अभय कुमार दुबे का कॉलम: दिल्ली में भाजपा के सामने फिर से परीक्षा की घड़ी है h3>
2 दिन पहले
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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
भले ही अतीत वापिस न आता हो, लेकिन राजनीति में अतीत की मुश्किलें वर्तमान के लिए पेशबंदी का काम जरूर कर सकती हैं। मोदी और उनके रणनीतिकारों के लिए 2025 की शुुरुआत में दस साल पुराने अतीत, यानी 2015 के वर्ष का यही महत्व है।
इस समय उनकी कोशिश यही है कि 2025 किसी भी तरह से 2015 न बनने पाए। उन्हें याद है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने के साल भर से भी कम समय में उनके साथ क्या हुआ था। फरवरी, 2015 में तमाम कोशिशों के बावजूद एक नए दल आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया था।
उसके कुछ महीने बाद बिहार में भी महागठबंधन के हाथों करारी हार मिली थी। इन पराजयों का एक फलितार्थ यह हुआ कि रिटायर कर दिए गए नेताओं का सुस्त पड़ा मार्गदर्शक-मंडल सक्रिय हो गया, जिसने मोदी के नेतृत्व पर सवालिया निशान लगा दिया।
इस राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए 2016 में नोटबंदी करके आलोचकों का ध्यान दूसरी तरफ ले जाना पड़ा। 2017 में यूपी में असाधारण जीत मिली और उसी साल महागठबंधन भी टूटा। 2020 में एक बार फिर 2015 के प्रकट होने का खतरा सामने आया था।
साल भर पहले लोकसभा में बड़ी जीत के बावजूद भाजपा एक बार फिर दिल्ली का चुनाव बुरी तरह हार गई। बिहार में भी सब कुछ अनिश्चित था। पिता की अनुपस्थिति में तेजस्वी यादव ने जबर्दस्त चुनाव लड़ा और सबसे बड़े दल के नेता के रूप में उभरे। अब इसी तरह का संकट भाजपा के सामने तीसरी बार है।
इस बार भी न दिल्ली में जीत की गारंटी है, न बिहार में। अब तो पहले की तरह लोकसभा में बहुमत भी नहीं है। इस बार अगर 2015 घटित हुआ तो मार्गदर्शक मंडल भले प्रभावी न रह गया हो, संघ द्वारा भीतरी दबाव और बढ़ जाएगा। इसी अंदेशे को ध्यान में रखकर भाजपा ने जबर्दस्त पेशबंदी की है।
आप से सत्ता से छीनने के लिए राजधानी को पिछले दो साल से प्रयोगशाला बना दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले ने जब लंबी सुनवाई के बाद निर्वाचित सरकार के अधिकारों में कटौती करने की उपराज्यपाल की पहलकदमियों को निरस्त किया तो केंद्र सरकार ने अध्यादेश और फिर विधि-निर्माण के जरिए सुनिश्चित किया कि केजरीवाल की सरकार अपनी घोषित योजनाओं को जमीन पर लागू न कर पाए।
नतीजा यह निकला कि निर्वाचित सरकार के पास एक चपरासी की नियुक्ति के अधिकार भी नहीं रह गए। 2022 में जब पंजाब का चुनाव जीतने के बाद आप गुजरात में हस्तक्षेप करके अपनी राष्ट्रीय छवि बनाने की उड़ान भर रही थी, तभी प्रवर्तन निदेशालय, पीएमएलए कानून और उसकी दफा 45 के कारण कथित शराब घोटाले के तहत इस पार्टी के नेतृत्व को एक-एक करके जेल जाना पड़ा, और जमानत के भी लाले पड़ गए।
