नवनीत गुर्जर का कॉलम: आखिर भीड़ को कौन, कब काबू में कर पाया है? h3>
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3 घंटे पहले
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नवनीत गुर्जर
कुम्भ में, महाकुम्भ में, दिल्ली स्टेशन पर, भीड़ और भगदड़। इलाज क्या? दरअसल, जरूरत से ज्यादा या कहें कि बेतहाशा भीड़ जब इकट्ठा हो जाती है तो इसका कोई इलाज नहीं। कोई न्याय नहीं।
व्यवस्था पर सवाल उठाए जा सकते हैं। लोग उठा भी रहे हैं। दिल्ली स्टेशन पर ही अचानक हुई घोषणाओं ने भगदड़ को न्योता दिया।
आखिर इतनी भीड़ के बावजूद ये घोषणाएं क्या जरूरी थीं? अगर जरूरी ही थीं तो क्या इनका समय ठीक था? क्षमता से कहीं ज्यादा लोग प्लेटफॉर्म पर कैसे पहुंच गए? भीड़ बढ़ते देख लोगों को कुछ देर के लिए ही सही, या एक ट्रेन के रवाना होने तक बाहर ही रोका क्यों नहीं गया? कई सवाल हैं, जिनके जवाब किसी के पास नहीं हैं। अगर हैं भी तो कोई मुंह खोलना नहीं चाहता।
हालांकि कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि अचानक चार-आठ मेहमान टपक पड़ने पर जिनके घर की व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है, वे कुम्भ और दिल्ली और भगदड़ पर सवाल उठाते फिर रहे हैं। लेकिन बात इस तर्क पर ही खत्म नहीं होनी चाहिए। जब सरकारें ज्यादा से ज्यादा लोगों को महाकुम्भ में आने का निमंत्रण देती हैं, 50 या 60 करोड़ ने डुबकी लगाई, यह बात बहुप्रचारित करना चाहती हैं तो वैसी व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
दिल्ली स्टेशन की तरह ही प्रयागराज में भी ज्यादा भीड़ होने पर लोगों के प्रवेश को रोका जाना चाहिए था। इतना ही नहीं वीआईपी और उनके वाहनों पर भी अंकुश लगाया जाना चाहिए था। कुल मिलाकर प्रयागराज और उसके आसपास जो सख्ती भगदड़ के बाद बरती गई, वही शुरू से बरती जानी चाहिए थी।
लेकिन हमारा प्रशासन तो हादसों और दुर्घटनाओं के बाद ही जागता है। भीड़ की ही तरह उसका भी किसी के पास कोई इलाज नहीं है। महाकुम्भ की भगदड़ में तो मौत के आंकड़ों पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
क्या सही है, क्या गलत, यह तो सरकार ही जाने, लेकिन इतना तो सच है कि अभी भी कई लोग अपने परिजनों की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। इस सबके बावजूद भीड़ कम नहीं हो रही है। संगम में डुबकी लगाने को हर कोई बेताब हैं। जहां से, जैसा भी साधन मिले, जैसा भी रास्ता सूझे, हर कोई प्रयागराज पहुंचना चाह रहा है। जा भी रहा है।
अब सुना है कुछ लोग बक्सर से सीधे नाव के जरिए प्रयागराज पहुंच रहे हैं। यह रास्ता भी जोखिम भरा हो सकता है। भीड़ इस तरह बेताबी के रथ पर सवार है कि कोई सरकार, कोई प्रशासन उसे रोक नहीं पा रहा है। रोके भी कैसे? आस्था का समुद्र जिद पर अड़ा है और उसके सामने किसी की एक नहीं चल रही है।
इस बीच केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक चौंकाने वाली रिपोर्ट दी है। 54 करोड़ लोग जब संगम में डुबकी लगा चुके, तब यह बोर्ड कह रहा है कि प्रयागराज में गंगा-यमुना का पानी न पीने लायक है और न स्नान के लायक! हालांकि गंगा तो गंगा है और वह सबको निर्मल बनाती है।
बनाती रहेगी। आशा तो यही की जा सकती है। प्रयागराज नगर निगम और उत्तर प्रदेश जल निगम का दावा है कि गंगा के पानी को तकनीक द्वारा लगातार निर्मल, स्वच्छ किया जा रहा है।
अब प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड की रिपोर्ट सही है या जल निगम के दावे, ये तो वही जानें लेकिन इतना तय है कि आस्था का ज्वार अभी कम होने वाला नहीं है। भीड़ ऐसी ही रहेगी और व्यवस्था पर भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
भीड़ इस तरह बेताबी के रथ पर सवार है कि कोई सरकार, कोई प्रशासन उसे रोक नहीं पा रहा है। रोके भी कैसे? आस्था का समुद्र जिद पर अड़ा है और उसके सामने किसी की नहीं चल रही है। संगम में डुबकी लगाने को हर कोई बेताब हैं। आखिर भीड़ को कौन, कब काबू कर पाया है?
