नंदितेश निलय का कॉलम: आखिर आज हम सब इतनी जल्दी में क्यों रहने लगे हैं

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नंदितेश निलय का कॉलम:  आखिर आज हम सब इतनी जल्दी में क्यों रहने लगे हैं

नंदितेश निलय का कॉलम: आखिर आज हम सब इतनी जल्दी में क्यों रहने लगे हैं

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  • Nanditesh Nilay’s Column Why Are We All Living In Such A Hurry Today?

9 घंटे पहले

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नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक

हम ऐसे समय से गुजर रहे हैं, जहां गति एक बहुत ही महत्वपूर्ण मूल्य बन चुकी है। कम समय में लंबी दूरी तय करना इस दौर की मांग है। इसने समाज की हर संस्थाओं को प्रभावित किया है। पैट्रिक डिक्सन अपनी किताब ‘फ्यूचरवाइज’ में लिखते भी हैं कि ‘इससे पहले भविष्य कभी इतनी तेजी से अतीत नहीं बना था।’

स्पीड का मूल्य बिजनेस की दुनिया में है। क्वार्टर रिजल्ट्स के टारगेट्स हमेशा बढ़ते जाते हैं और उसे पूरा करने के लिए समय-सीमा कम कर दी जाती है। तमाम संस्थाएं स्पीड को चेहरा बनाकर उपभोक्ताओं को लुभाने में लगी हुई हैं। डोमिनोज ने अपने ग्राहकों से वादा किया कि मात्र तीस मिनट में वो पिज्जा की डिलीवरी करा देंगे और वो भी गर्म पिज्जा की।

यानी गति और गुणवत्ता, बिल्कुल साथ-साथ। हाल ही में जेप्टो ने सिर्फ दस मिनट में कोई भी ग्रॉसरी आइटम, सब्जी-दूध आदि को ग्राहकों तक पहुंचाने को अपना ‘यूएसपी’ बना दिया। ओला, उबर, रैपिडो ने पांच से दस मिनट में ग्राहकों के लिए टैक्सी की सेवा रखी है। क्रिकेट के खेल को भी हाल के वर्षों में देखें तो 20 ओवर में भी 200 से भी ज्यादा रन बनाए जा रहे हैं। मानो रन बनने नहीं, बरसने चाहिए।

तो क्या हम जाने-अनजाने हम एक ऐसे दौर में आ चुके हैं, जहां किसी भी क्षेत्र में व्यक्ति की कार्यकुशलता उसकी गति से तय होगी? लेकिन जिस तरह से हमारे अंदर एक अधीरता बढ़ती जा रही है, कहीं वह उसी गति से उपजा व्यवहार तो नहीं! अगर किसी कारणवश कोई हवाई जहाज लेट हो जाए, तो क्या हम बेचैन नहीं हो जाएंगे।

विमान की लैंडिंग के होते ही यात्री लगेज निकालने के लिए एकदम अफरातफरी मचा देते हैं। सबको पहुंचना है जल्दी और सभी को सबकुछ भी जल्दी ही चाहिए। यह अधीरता शेयर मार्केट में बखूबी देखी जा सकती है। पैसा इन्वेस्ट करने और लाभ कमाने की बेचैनी और अभी जिस तरह से बाजार औंधे मुंह गिरा है तो लोग उसी गति से पैसे निकाल भी रहे हैं।

आखिर हम सबकुछ शीघ्र ही क्यों चाहते हैं? कार्यक्षेत्र में भी रिजल्ट और सिर्फ रिजल्ट और वो भी कम समय में पाने का भाव क्या हमारे अंदर अनावश्यक दवाब नहीं बढ़ा रहा? नौकरशाही भी इस अधीरता का सामना कर रही है। जनता सोशल मीडिया का लेंस लिए हर विषय पर जवाब चाहती है और वह भी तुरंत।

रील्स की दुनिया कम समय में सबकुछ देखने और सुनने के मनोविज्ञान से ही उपजी है। ऐसे में गति के भरोसे ही कार्य करने से कई बार गुणवत्ता भी प्रभावित हो सकती है और सामाजिक व्यवहार में एक अजीब तरह की बेचैनी महसूस की जा सकती है। घर हो या अन्य संस्थाएं, गति के साथ उद्विग्नता भी हम सब को घेर रही है।

बुलेट ट्रेन की विश्वनीयता सिर्फ गति से ही तय नहीं होगी बल्कि उस सेफ्टी से भी तय होगी जिससे पैसेंजर्स की सुरक्षा जुड़ी होगी। हवाई जहाज की सफलता के पीछे वो सेफ्टी के मानक ही हैं जो गति की गुणवत्ता को संभालते हैं।

ई-कॉमर्स की दुनिया में जो डिलीवरी-बॉय आता है, उसकी सुरक्षा कौन तय करेगा? अधीर होता ग्राहक उसे फोन पर फोन करता जाता है और उसके लेट होने के कुछेक मिनटों को संवेदना से स्वीकार नहीं कर पाता। नौकरी और कस्टमर सर्विस के दौरान स्पीड के ‘विशियस सर्किल’ में फंसा वह व्यक्ति सुरक्षा को दरकिनार कर अपनी स्पीड को और बढ़ाता जाता है।

हां, यह स्पीड ही है जिसने मानव सभ्यता को विकास की दूरी कम समय में तय करना सिखाया। लेकिन उसके चलते बढ़ती अधीरता को ओढ़े जो सामाजिक व्यवहार बनता जा रहा है, उसे भी समझना जरूरी है। कम समय में लंबी दूरी तय करने का कौशल आज का सत्य हो सकता है, लेकिन उस सामाजिक व्यवहार का क्या, जहां हर कोई दूसरे को धक्का देकर आगे निकलना चाहता है?

बहुत जल्दी धनी होना चाहता है, ट्रेड मील या हाइवे पर महत्वाकांक्षी गति से भागना चाहता है? डिजिटल स्पीड से पैसे देता ग्राहक अपने सामान को भी उसी गति से चाहता है। आज नागरिक व्यवहार में गति से बढ़ती उद्विग्नता को भी कुछ धीमा करने की भी जरूरत है, तभी विकास की गति संतुलित हो सकेगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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