शेखर गुप्ता का कॉलम: ‘पॉपुलिज़्म’ ही आज की विचारधारा बन गया h3>
2 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
अब जबकि हम 2025 में हैं, यह तय कर लेना ठीक होगा कि कौन-सा ‘इज़्म’ या ‘वाद’ पिछड़ गया और कौन-सा जीत रहा है। पश्चिमी जगत को देखें तो वहां तो वामपंथ फिलहाल कुल-मिलाकर खत्म होता दिख रहा है- केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक वामपंथ भी।
ब्रिटेन एक अपवाद दिख रहा है लेकिन वहां भी प्रधानमंत्री केर स्टार्मर को इलोन मस्क- जिन्हें धुर दक्षिणपंथी खेमे का समर्थन हासिल है- से जिस तरह हमलों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है उसके कारण वहां लेबर पार्टी लुप्तप्राय जैसी दिख रही है।
लेकिन दक्षिणपंथ भी बहुत मजबूत नहीं दिख रहा है- कम-से-कम वह राजनीतिक दक्षिणपंथ जिससे हम परिचित रहे हैं। अमेरिका में रिपब्लिकन खेमा डोनाल्ड ट्रम्प के बगावती हमलों के आगे पराजित हो चुका है।
ट्रम्प के हाल के बयानों और ट्वीट्स को देखें तो पता चलेगा कि वे ज्यादातर रिपब्लिकन लोगों को ही निशाना बनाते रहे हैं। ट्रम्प उन्हें ‘टीडीएस’ यानी ‘ट्रम्प डिरेंजमेंट सिंड्रोम’ (ट्रम्प से त्रस्त मानसिकता) से पीड़ित बताते हैं। लेकिन आप उन्हें पुराने वामपंथियों पर ऐसे हमले करते नहीं पाएंगे।
इसकी वजह यह है कि वे उनकी बगावती नजर में पुराने दक्षिणपंथी डेमोक्रेटों से भी ज्यादा पतित हैं। ट्रम्प के ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) वाले रिपब्लिकन अपनी पार्टी से वैचारिक रूप से उतने ही दूर हैं, जितने वामपंथी डेमोक्रेट दूर हैं।
अर्थशास्त्री रुचिर शर्मा ने अपने एक कॉलम में लिखा है कि पिछले दिनों जिन विकासशील देशों में चुनाव हुए, उनमें 85 फीसदी सत्ताधारियों को हार का मुंह देखना पड़ा। यहां मैं जोड़ना चाहूंगा कि इनमें जिस नई विचारधारा की जीत हुई, उसमें वह कोई पुराना ‘वाद’ शामिल नहीं था, जिन्हें हम जानते-पहचानते रहे हैं।
फ्रांस और इटली में यही हुआ। संभावना यही है कि जर्मनी में भी ऐसा ही होगा। वामपंथ को व्यापक तौर पर नकारा जा रहा है, दक्षिणपंथ को पुनः परिभाषित किया जा रहा है और मध्यमार्गी दक्षिणपंथ गहरे संकट में है।
अब तक हमें जितने ‘वाद’ (वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी) पढ़ाए गए हैं, वे सब अगर मरणासन्न हैं, तो जीत किसकी हो रही है? यह है- ‘पॉपुलिज़्म’ (लोकप्रियतावाद)। इस नई दुनिया में ‘पॉपुलिज़्म’ वाम, दक्षिण, मध्य, सभी मार्गों और वादों को ध्वस्त कर रहा है।
बेशक हरेक देश, मतदाता समूह और समाज के लिए यह अलग-अलग रूप में उभर रहा है। विकसित देशों में यह प्रवासियों के निष्कासन, देश में समाहित न होने वाली विदेशी संस्कृतियों तथा आस्थाओं (मुख्यतः इस्लाम) के प्रति आशंका, उग्र राष्ट्रवाद, व्यावसायिक संरक्षणवाद और अपने इतिहास के उत्कर्ष को फिर से हासिल करने की कोशिशों के रूप में सामने आ रहा है।
