मुकेश माथुर का कॉलम: ‘स्क्विड गेम’ का हिट होना और चुनाव में रेवड़ियों का बंटना…

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मुकेश माथुर का कॉलम:  ‘स्क्विड गेम’ का हिट होना और चुनाव में रेवड़ियों का बंटना…

मुकेश माथुर का कॉलम: ‘स्क्विड गेम’ का हिट होना और चुनाव में रेवड़ियों का बंटना…

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8 घंटे पहले

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मुकेश माथुर दैनिक भास्कर

आपने नेटफ्लिक्स की सीरीज ‘स्क्विड गेम’ देखी है? हाल ही में इस कोरियन सीरीज का दूसरा सीजन रिलीज हुआ है। भारत में अमेरिकन कंटेंट के बाद कोरिया के टीवी कार्यक्रम ही हैं, जिनके लिए ओटीटी और डीटीएच प्लेटफॉर्म पर अलग से जगह बनी हुई है, फिर भी मैं कोरियन टीवी कार्यक्रमों का खास फैन नहीं रहा हूं। लेकिन इस बार ‘स्क्विड गेम’ के प्रोमो देखकर और पता चलने पर कि यह दुनिया भर में सबसे ज्यादा देखी गई सीरीज है, जिसे छह ऐमी और एक गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड मिला है, मैंने तय किया कि एक बार इसे देखकर देखा जाए।

सीरीज में एक माफिया है, जो कर्ज में बुरी तरह दबे, टूट चुके लोगों को गेम खिलाकर विजेता को करीब 4 करोड़ डॉलर देने का प्रस्ताव रखता है। जिंदगी में आई इस उम्मीद की किरण के पीछे लोग बढ़ चले हैं। जब एक अनजाने टापू पर ले जाकर इन्हें गेम के रूल बताए जाते हैं तो सबके पैरों से जमीन खिसक जाती है।

खेल तो वही बचपन वाले रॉक-पेपर-सीजर और रस्सी खींचने जैसे होते हैं, लेकिन हारने वाले को अपनी जिंदगी हारनी पड़ती है। यहां एलिमिनेट होने का मतलब मौत है। 456 खिलाड़ियों में से एक जीतता है और उसे वह अकल्पनीय पैसा मिलता है। हारे हुए 455 लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है।

क्यों तो ऐसी सीरीज सोची गई और इससे भी बड़ा सवाल, क्यों खून-खराबे और बेइंतहा क्रूरता वाली यह सीरीज इतनी देखी गई? सीरीज के लेखक-निर्देशक ह्वांग डोंग ह्युक बताते हैं कि इसके पीछे दक्षिण कोरिया में पूंजीवाद से पैदा हुए आर्थिक वर्ग-संघर्ष के हालात हैं। ह्वांग कहते हैं- दुनिया की आर्थिक व्यवस्था में भयानक असमानता है। मैंने देखा कि महामारी के दौरान गरीब देश अपने लोगों को टीका तक नहीं लगवा सकते थे। वे वायरस से संक्रमित होकर मर रहे थे।

आर्थिक असमानता। कहानी कोरिया की है लेकिन यह हमारे देश की भी सच्चाई है। हम साल भर अमीर-गरीब की बढ़ती खाइयों के आंकड़े पढ़ते हैं और फिर किसी राज्य के चुनाव में हजार रुपए इस तबके काे और 1800 रुपए उस तबके को देने की घोषणाएं सुनते हैं। लगता है जैसे गरीब का मजाक उड़ाया जा रहा है।

विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में सबसे अधिक आर्थिक विषमता वाला देश है। ऊपरी संपन्न एक फीसदी आबादी की आय का जीडीपी में हिस्सा 22.6 फीसदी तथा संपत्ति में हिस्सा 53 फीसदी है जो दुनिया में सर्वाधिक है। निचली 50 फीसदी आबादी की आय लगातार गिर रही है। उनका हिस्सा जीडीपी में घटकर 13 फीसदी और संपत्ति में घटकर 4.1 फीसदी रह गया है।

वर्ष 2017 में सबसे अमीर एक फीसदी लोगों की संपत्ति में वृद्धि 73 प्रतिशत हुई है, जबकि निचली आधी आबादी की संपत्ति में मात्र एक फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। बजाय इस खाई को पाटने के सरकार इसे बढ़ाती जा रही है। बानगी देखिए, जीएसटी संग्रहण का 64 फीसदी हिस्सा 50 प्रतिशत गरीब आबादी से जबकि सिर्फ 4 प्रतिशत हिस्सा दस फीसदी अमीर आबादी से मिलता है।

कर्जे, ईएमआई के बोझ से इंसान दबा हुआ है। मध्यमवर्गीय परिवार उधार की जिंदगी जी रहा है। दूसरी तरफ सरकारों के इश्तेहारों में चमचमाते हाईवे, एयरपोर्ट और इमारतें नजर आती हैं। जिन राज्यों में पिछले साल नई सरकारें आई हैं, वहां देखिए विकास किस तरह पागल हो गया है। बीआरटीएस हटाकर एक दर्जन फ्लाईओवर बनाने जैसे फैसले लिए जा रहे हैं। कमीशन से कमाई का रास्ता बनाया जा रहा है। सरकारों का फोकस ही कहीं और है।

जीएसटी संग्रहण का 64% हिस्सा 50% गरीब आबादी से जबकि सिर्फ 4% हिस्सा 10% अमीर आबादी से मिलता है। कर्जे, ईएमआई के बोझ से इंसान दबा हुआ है। मध्यमवर्गीय परिवार उधार की जिंदगी जी रहा है। दिल्ली चुनाव में आप ने सीधे पैसा हाथ में देने की इतनी स्कीमें जारी कर दी हैं और इतनी पाइपलाइन में हैं कि हर वोटर को किसी न किसी रास्ते से कुछ पैसा मिल जाए। यह वोट के लिए तो ठीक है लेकिन इससे वह खाई दूर नहीं होगी यह तय है। नीतियों में असमानता खत्म करने का विजन रखने से, उद्यम, रोजगार के अवसर बनाने और स्वास्थ्य-शिक्षा के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काम करने से जरूर हो सकती है।

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