कांशीराम पर क्यों भिड़े मायावती और अखिलेश यादव? जानिए BSP के वोट बैंक में सेंधमारी का क्या है सपा का प्लान?
2014 लोकसभा चुनाव में BSP का एक भी सांसद यूपी से नहीं हो पाया था। 2019 लोकसभा में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने पर वह दस सांसदों तक पहुंची, लेकिन जैसे ही गठबंधन टूटा, उसका असर 2022 के चुनाव में दिख भी गया। ऐसे में अन्य राजनीतिक दलों को लगता है कि BSP को जो कोर वोट है, उसे अपने पाले में करने का यही मुनासिब मौका है। इसके लिए उन्हें कांशीराम सबसे बड़ा सहारा दिखते हैं क्योंकि अनुसूचित जाति वर्ग में राजनीतिक चेतना अगर किसी ने पैदा की, तो वह कांशीराम ही थे।
अखिलेश का दांव
कांशीराम के नाम को लेकर SP और BSP के बीच जो हालिया जंग चल रही है, उसके पीछे अखिलेश यादव का एक बड़ा दांव है। 2014 के बाद देश में जो राजनीतिक बदलाव देखने को मिला और खासतौर पर यूपी में BJP जिस ताकत के साथ खड़ी हुई है, उसमें SP चीफ अखिलेश यादव सवर्ण वर्ग के मतदाताओं पर बहुत ज्यादा मेहनत करने के पक्ष में नहीं दिख रहे। आम धारणा यह है कि यूपी में सवर्ण BJP के परंपरागत वोटर हैं। राज्य में जब BJP हाशिए पर चली गई थी तो वक्ती तौर पर उसने अलग-अलग समय पर, अलग-अलग दलों में अपना ठिकाना ढूंढा, लेकिन जब BJP मजबूती के साथ लौटी तो सवर्ण वर्ग भी BJP में लौट गया।
अखिलेश यादव इन दिनों पिछड़ा वर्ग + अनुसूचित जाति वर्ग + मुसलमानों का गठबंधन तैयार करना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि जहां-जहां सवर्ण वर्ग के उम्मीदवार होंगे, वे स्थानीय स्तर पर सवर्ण वर्ग के वोट तो ले ही आएंगे। स्वामी प्रसाद मौर्य के कॉलेज में कांशीराम की प्रतिमा और उसका अनावरण अखिलेश यादव के द्वारा किए जाने के पीछे यही रणनीति काम कर रही है। स्वामी प्रसाद मौर्य जिस तरह से रामचरित मानस को लेकर विवाद में घिरे, उस मौके पर अखिलेश यादव उनके कॉलेज पहुंच रहे हैं। वह एक खास विचारधारा के साथ खड़े होते दिखना चाहते हैं।
अखिलेश यादव को यह भी लगता है कि 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद भले ही मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ अपना गठबंधन तोड़ लिया हो, लेकिन वह अनुसूचित जाति वर्ग के मतदाताओं के बीच अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे हैं। वह मायावती के बगैर अब इस वर्ग से अपने रिश्तों को और मजबूती देना चाहते हैं। पिछले महीने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी उन्होंने पार्टी के अनुसूचित जाति वर्ग के नेताओं को खास तवज्जो दी।
सबके कांशीराम
ऐसा भी नहीं है कि कांशीराम के चेहरे का फायदा उठाने की कोशिश में अकेले अखिलेश यादव ही लगे हैं। BJP उनसे कहीं ज्यादा शिद्दत से इस कोशिश में जुटी है। यूपी में 2014 लोकसभा चुनाव में BSP के शून्य सीटों तक सिमटने और बीजेपी+ के 73 सीट जीतने के पीछे का गणित ही यही कहा जाता है कि अनुसूचित जाति वर्ग के एक बड़े हिस्से का BSP से मोहभंग हुआ और उसने बीजेपी को वोट किया। 2022 विधानसभा चुनाव में बीजेपी के ढाई सौ सीटों से ऊपर जाने और BSP के महज एक सीट पर सिमटने के पीछे भी यही कारण माना जाता है।
BJP के रणनीतिकारों का लगता है कि अनुसूचित जाति वर्ग का जो भी वोट अब तक BSP से शिफ्ट हुआ है और भविष्य में जो शिफ्ट होगा, उसका अधिकतम हिस्सा BJP के ही पाले में आएगा। इसके लिए अनुसूचित जाति वर्ग के बीच BJP काम भी कर रही है। इसी हफ्ते सरकार की सिफारिश पर विधान परिषद के लिए राज्यपाल की ओर से जो छह मनोनयन हुए, उनमें एक नाम डॉ लाल जी निर्मल का भी है, जो यूपी में अनुसूचित जाति वर्ग के बीच लंबे से काम कर रहे हैं। वह डॉ भीमराव आंबेडकर महासभा के भी बहुत पुराने पदाधिकारी हैं। बीजेपी अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों को संदेश देने की कोशिश में है कि उसे छोड़कर जो दूसरे दल हैं, उनमें जाने पर उनके सहजतापूर्ण रिश्ते नहीं हो सकते।