ब्लैकबोर्ड-रूसी टैंकर में हूं, कभी भी बम गिर सकता है: विदेश में नौकरी के नाम पर रूसी सेना में भर्ती करा दिया, जान गई और पैसा भी

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ब्लैकबोर्ड-रूसी टैंकर में हूं, कभी भी बम गिर सकता है:  विदेश में नौकरी के नाम पर रूसी सेना में भर्ती करा दिया, जान गई और पैसा भी

ब्लैकबोर्ड-रूसी टैंकर में हूं, कभी भी बम गिर सकता है: विदेश में नौकरी के नाम पर रूसी सेना में भर्ती करा दिया, जान गई और पैसा भी

भाई, एक परसेंट भी मेरे बचने का चांस नहीं है। मैं टैंकर के अंदर बैठा हूं, दोनों फोन में वीडियो बना दी है, तुझे मिले तो उसको आगे भेज देना। मुझे इतना दूर ले आए हैं जितना रूस से अपना देश भारत। बम फट रहे हैं यहां पर। कभी भी मेरे ऊपर कोई भी बम या मिसाइल गि

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बीच में फंस रहा हूं कहीं जाने के लायक नहीं हूं। शुक्र है भाई कि दूध की बोतल और एनर्जी ड्रिंक है, इन्हें पी रहा हूं। बाहर जाऊं तो ड्रोन है। अभी पास में ही मिसाइल फटी है। छोटा गेट खुला है, इसके सामने बैठा हूं। बचना मुश्किल है भाई, तेरे पास फोन आए तो सुन लेना, राम-राम…

मेरे भाई रवि का ये आखिरी वीडियो है, जो उसने 12 मार्च 2024 को अपने फोन में रिकॉर्ड किया था। तब से आज तक हम उसकी डेडबॉडी के इंतजार में बैठे हैं। एजेंट ने नौकरी के नाम पर भाई को रूसी आर्मी में भर्ती करवा दिया। यूक्रेन के खिलाफ जंग लड़ते हुए उसकी मौत हो गई।

ब्लैकबोर्ड में आज कहानी उन नौजवानों की जिन्हें रूस में नौकरी का झांसा देकर युद्ध लड़ने के लिए मजबूर किया गया…

हरियाणा के कैथल जिले के मटोर गांव के रहने वाले साहिल 22 साल के हैं। वे हाल ही में रूस से अपने गांव लौटे हैं। इस गांव के करीब हजार नौजवान विदेशों में काम कर रहे हैं। इन्हीं नौजवानों में से कुछ लोग रूस गए और नौकरी के नाम पर युद्ध में धकेल दिए गए। जब मैंने गांव पहुंचकर उन लोगों से बात करने की कोशिश की जो इसमें फंस गए थे, तो बहुत मुश्किल से साहिल हमसे बात करने को राजी हुए।

हरियाणा के साहिल की उस वक्त की फोटो, जब वो रूसी सेना में थे।

साहिल उन भारतीयों में से हैं जिन्हें अच्छी जॉब देने के नाम पर रूसी सेना में भर्ती करा दिया गया। वो जब तक कुछ समझते, उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया। आखिर कैसे वो हरियाणा के कैथल से रूस और यूक्रेन युद्ध के फ्रंटलाइन पर पहुंचे और फिर वहां से घर वापस आए।

साहिल को देखते ही मैंने पहला सवाल पूछा, आप रूसी सेना में कैसे शामिल हुए? साहिल कहते हैं कि मैं अपने किसी दोस्त की सिफारिश पर ट्रांसपोर्ट का काम करने के लिए रूस गया था। मुझे इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि रूसी सेना में भर्ती कर लिया जाएगा। मैंने आसपास जैसे ही रूसी सेना के लोगों को देखा तो तुरंत ही अपने दोस्त को फोन मिला दिया।