ट्रम्प, जियोर्जिया मेलोनी, विक्टोर ओर्बन और मरीन ली पेन सबसे सफल ‘लोकप्रियतावादियों’ में हैं। उन्हें दक्षिणपंथी खेमे का बताना गलत होगा। निगेल फरागे की ‘रिफॉर्म यूके’ पार्टी भी इसी जमात में शामिल होने की उम्मीद कर रही है।
उससे सबसे ज्यादा डर किसे लगता है? लेबर पार्टी को नहीं। उन्हें पर्याप्त बहुमत हासिल है। सबसे बड़ा खतरा कंजर्वेटिव पार्टी को है। क्या ‘रिफॉर्म यूके’ पार्टी उनके साथ वही कर सकती है, जो ट्रम्प ने रिपब्लिकन पार्टी के साथ किया? मस्क इसी में लगे हैं।
‘पॉपुलिज़्म’ का आकर्षण और उसकी सफलता उसके प्रयोग में निहित है। यह आपके दिल या दिमाग, आपके विवेक या जमीर पर ज्यादा बोझ नहीं डालता। यह नैतिकता या इतिहास के बोझ से दबा हुआ नहीं होता, और न तथ्यों के जाल से भ्रमित होता है।
एक स्तर पर यह शुद्ध लेन-देन का मामला हो सकता है और भारत में हम ऐसा होते देख रहे हैं। ‘हम आपको, आपकी बहन या माता को इतनी नकदी देंगे, आप हमें वोट दीजिए’। या ‘आप सरकारी बसों में मुफ्त सफर कर सकते हैं’ और अब कोई मेट्रो में भी मुफ्त सफर कराने की बात कर रहा है; ‘इतने यूनिट बिजली मुफ्त!’, ‘पानी मुफ्त!’ आदि-आदि।
साल भर पहले प्रधानमंत्री ‘रेवड़ियों’ का मजाक उड़ा रहे थे, क्योंकि ये निर्वाचित नेताओं को शासन देने की उनकी मुख्य जिम्मेदारी से भटकाती हैं। लेकिन उसके बाद से रेवड़ियों की झड़ी लग गई है और अब भाजपा रेवड़ियों के वादे करने में सबसे आगे दिख रही है।
भाजपा को महाराष्ट्र में जीत का स्वाद मिल गया। अब दिल्ली की बारी है और वह महिला मतदाताओं के लिए आम आदमी पार्टी से ज्यादा की पेशकश कर रही है। यह सब इस हद तक पहुंच गया है कि भारत की सबसे सफल और अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले सबसे सुपरिभाषित विचारधारा वाली पार्टी भाजपा हिंदुत्व से ज्यादा ऐसी रेवड़ियों पर भरोसा करने लगी है।
वामपंथी झुकाव वाले दलों और सबसे प्रमुख रूप से कांग्रेस ने लेन-देन वाली राजनीति शुरू की और विचारधारा मुक्त ‘आप’ ने शायद रास्ता दिखाया। अब भाजपा और उसके सहयोगी भी इस जमात में शामिल हो गए हैं।
‘पॉपुलिज़्म’ ने सबको जोड़ दिया है। राहुल गांधी ने जो ‘मुहब्बत की दुकान’ खोली थी, वह भी रेवड़ियों के विशाल बाजार का रूप ले चुकी है। 2014 में, मोदी ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ के वादे के साथ सत्ता में आए। लेकिन हमने देखा, सरकार का आकार बढ़ता ही गया है। निजीकरण के वादे को भुला दिया गया है।
अब गर्व से कहा जा रहा है कि सार्वजनिक उपक्रम इस सरकार के अधीन जितना अच्छा काम कर रहे हैं उतना उन्होंने पहले कभी नहीं किया। मतदाताओं को खुश करने के लिए खराब चीजों पर पैसा लुटाना ‘पॉपुलिज़्म’ नहीं तो क्या है?
