संजय कुमार का कॉलम: वक्फ का मुद्दा बिहार के चुनावों में असर दिखाएगा?

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संजय कुमार का कॉलम:  वक्फ का मुद्दा बिहार के चुनावों में असर दिखाएगा?

संजय कुमार का कॉलम: वक्फ का मुद्दा बिहार के चुनावों में असर दिखाएगा?

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2 घंटे पहले

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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार

वक्फ संशोधन विधेयक के पारित होने पर राजनीतिक दलों की ओdर से तीखी प्रतिक्रियाएं आई है बिहार में 2025 के अंत में चुनाव होने हैं। यह सच है कि बिहार में मुस्लिम मतदाता बड़ी तादाद में हैं और वे बिहार के कई विधानसभा क्षेत्रों में नतीजों को प्रभावित करने की

क्षमता रखते हैं। इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि वक्फ को लेकर बिहार में जदयू और एनडीए की चुनावी संभावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वैसे भी यह गठबंधन कभी भी मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद नहीं रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में मुस्लिम वोटर कुल मतदाताओं का लगभग 18% हैं। राज्य में 40 सीटें ऐसी हैं, जहां 25% से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं। 20 अन्य सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाताओं का अनुपात 20-25% के बीच है।

अमौर और कोचाधामन जैसे क्षेत्रों में तो 74% मुस्लिम मतदाता हैं, वहीं बायसी और बहादुरगंज में लगभग 70% मुस्लिम मतदाता हैं। बिहार के कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में से लगभग 60-70 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। किसी एक या दूसरी पार्टी के पक्ष में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण पार्टी या गठबंधन की चुनावी संभावनाओं को उज्ज्वल कर सकता है।

लेकिन मुस्लिम मतदाताओं में नाराजगी से एनडीए की चुनावी संभावनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ सकता, क्योंकि पसमांदा मुसलमानों में लोकप्रिय होने के बावजूद नीतीश 2015 के चुनाव को छोड़कर मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में नहीं ला पाए हैं।

2015 में उन्होंने राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन किया था। लेकिन आज केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर भाजपा के साथ गठबंधन में होने की वजह से नीतीश मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने में सक्षम नहीं हैं।

लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव-उपरांत सर्वेक्षणों से पता चलता है कि राजद के नेतृत्व वाले गठबंधनों ने ही पिछले तीन दशकों में मुस्लिम वोटों का बड़ा हिस्सा हासिल किया है। 2005 के चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं ने बड़ी संख्या में राजद+ को वोट दिया था, हालांकि राजद गुट यह चुनाव हार गया था।

तब 40% मुसलमानों के वोट राजद+ को मिले थे, जबकि मात्र 4% ने ही भाजपा+ को वोट दिया था, जिसमें जदयू भी शामिल थी। कांग्रेस को 13% वोट मिले थे। मुस्लिम मतदाताओं के एक महत्वपूर्ण हिस्से (34%) ने अन्य छोटी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों को वोट दिया था। यह राजद और उसके सहयोगियों के 15 साल के शासन से मुस्लिमों के मोहभंग के कारण हो सकता है।

यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि 2015 में कांग्रेस राजद की सहयोगी थी, जबकि 2005 में ऐसा नहीं था। पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद, एनडीए कुछ मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने में कामयाब रहा।

2010 के चुनावों के दौरान एनडीए ने मुस्लिम समर्थन में मामूली वृद्धि देखी और 21% मुस्लिम मतदाताओं ने एनडीए को वोट दिया। इसके विपरीत, राजद के लिए समर्थन विभाजित था। 32% ने राजद का समर्थन किया और 22% ने कांग्रेस का। 2010 के चुनावों में क​ांग्रेस ने राजद के साथ गठबंधन नहीं किया था।

2015 में राजद, जदयू और कांग्रेस के महागठबंधन में मुस्लिमों का जबर्दस्त एकीकरण हुआ और 69% मुस्लिम मतदाताओं ने इस गठबंधन का समर्थन किया था। केवल 6% ही एनडीए के साथ गए। 2013 में भाजपा और जदयू के बीच दरार आने और जदयू के राजद से हाथ मिलाने से जदयू को मुस्लिम मतदाताओं के बीच विश्वसनीयता हासिल करने में मदद मिली।

2020 में, जदयू के एनडीए में शामिल होने के बावजूद एनडीए के लिए मुस्लिम वोट न्यूनतम रहा और केवल 5% मुसलमानों ने एनडीए का समर्थन किया। राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 76% मुस्लिम वोट मिले, जो 2015 की तुलना में उल्लेखनीय वृद्धि थी।

बिहार में एनडीए कभी भी मुस्लिम वोटों का लाभार्थी नहीं रहा है। नया कानून वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में बदलाव लाता है। 1947 में सरकार ने वक्फ संपत्तियों के महत्व को पहचाना और उन्हें संरक्षित और विनियमित करने के लिए कई कानून बनाए। लेकिन वक्फ संपत्ति का प्रशासन मुस्लिमों के हाथों में ही रहा। नया संशोधन गैर-मुस्लिमों को वक्फ बोर्डों में नियुक्त करने की अनुमति देता है। बिहार ही नहीं, पूरे देश के मुसलमान इस कानून से नाखुश हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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