिका के बीच 818 अरब डॉलर का सर्विसेस ट्रेड था, जिसमें अमेरिका का ट्रेड सरप्लस 119 अरब डॉलर का था।
लेकिन एशियाई देशों के बारे में क्या? पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी के आधार पर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। उसने अमेरिकी माल पर 35% टैरिफ लगाकर जवाबी कार्रवाई की है। लेकिन क्या एशियाई देश ट्रेड-वॉर लड़ने के लिए चीन का साथ देंगे? जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया तो एशिया में चीन के प्रभाव को नियंत्रित रखने के मिशन में अमेरिका के साझेदार रहे हैं। वे ट्रम्प को विश्व व्यापार व्यवस्था को नष्ट करने से रोकने के लिए चीन का साथ कैसे दे सकेंगे?
और क्या भारत चीन से सुरक्षा-जोखिमों को नजरअंदाज करेगा और अमेरिका के बढ़ते संरक्षणवाद का मुकाबला करने के लिए चीन और अन्य एशियाई देशों के साथ गठबंधन बनाएगा? कई देशों ने चीन पर एंटी-डम्पिंग शुल्क लगाया है।
क्या वे इन मतभेदों को अलग रख पाएंगे और अमेरिका का सामना करने के लिए एक साथ आ पाएंगे? आशा ही की जा सकती है कि वो ऐसा करेंगे, क्योंकि ट्रम्प द्वारा शुरू किया गया ट्रेड-वॉर पूरी दुनिया को बहुत महंगा पड़ने जा रहा है।
क्या यूरोप-एशिया के देश अमेरिका से ट्रेड-वॉर लड़ने के लिए चीन का साथ देंगे? और क्या भारत चीन से सुरक्षा-जोखिमों को नजरअंदाज करके अमेरिका के संरक्षणवाद का मुकाबला करने के लिए चीन से गठबंधन बनाएगा? (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)
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