प्रशासन की राह पर मीडिया | Patrika Group Editor In Chief Gulab Kothari’s Article 31 October 2023 | News 4 Social

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प्रशासन की राह पर मीडिया | Patrika Group Editor In Chief Gulab Kothari’s Article 31 October 2023 | News 4 Social

प्रशासन की राह पर मीडिया | Patrika Group Editor In Chief Gulab Kothari’s Article 31 October 2023 | News 4 Social

हमारे यहां लोकतंत्र है, चुनी हुई सरकारें भी हैं, तीनों पाये भी कार्यरत हैं, प्रहरी के नाम पर मीडिया भी है। तकलीफ क्या है? यही कि सब मिलकर सरकार की ही भाषा बोलते हैं। जबकि बोलना तो ‘लोक’ हित की भाषा चाहिए। लोक सेवक सारे के सारे नहीं भी तो, अधिकांशलोकहित का साथ नहीं देते, सत्ता का ही साथ देते हैं।

गुलाब कोठारी
हमारे यहां लोकतंत्र है, चुनी हुई सरकारें भी हैं, तीनों पाये भी कार्यरत हैं, प्रहरी के नाम पर मीडिया भी है। तकलीफ क्या है? यही कि सब मिलकर सरकार की ही भाषा बोलते हैं। जबकि बोलना तो ‘लोक’ हित की भाषा चाहिए। लोक सेवक सारे के सारे नहीं भी तो, अधिकांशलोकहित का साथ नहीं देते, सत्ता का ही साथ देते हैं।

जनता उनको जो वेतन देती है, उससे उनका पेट नहीं भरता। जनता भूखी सोती रहे, किंतु उनके लिए तो पेट-पालन ही प्राथमिकता है। इन्हें इसके लिए पथभ्रष्ट और अपमानित होना कभी भी बुरा नहीं लगता। उनका ध्यान तो सत्ताधीशों को प्रसन्न रखने में ही लगा रहता है।

सत्ताधीश अज्ञानी-अनभिज्ञ-अपराधी-भ्रष्ट कुछ भी हो सकता है। आज तो विधायिका ही प्रशासन एवं न्यायपालिका पर भारी पड़ रही है। अपने-अपने कारणों से दोनों ने ही अपनी स्वतंत्रता खो दी। यहीं से लोकतंत्र के ह्रास की कहानी शुरू हो जाती है। लोक भी ओझल और प्रहरी भी मौन! लेकिन किस सीमा तक? पिछले विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश के इंदौर-तीन क्षेत्र में लगभग 14 हजार मतदाताओं के नाम गायब थे। निश्चित है कि प्रत्याशी को इसका लाभ मिलना ही था। यह जानकारी चुनाव आयुक्त कार्यालय को भी थी, किन्तु मरघट-सा सन्नाटा। जानकारी मिलने पर मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह सूचना दी, कि उनको इस सूचना की तथ्यात्मक पड़ताल तो करानी ही चाहिए। कुछ समय बाद उनका फोन आया कि मेरी सूचना सही थी और उन्होंने वे सारे नाम पुन: जुड़वा दिए। क्या मतलब?

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मतलब यह कि घटना आई-गई हो गई। किसी प्रकार की कोई कार्रवाई हुई ही नहीं। परिणाम कुछ और आना था कुछ और आ गया। मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी को भी इनाम मिल गया होगा। लोकतंत्र तार-तार हो गया, कोई शर्मसार नहीं हुआ। न चुनाव रद्द हुआ, न ही किसी को सजा मिली। सोचो, मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी ने घुटने क्यों टेके? इसी अनुभव के आधार पर इस बार भी पत्रिका ने भोपाल मध्य क्षेत्र में मतदाता सूचियों की पड़ताल शुरू की। छह हजार से अधिक नाम कटे हुए मिले। तब एक-एक नाम पर काम करना शुरू किया। आश्चर्य की बात यह कि ये सभी नाम फार्म नम्बर-7 भरकर मतदाता द्वारा स्वयं कटवाए गए थे। तह में गए तो उनके मोबाइल नंबर फर्जी पाए गए। ये तमिलनाडु-केरल-बिहार आदि राज्यों के थे। पत्रिका ने यह मुद्दा उजागर किया तब जाकर निर्वाचन विभाग ने नाम पुन: जोड़ दिए। बात यहां रुकी नहीं, खोज जारी रही। पत्रिका में प्रकाशित अंतिम खबर में नाम कटने का यह आंकड़ा 22 हजार के आगे पहुंच चुका था।

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लोकतंत्र की पीठ में छुरा
अब आगे काम शुरू किया गया तो राज्य स्तर का यह आंकड़ा सात लाख के ऊपर पाया गया। क्या निर्वाचन विभाग कह सकता है कि यह सब उसकी जानकारी, बल्कि सहयोग के बिना हो सकता है? तब क्या मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी ऐसे जिम्मेदार पद पर रहने लायक हैं? अब, जब अधिकारी सत्ता के पिट्ठू बनकर काम कर रहे हैं, तब तक लोकतंत्र की रक्षा कौन करेगा? मीडिया तब भी मौन था, आज भी मौन है। चौराहे पर खड़ा होकर पक्षपाती बन रहा है। हाल ही में मध्यप्रदेश में शुरू हुई किसान-मजदूर बचाओ यात्रा की प्रेस कॉन्फ्रेंस का समाचार किसी बड़े मीडिया समूह ने नहीं उठाया, क्योंकि वह सरकार के विरुद्ध जा रहा था। सब जानते हैं कि इस यात्रा की इस चुनाव में खास अहमियत है। जो भूमिका प्रशासनिक अधिकारी की है, वही भूमिका मीडिया भी निभा रहा है। अनैतिक तरीकों के जरिए अपराधियों को जिताने में मदद कर रहे हैं। क्या लोकतंत्र की पीठ में छुरा नहीं घोंप रहे?

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