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कुम्भ में, महाकुम्भ में, दिल्ली स्टेशन पर, भीड़ और भगदड़। इलाज क्या? दरअसल, जरूरत से ज्यादा या कहें कि बेतहाशा भीड़ जब इकट्ठा हो जाती है तो इसका कोई इलाज नहीं। कोई न्याय नहीं।
व्यवस्था पर सवाल उठाए जा सकते हैं। लोग उठा भी रहे हैं। दिल्ली स्टेशन पर ही अचानक हुई घोषणाओं ने भगदड़ को न्योता दिया।
आखिर इतनी भीड़ के बावजूद ये घोषणाएं क्या जरूरी थीं? अगर जरूरी ही थीं तो क्या इनका समय ठीक था? क्षमता से कहीं ज्यादा लोग प्लेटफॉर्म पर कैसे पहुंच गए? भीड़ बढ़ते देख लोगों को कुछ देर के लिए ही सही, या एक ट्रेन के रवाना होने तक बाहर ही रोका क्यों नहीं गया? कई सवाल हैं, जिनके जवाब किसी के पास नहीं हैं। अगर हैं भी तो कोई मुंह खोलना नहीं चाहता।
हालांकि कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि अचानक चार-आठ मेहमान टपक पड़ने पर जिनके घर की व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है, वे कुम्भ और दिल्ली और भगदड़ पर सवाल उठाते फिर रहे हैं। लेकिन बात इस तर्क पर ही खत्म नहीं होनी चाहिए। जब सरकारें ज्यादा से ज्यादा लोगों को महाकुम्भ में आने का निमंत्रण देती हैं, 50 या 60 करोड़ ने डुबकी लगाई, यह बात बहुप्रचारित करना चाहती हैं तो वैसी व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
दिल्ली स्टेशन की तरह ही प्रयागराज में भी ज्यादा भीड़ होने पर लोगों के प्रवेश को रोका जाना चाहिए था। इतना ही नहीं वीआईपी और उनके वाहनों पर भी अंकुश लगाया जाना चाहिए था। कुल मिलाकर प्रयागराज और उसके आसपास जो सख्ती भगदड़ के बाद बरती गई, वही शुरू से बरती जानी चाहिए थी।
लेकिन हमारा प्रशासन तो हादसों और दुर्घटनाओं के बाद ही जागता है। भीड़ की ही तरह उसका भी किसी के पास कोई इलाज नहीं है। महाकुम्भ की भगदड़ में तो मौत के आंकड़ों पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
क्या सही है, क्या गलत, यह तो सरकार ही जाने, लेकिन इतना तो सच है कि अभी भी कई लोग अपने परिजनों की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। इस सबके बावजूद भीड़ कम नहीं हो रही है। संगम में डुबकी लगाने को हर कोई बेताब हैं। जहां से, जैसा भी साधन मिले, जैसा भी रास्ता सूझे, हर कोई प्रयागराज पहुंचना चाह रहा है। जा भी रहा है।
अब सुना है कुछ लोग बक्सर से सीधे नाव के जरिए प्रयागराज पहुंच रहे हैं। यह रास्ता भी जोखिम भरा हो सकता है। भीड़ इस तरह बेताबी के रथ पर सवार है कि कोई सरकार, कोई प्रशासन उसे रोक नहीं पा रहा है। रोके भी कैसे? आस्था का समुद्र जिद पर अड़ा है और उसके सामने किसी की एक नहीं चल रही है।
इस बीच केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक चौंकाने वाली रिपोर्ट दी है। 54 करोड़ लोग जब संगम में डुबकी लगा चुके, तब यह बोर्ड कह रहा है कि प्रयागराज में गंगा-यमुना का पानी न पीने लायक है और न स्नान के लायक! हालांकि गंगा तो गंगा है और वह सबको निर्मल बनाती है।
बनाती रहेगी। आशा तो यही की जा सकती है। प्रयागराज नगर निगम और उत्तर प्रदेश जल निगम का दावा है कि गंगा के पानी को तकनीक द्वारा लगातार निर्मल, स्वच्छ किया जा रहा है।
अब प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड की रिपोर्ट सही है या जल निगम के दावे, ये तो वही जानें लेकिन इतना तय है कि आस्था का ज्वार अभी कम होने वाला नहीं है। भीड़ ऐसी ही रहेगी और व्यवस्था पर भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
भीड़ इस तरह बेताबी के रथ पर सवार है कि कोई सरकार, कोई प्रशासन उसे रोक नहीं पा रहा है। रोके भी कैसे? आस्था का समुद्र जिद पर अड़ा है और उसके सामने किसी की नहीं चल रही है। संगम में डुबकी लगाने को हर कोई बेताब हैं। आखिर भीड़ को कौन, कब काबू कर पाया है?
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