नैतिकता के बोझ से मुक्ति… “पॉपुलिज़्म’ या लोकप्रियतावाद का आकर्षण और उसकी सफलता उसके प्रयोग में निहित है। यह आपके दिल या दिमाग, आपके विवेक या जमीर पर ज्यादा बोझ नहीं डालता। यह नैतिकता या इतिहास के बोझ से दबा हुआ नहीं होता, और न तथ्यों के जाल से भ्रमित होता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
अब जबकि हम 2025 में हैं, यह तय कर लेना ठीक होगा कि कौन-सा ‘इज़्म’ या ‘वाद’ पिछड़ गया और कौन-सा जीत रहा है। पश्चिमी जगत को देखें तो वहां तो वामपंथ फिलहाल कुल-मिलाकर खत्म होता दिख रहा है- केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक वामपंथ भी।
ब्रिटेन एक अपवाद दिख रहा है लेकिन वहां भी प्रधानमंत्री केर स्टार्मर को इलोन मस्क- जिन्हें धुर दक्षिणपंथी खेमे का समर्थन हासिल है- से जिस तरह हमलों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है उसके कारण वहां लेबर पार्टी लुप्तप्राय जैसी दिख रही है।
लेकिन दक्षिणपंथ भी बहुत मजबूत नहीं दिख रहा है- कम-से-कम वह राजनीतिक दक्षिणपंथ जिससे हम परिचित रहे हैं। अमेरिका में रिपब्लिकन खेमा डोनाल्ड ट्रम्प के बगावती हमलों के आगे पराजित हो चुका है।
ट्रम्प के हाल के बयानों और ट्वीट्स को देखें तो पता चलेगा कि वे ज्यादातर रिपब्लिकन लोगों को ही निशाना बनाते रहे हैं। ट्रम्प उन्हें ‘टीडीएस’ यानी ‘ट्रम्प डिरेंजमेंट सिंड्रोम’ (ट्रम्प से त्रस्त मानसिकता) से पीड़ित बताते हैं। लेकिन आप उन्हें पुराने वामपंथियों पर ऐसे हमले करते नहीं पाएंगे।
इसकी वजह यह है कि वे उनकी बगावती नजर में पुराने दक्षिणपंथी डेमोक्रेटों से भी ज्यादा पतित हैं। ट्रम्प के ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) वाले रिपब्लिकन अपनी पार्टी से वैचारिक रूप से उतने ही दूर हैं, जितने वामपंथी डेमोक्रेट दूर हैं।
अर्थशास्त्री रुचिर शर्मा ने अपने एक कॉलम में लिखा है कि पिछले दिनों जिन विकासशील देशों में चुनाव हुए, उनमें 85 फीसदी सत्ताधारियों को हार का मुंह देखना पड़ा। यहां मैं जोड़ना चाहूंगा कि इनमें जिस नई विचारधारा की जीत हुई, उसमें वह कोई पुराना ‘वाद’ शामिल नहीं था, जिन्हें हम जानते-पहचानते रहे हैं।
फ्रांस और इटली में यही हुआ। संभावना यही है कि जर्मनी में भी ऐसा ही होगा। वामपंथ को व्यापक तौर पर नकारा जा रहा है, दक्षिणपंथ को पुनः परिभाषित किया जा रहा है और मध्यमार्गी दक्षिणपंथ गहरे संकट में है।
अब तक हमें जितने ‘वाद’ (वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी) पढ़ाए गए हैं, वे सब अगर मरणासन्न हैं, तो जीत किसकी हो रही है? यह है- ‘पॉपुलिज़्म’ (लोकप्रियतावाद)। इस नई दुनिया में ‘पॉपुलिज़्म’ वाम, दक्षिण, मध्य, सभी मार्गों और वादों को ध्वस्त कर रहा है।
बेशक हरेक देश, मतदाता समूह और समाज के लिए यह अलग-अलग रूप में उभर रहा है। विकसित देशों में यह प्रवासियों के निष्कासन, देश में समाहित न होने वाली विदेशी संस्कृतियों तथा आस्थाओं (मुख्यतः इस्लाम) के प्रति आशंका, उग्र राष्ट्रवाद, व्यावसायिक संरक्षणवाद और अपने इतिहास के उत्कर्ष को फिर से हासिल करने की कोशिशों के रूप में सामने आ रहा है।