दिल्ली में भाजपा पिछले छह चुनावों से सरकार नहीं बना पाई है। उसके पास कम से कम 30-32 फीसदी वोट हमेशा रहते हैं। लेकिन वह इन वोटों को उतना नहीं बढ़ा पाती कि पहले कांग्रेस और फिर आप से आगे बढ़ जाए। इस बार उसे उम्मीद है।
हालांकि आप बड़े व्यवस्थित तरीके से चुनाव लड़ने में माहिर है, पर उसे जिस प्रमुख समस्या का सामना करना पड़ रहा है, वह भाजपा के इसी प्रयोग के कारण है। दिल्ली का मध्यवर्ग अपने आपसे पूछ रहा है कि अगर उसने इस पार्टी को तीसरी बार बहुमत दे दिया और उपराज्यपाल ने उसे फिर से काम नहीं करने दिया तो क्या होगा? भाजपा चाहती है कि इसी के चलते मध्यवर्ग उसे पहले से ज्यादा यानी चालीस फीसदी से अधिक वोट दे। भाजपा को यह भी उम्मीद है कि इस बार कांग्रेस भी अपने पुराने वोटों में से कुछ न कुछ वापिस छीन लेगी।
बिहार में भाजपा की पुरानी महत्वाकांक्षा अपने दम पर सरकार बनाने की है। लेकिन नीतीश के करीब 16 फीसदी वोट उसकी इस योजना के गले में अटके हुए हैं। जब तक मोदी को यकीन नहीं होगा कि नीतीश के वोटों का विकल्प उनके पास है, तब तक भाजपा जदयू के सहारे ही रहने वाली है। भाजपा के रणनीतिकारों को पता है कि पिछले चुनाव में नीतीश के ही नहीं भाजपा के वोट भी गिरे थे। वोट केवल तेजस्वी के बढ़े थे। यह स्थिति बिहार में जीत की गारंटी को निरस्त करती है।
नरेंद्र मोदी के लिए 2025 ठीक वैसी ही बाधा है जैसी 2015 में आई थी। 2020 में उनकी पार्टी को केवल पचास फीसदी नंबर ही मिले थे। इस बार भी यह साल चुनावी राजनीति की दृष्टि से अगले साढ़े चार साल का सबसे नाजुक वर्ष होने वाला है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
भले ही अतीत वापिस न आता हो, लेकिन राजनीति में अतीत की मुश्किलें वर्तमान के लिए पेशबंदी का काम जरूर कर सकती हैं। मोदी और उनके रणनीतिकारों के लिए 2025 की शुुरुआत में दस साल पुराने अतीत, यानी 2015 के वर्ष का यही महत्व है।
इस समय उनकी कोशिश यही है कि 2025 किसी भी तरह से 2015 न बनने पाए। उन्हें याद है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने के साल भर से भी कम समय में उनके साथ क्या हुआ था। फरवरी, 2015 में तमाम कोशिशों के बावजूद एक नए दल आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ कर दिया था।
उसके कुछ महीने बाद बिहार में भी महागठबंधन के हाथों करारी हार मिली थी। इन पराजयों का एक फलितार्थ यह हुआ कि रिटायर कर दिए गए नेताओं का सुस्त पड़ा मार्गदर्शक-मंडल सक्रिय हो गया, जिसने मोदी के नेतृत्व पर सवालिया निशान लगा दिया।
इस राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए 2016 में नोटबंदी करके आलोचकों का ध्यान दूसरी तरफ ले जाना पड़ा। 2017 में यूपी में असाधारण जीत मिली और उसी साल महागठबंधन भी टूटा। 2020 में एक बार फिर 2015 के प्रकट होने का खतरा सामने आया था।
साल भर पहले लोकसभा में बड़ी जीत के बावजूद भाजपा एक बार फिर दिल्ली का चुनाव बुरी तरह हार गई। बिहार में भी सब कुछ अनिश्चित था। पिता की अनुपस्थिति में तेजस्वी यादव ने जबर्दस्त चुनाव लड़ा और सबसे बड़े दल के नेता के रूप में उभरे। अब इसी तरह का संकट भाजपा के सामने तीसरी बार है।