मेरे दोस्त ने कहा कि तुझे घबराने की जरूरत नहीं है, तुझे ट्रक में सामान लोड करना और उतारना है। अभी वहां युद्ध का माहौल चल रहा है इसलिए हर जगह आर्मी वाले नजर आएंगे। मैंने वहां 12 दिन काम किया जिसके बाद हमें किसी दूसरी जगह शिफ्ट किया जाने लगा।

साहिल कहते हैं कि हमसे जबरदस्ती एक साल तक रूसी सेना में रहने का कॉन्ट्रैक्ट साइन करवाया गया था।

शिफ्टिंग का पता चला तो मैंने फिर से दोस्त को फोन किया। उसने कहा कि बस तुम्हारे काम करने की जगह बदल रही है। हमें एक वैन में बैठा दिया गया और फोन भी ऑफ करवा दिया। उन्होंने कहा कि फोन ऑन रहने से दुश्मन को लोकेशन का पता चल सकता है। फिर हम लोगों को एक जर्जर बिल्डिंग में ले जाया गया। वहां सब कुछ तबाह हो चुका था। उन्होंने हमें वहां ठहराने के बाद एक डॉक्यूमेंट पर जबरदस्ती साइन करवा लिया। ये डॉक्यूमेंट रूसी भाषा में था, जिसमें रूसी सेना के साथ एक साल काम करने का कॉन्ट्रैक्ट था।

इस जगह से हमें एक ट्रक में डालकर यूक्रेन के किसी गांव में ले गए। मेरे साथ दो लोग राजस्थान से, कुछ लोग श्रीलंका से और अलग-अलग देशों के लोग भी थे। वहां पहुंचने पर हमें क्यूबा के कुछ लोग मिले। उनमें से एक को इंग्लिश आती थी जिसने हमें बताया कि हम डोनेस्क में थे।

उस जगह मौजूद सोल्जर से हमने पूछा कि हमें यहां क्यों लाया गया है, इस पर वो कहता है कि तुम अब रूसी सेना में हो और अब तुम्हारी ट्रेनिंग होगी। हमें बुलेटप्रूफ जैकेट, हेलमेट और गन दे दी गई। हमारे मना करने के बाद भी जबरदस्ती हमें ट्रेनिंग के लिए ये कहते हुए भेजा गया कि कुछ समय बाद तुम्हें वापस भेज दिया जाएगा।

बुलेटप्रूफ जैकेट, हेलमेट और गन लिए साहिल और उनके साथी।

हमारे लिए भाषा एक बहुत बड़ी समस्या थी। वहां किसी को ठीक से इंग्लिश भी नहीं आती थी। न हम उनकी बात समझते थे और न वो हमारी। कभी-कभी हमें एक ट्रांसलेटर मिलता था जिसके जरिए हम अपनी बात सीनियर के पास पहुंचाते थे।

युद्ध क्षेत्र में हमें खाने की भी बहुत दिक्कत थी। एक बोतल पानी और खाने के एक छोटे से डिब्बे के साथ दिन गुजारना होता था। हमें किसी भी जानवर का उबला हुआ मांस सिर्फ एक ब्रेड के साथ दिया जाता था। मैं शाकाहारी था, कभी मांस नहीं खाया था, लेकिन जिंदा रहने के लिए मांस भी खाना पड़ा।

साहिल कहते हैं कि रूसी सेना में खाने की काफी दिक्कत थी। खाने के एक छोटे से डिब्बे के साथ दिन गुजारना होता था।

कुछ दिन की ट्रेनिंग के बाद हमें लड़ाई लड़ने के लिए फ्रंट लाइन पर भेज दिया गया। हमने देखा कि लगातार फायरिंग हो रही थी और पूरा शहर तबाह हो चुका था। हमसे बंकर खुदवाए जाते थे। हमने घायलों और डेडबॉडी को ढोने का काम किया।