ट्रम्प, जियोर्जिया मेलोनी, विक्टोर ओर्बन और मरीन ली पेन सबसे सफल ‘लोकप्रियतावादियों’ में हैं। उन्हें दक्षिणपंथी खेमे का बताना गलत होगा। निगेल फरागे की ‘रिफॉर्म यूके’ पार्टी भी इसी जमात में शामिल होने की उम्मीद कर रही है।
उससे सबसे ज्यादा डर किसे लगता है? लेबर पार्टी को नहीं। उन्हें पर्याप्त बहुमत हासिल है। सबसे बड़ा खतरा कंजर्वेटिव पार्टी को है। क्या ‘रिफॉर्म यूके’ पार्टी उनके साथ वही कर सकती है, जो ट्रम्प ने रिपब्लिकन पार्टी के साथ किया? मस्क इसी में लगे हैं।
‘पॉपुलिज़्म’ का आकर्षण और उसकी सफलता उसके प्रयोग में निहित है। यह आपके दिल या दिमाग, आपके विवेक या जमीर पर ज्यादा बोझ नहीं डालता। यह नैतिकता या इतिहास के बोझ से दबा हुआ नहीं होता, और न तथ्यों के जाल से भ्रमित होता है।
एक स्तर पर यह शुद्ध लेन-देन का मामला हो सकता है और भारत में हम ऐसा होते देख रहे हैं। ‘हम आपको, आपकी बहन या माता को इतनी नकदी देंगे, आप हमें वोट दीजिए’। या ‘आप सरकारी बसों में मुफ्त सफर कर सकते हैं’ और अब कोई मेट्रो में भी मुफ्त सफर कराने की बात कर रहा है; ‘इतने यूनिट बिजली मुफ्त!’, ‘पानी मुफ्त!’ आदि-आदि।
साल भर पहले प्रधानमंत्री ‘रेवड़ियों’ का मजाक उड़ा रहे थे, क्योंकि ये निर्वाचित नेताओं को शासन देने की उनकी मुख्य जिम्मेदारी से भटकाती हैं। लेकिन उसके बाद से रेवड़ियों की झड़ी लग गई है और अब भाजपा रेवड़ियों के वादे करने में सबसे आगे दिख रही है।
भाजपा को महाराष्ट्र में जीत का स्वाद मिल गया। अब दिल्ली की बारी है और वह महिला मतदाताओं के लिए आम आदमी पार्टी से ज्यादा की पेशकश कर रही है। यह सब इस हद तक पहुंच गया है कि भारत की सबसे सफल और अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले सबसे सुपरिभाषित विचारधारा वाली पार्टी भाजपा हिंदुत्व से ज्यादा ऐसी रेवड़ियों पर भरोसा करने लगी है।
वामपंथी झुकाव वाले दलों और सबसे प्रमुख रूप से कांग्रेस ने लेन-देन वाली राजनीति शुरू की और विचारधारा मुक्त ‘आप’ ने शायद रास्ता दिखाया। अब भाजपा और उसके सहयोगी भी इस जमात में शामिल हो गए हैं।
‘पॉपुलिज़्म’ ने सबको जोड़ दिया है। राहुल गांधी ने जो ‘मुहब्बत की दुकान’ खोली थी, वह भी रेवड़ियों के विशाल बाजार का रूप ले चुकी है। 2014 में, मोदी ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ के वादे के साथ सत्ता में आए। लेकिन हमने देखा, सरकार का आकार बढ़ता ही गया है। निजीकरण के वादे को भुला दिया गया है।
अब गर्व से कहा जा रहा है कि सार्वजनिक उपक्रम इस सरकार के अधीन जितना अच्छा काम कर रहे हैं उतना उन्होंने पहले कभी नहीं किया। मतदाताओं को खुश करने के लिए खराब चीजों पर पैसा लुटाना ‘पॉपुलिज़्म’ नहीं तो क्या है?
नैतिकता के बोझ से मुक्ति… “पॉपुलिज़्म’ या लोकप्रियतावाद का आकर्षण और उसकी सफलता उसके प्रयोग में निहित है। यह आपके दिल या दिमाग, आपके विवेक या जमीर पर ज्यादा बोझ नहीं डालता। यह नैतिकता या इतिहास के बोझ से दबा हुआ नहीं होता, और न तथ्यों के जाल से भ्रमित होता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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