इस बार भी न दिल्ली में जीत की गारंटी है, न बिहार में। अब तो पहले की तरह लोकसभा में बहुमत भी नहीं है। इस बार अगर 2015 घटित हुआ तो मार्गदर्शक मंडल भले प्रभावी न रह गया हो, संघ द्वारा भीतरी दबाव और बढ़ जाएगा। इसी अंदेशे को ध्यान में रखकर भाजपा ने जबर्दस्त पेशबंदी की है।
आप से सत्ता से छीनने के लिए राजधानी को पिछले दो साल से प्रयोगशाला बना दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले ने जब लंबी सुनवाई के बाद निर्वाचित सरकार के अधिकारों में कटौती करने की उपराज्यपाल की पहलकदमियों को निरस्त किया तो केंद्र सरकार ने अध्यादेश और फिर विधि-निर्माण के जरिए सुनिश्चित किया कि केजरीवाल की सरकार अपनी घोषित योजनाओं को जमीन पर लागू न कर पाए।
नतीजा यह निकला कि निर्वाचित सरकार के पास एक चपरासी की नियुक्ति के अधिकार भी नहीं रह गए। 2022 में जब पंजाब का चुनाव जीतने के बाद आप गुजरात में हस्तक्षेप करके अपनी राष्ट्रीय छवि बनाने की उड़ान भर रही थी, तभी प्रवर्तन निदेशालय, पीएमएलए कानून और उसकी दफा 45 के कारण कथित शराब घोटाले के तहत इस पार्टी के नेतृत्व को एक-एक करके जेल जाना पड़ा, और जमानत के भी लाले पड़ गए।
दिल्ली में भाजपा पिछले छह चुनावों से सरकार नहीं बना पाई है। उसके पास कम से कम 30-32 फीसदी वोट हमेशा रहते हैं। लेकिन वह इन वोटों को उतना नहीं बढ़ा पाती कि पहले कांग्रेस और फिर आप से आगे बढ़ जाए। इस बार उसे उम्मीद है।
हालांकि आप बड़े व्यवस्थित तरीके से चुनाव लड़ने में माहिर है, पर उसे जिस प्रमुख समस्या का सामना करना पड़ रहा है, वह भाजपा के इसी प्रयोग के कारण है। दिल्ली का मध्यवर्ग अपने आपसे पूछ रहा है कि अगर उसने इस पार्टी को तीसरी बार बहुमत दे दिया और उपराज्यपाल ने उसे फिर से काम नहीं करने दिया तो क्या होगा? भाजपा चाहती है कि इसी के चलते मध्यवर्ग उसे पहले से ज्यादा यानी चालीस फीसदी से अधिक वोट दे। भाजपा को यह भी उम्मीद है कि इस बार कांग्रेस भी अपने पुराने वोटों में से कुछ न कुछ वापिस छीन लेगी।
बिहार में भाजपा की पुरानी महत्वाकांक्षा अपने दम पर सरकार बनाने की है। लेकिन नीतीश के करीब 16 फीसदी वोट उसकी इस योजना के गले में अटके हुए हैं। जब तक मोदी को यकीन नहीं होगा कि नीतीश के वोटों का विकल्प उनके पास है, तब तक भाजपा जदयू के सहारे ही रहने वाली है। भाजपा के रणनीतिकारों को पता है कि पिछले चुनाव में नीतीश के ही नहीं भाजपा के वोट भी गिरे थे। वोट केवल तेजस्वी के बढ़े थे। यह स्थिति बिहार में जीत की गारंटी को निरस्त करती है।
नरेंद्र मोदी के लिए 2025 ठीक वैसी ही बाधा है जैसी 2015 में आई थी। 2020 में उनकी पार्टी को केवल पचास फीसदी नंबर ही मिले थे। इस बार भी यह साल चुनावी राजनीति की दृष्टि से अगले साढ़े चार साल का सबसे नाजुक वर्ष होने वाला है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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