शुरुआत में बहुत घबराहट होती थी, लेकिन धीरे-धीरे खुद को समझाया कि युद्ध में डेडबॉडी ही देखने को मिलेंगी। हमने लोगों को मरते हुए देखा। शुरू-शुरू में मुझे नींद नहीं आती थी, खाना नहीं खाया जाता था, डिप्रेशन जैसा लगता था। हमारी भूख प्यास सब मिट चुकी थी।

साहिल बताते हैं कि हमने डेडबॉडी को ढोने का काम किया।

ट्रेनिंग के बाद हमारे हाथ में बंदूक पकड़ा कर लड़ने के लिए वॉर जोन में भेज दिया गया। जब भी हम लाशें देखते, मन विचलित हो जाता था। फ्रंटलाइन पर लाशें ही लाशें होती थीं जिन्हें देखकर बताना मुश्किल था कि मरने वाले यूक्रेनी हैं या रशियन। वहां डेडबॉडी देखकर हम लोग घबरा गए, इतने में एक ड्रोन अटैक हुआ।

एक ग्रेनेड मेरे साथी के पास आकर फटा, उसकी टांग उड़ गई। मांस का टुकड़ा मेरे मुंह पर आ गिरा। मैं बहुत डर गया था। ये सबकुछ बहुत ही वीभत्स था। मुझे इन चीजों को देखने की आदत नहीं थी और ना ही हमें अच्छी ट्रेनिंग दी गई थी। ये सब देखते हुए युद्ध में डटे रहना बहुत मुश्किल होता है।

साहिल कहते हैं कि प्रॉपर ट्रेनिंग के बिना ही हाथ में बंदूक थमाकर फ्रंटलाइन पर लड़ने भेज दिया गया।

ड्रोन से फेंके गए ग्रेनेड से मैं भी घायल हो गया, जिसके बाद मुझे एक अस्पताल में भेजा गया। अस्पताल में परिवार से बात करने के लिए हमें फोन दिया गया। मैंने वॉट्सएप के जरिए अपने भाई को सारी बातें बताईं और कहा कि जितना जल्दी हो सके, हमें बचा लो।

15 दिन के ट्रीटमेंट के बाद हमें हॉस्पिटल से छुट्टी मिली और फिर वॉर जोन में भेज दिया गया। आधा यूक्रेन पूरी तरह से तबाह हो चुका था। हमसे आर्टिलरी ढोने का काम करवाया गया और साथ-साथ रॉकेट लॉन्चर चलाने की ट्रेनिंग दी गई। कुछ मैगजीन और ग्रेनेड भी दिए गए। इस बार हमें लगा, बचेंगे नहीं क्योंकि फ्रंटलाइन पर लगातार फायरिंग हो रही थी।

वहां पहुंचकर मैं फिर से घायल हो गया और साढे़ तीन महीने तक हॉस्पिटल में एडमिट रहा। वहां से मैं लगातार घरवालों के संपर्क में रहा और यहां से निकलने का दबाव बनाता रहा। घरवाले भी भारत सरकार से लगातार संपर्क में थे। भारत सरकार के दबाव बनाने के बाद हमें छोड़ दिया गया। कुछ महीने में डॉक्यूमेंट प्रोसेसिंग करके हम लोगों को भारत वापस भेज दिया गया।

ग्रेनेड हमले में घायल साहिल साढे़ तीन महीने तक हॉस्पिटल में एडमिट रहे।

साहिल की मां मनप्रीतो उस वक्त को याद कर बताती हैं कि वो दिन बहुत मुश्किल थे। एक-एक पल बिताना मुश्किल था, नींद नहीं आती थी, बुरे-बुरे ख्याल आते थे। वीडियो कॉल पर बात करना मुश्किल होता था, लेकिन वो हिम्मत ना हारे इसलिए हम लोग खुशी-खुशी बातें करते थे।

हमें लगता था कि पैसे भी गए, छोरा भी गया, वहां कुछ हो जाता तो डेड बॉडी भी देखने को नहीं मिलती। ये कहते ही साहिल की मां रोने लगती हैं। कुछ देर रुककर वो कहती हैं इसे बाहर भेजने में हमारे 10 लाख खर्च हो गए। वो दिन याद करके दिल बैठ जाता है।

साहिल के अंकल सोनू कहते हैं कि एजेंट ने हमें कहा था कि हम इससे ट्रांसपोर्ट का काम करवाएंगे। वहां पहुंचने के 15 दिन बाद साहिल का फोन आता है कि हमारे साथ धोखा हो गया। मुझे रूसी सेना में डाल दिया गया है। कुछ टाइम बाद इसका फोन और पासपोर्ट जब्त कर लिया गया। जिसके बाद हम लोग इसे वहां से निकालने के लिए प्रयास करने लगे। एक वक्त तो ऐसा आया कि हम बच्चे के वापस लौटने की उम्मीद खो चुके थे। राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक हमने गुहार लगाई और मेहनत रंग लाई। आज हमारा बच्चा हमारे पास है।

साहिल के परिवार से मिलने के बाद हमारी मुलाकात मटोर गांव में रहने वाले 25 साल के अजय से हुई। अजय कहते हैं कि हमारे घर के हालात ठीक नहीं थे तो हमने अपने भाई रवि को विदेश भेजने का सोचा। साढ़े 11 लाख खर्च करके हमने एजेंट के जरिए रवि को रशिया भेजा। हमें बताया गया था कि उससे वहां ट्रांसपोर्ट का काम करवाया जाएगा, लेकिन 13 जनवरी 2024 को एयरपोर्ट पहुंचने के बाद ही उसे सीधे आर्मी कैंप में भेज दिया गया। इस बारे में पता चला तो हमने एजेंट से संपर्क किया, उसने पल्ला झाड़ते हुए कह दिया मेरे हाथ में कुछ नहीं है और मैं कुछ नहीं कर सकता।

मटोर गांव के रवि को एजेंट ने ट्रांसपोर्ट का काम दिलाने की बात कहकर रशिया भेजा, एयरपोर्ट से उन्हें आर्मी कैंप भेज दिया गया।

आर्मी कैंप में जाने के बाद मेरे भाई से एक कॉन्ट्रैक्ट पर साइन करवा लिया गया। मेरे भाई को पता ही नहीं था कि उस डॉक्यूमेंट में क्या लिखा है। कुछ दिनों बाद उसकी वीडियो कॉल आई और वो आर्मी की वर्दी में था। उसने हमें बताया कि एक साल के लिए वो फंस चुका है।

मेरे भाई को शुरुआत में बंकर खोदने का काम मिला। धीरे-धीरे उसे फ्रंटलाइन पर भेज दिया गया। 12 मार्च 2024 को आखिरी बार मैंने अपने भाई से बात की थी। तब उसने बताया था कि वो फ्रंटलाइन पर लड़ने जा रहा है। यही हमारी आखिरी बातचीत थी। वहां फोन इस्तेमाल करना मना था। उसके बाद से भाई से कोई संपर्क नहीं हुआ।

रवि के भाई अजय कहते हैं कि हमने एजेंट को 11 लाख देकर भाई को रशिया भेजा था, आज तक उसकी डेडबॉडी नहीं मिली।

जुलाई में हमने एम्बेसी से संपर्क किया, कुछ टाइम बाद वहां से जवाब आया कि हमारे भाई की डेथ हो गई। हमने डेडबॉडी मांगी, लेकिन नहीं मिली। हमने एजेंट पर केस कर दिया, लेकिन अभी वो बेल पर बाहर है। हमें अभी तक कोई आर्थिक मदद नहीं मिली है। मुझे जिंदगी भर दुख रहेगा कि बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं अपने भाई की जान नहीं बचा पाया।

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